एक कहावत जो भारतीय समाज में काफी प्रचलित है, “जीत की खातिर जुनून होना चाहिए लेकिन गर्व केवल जीतने पर ही नहीं, हारने पर भी होना चाहिए।” इंसान केवल जीत से ही नहीं जाना जाता। जीवन में हार, जीत से कहीं कमतर नहीं है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण हैं, ‘काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़।’
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़।
सामान्यत: ‘धरतीपकड़’ शब्द का प्रयोग कुश्ती के मैदान में किया जाता है। जब कुश्ती खेलता हुआ पहलवान हारते हुए ज़मीन पर आत्मविश्वास के साथ ऐसे चिपक जाता है जैसे उसने धरती पकड़ ली हो।
जोगिन्दर सिंह ‘धरतीपकड़’ कैसे बने?
दरअसल, काका जोगिन्दर सिंह का एक ही शौक था, चुनाव में निर्दलीय होकर लड़ना। उन्हें जीतने के लिए नहीं बल्कि चुनाव लड़ने के लिए जाना जाता है। काका जी ने कई चुनाव लड़े और एक भी चुनाव नहीं जीते।
वहीं, पिछले कुछ सालों से ‘धरतीपकड़’ शब्द का प्रयोग राजनीति में भी किया जाने लगा। अब यह उन लोगों के नाम के साथ लगाया जाने लगा, जो लगातार चुनाव हारते हुए भी चुनाव लड़ने का सिलसिला जारी रखते हैं। जैसे उनके आत्मविश्वास ने मानो धरती पकड़ रखी हो। राजनीति में ऐसे कई नाम हैं, जो लगातार चुनाव हारे, यही कारण है कि काका जोगिन्दर सिंह का नाम भी धरतीपकड़ पड़ा।
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत एक चुनाव प्रधान देश है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में ऐसा कम ही देखने को मिलता है जब किसी राज्य या निचले स्तर पर चुनाव ना हो रहे हैं। यहाँ चुनावी माहौल लगभग हर वर्ष गर्माया रहता है। नेताओं के बीच जीत का जो उत्साह रहता है वो देखने लायक होता है। जीत का उत्साह और उसकी आशा किसी व्यक्ति को बार-बार चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करे तो समझ में आता है परन्तु हार भी कभी किसी को उत्साहित कर सकती हैं। यह समझ से परे है।
काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़ के बार-बार चुनाव लड़ने के पीछे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का योगदान था, जिसके कारण वे बार-बार चुनाव लड़ते रहते थे? वे चुनाव में खड़े तो होते थे मगर उद्देश्य शायद लोगों का दिल जीतने का था ना कि सत्ता की चाह।
काका जी का राजनीतिक करियर
काका जी ने वर्ष 1962 में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। जिसके बाद वर्ष 1998 में उन्होंने मरते दम तक 300 से अधिक चुनाव लड़े लेकिन हमेशा ही उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लगातार हार के बाद भी उनका मनोबल कभी डगमगाया नहीं और हमेशा ही चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हुए उन्होंने एक नया रिकॉर्ड कायम किया जिससे उनका नाम सीधा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो गया।
अपने देश में चुनाव के दौरान राजनेताओं का चुनाव प्रचार भी बढ़-चढ़ कर सामने आता है। करोड़ों रुपए प्रचार में लगाए जाते हैं। परन्तु काका जोगिन्दर सिंह ने कभी भी चुनाव प्रचार के लिए लाखो करोड़ों के खर्च का सहारा नहीं लिया। बल्कि कहा जाता है कि वे हमेशा से ही अपनी जमानत राशि राष्ट्र को ही समर्पित करते थे। वर्ष 1991 के समय अभियान दान कुल 2,500 रुपए था और वर्ष 1997 के बाद सुरक्षा जमा को बढ़ाकर 15,000 रुपए कर दिया गया था लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत करते नहीं पाया गया।
काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़ का चुनावी प्रचार करने का अंदाज़ भी अनोखा और अन्य राजनेताओं से अलग हुआ करता था। इसमें ना ही वे लाखों करोड़ों खर्च किया करते थे और ना ही अन्य राजनेताओं की तरह जनता से दावे-वादे किया करते थे।
वे हमेशा से चुनाव प्रचार के दौरान अपनी साइकिल का इस्तेमाल किया करते थे। लोगों को देने के लिए हमेशा ही अपनी पोटली में छुहारा और मिश्री रखा करते थे जिससे लोग उन्हें छुआरे वाले काका भी कहा करते थे। वे जनता से एक ही अपील किया करते थे, “मैं चुनाव में खड़ा हो गया हूँ मुझे वोट ना देकर हरा देना।”
हर चुनाव में खड़े होकर हारने के पीछे उनका कारण था देश के लिए कुछ करना। चुनाव में खड़े होने पर जमा राशि भरनी पड़ती है और अगर वह चुनाव हार जाते हैं तो जमा की गई राशि उन्हें वापस नहीं मिलती बल्कि नेशनल फंड में चली जाती है। ऐसा कहा जाता है कि उनके हारने की यही वजह थी कि वह अपनी जमा राशि राष्ट्र को समर्पित करना चाहते थे।
चुनाव के दौरान उनके जनता से कुछ वादे भी हुआ करते थे जिनके सहारे वह चुनाव में खड़े होते थे। वैसे तो वे हर चुनाव हारे लेकिन उनका मानना था कि अगर वे चुनाव जीत जाते हैं तो वह विदेशी ऋणों को चुकाएंगे, भारतीय स्कूलों में अधिक से अधिक निर्माण कार्य और भारतीय अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली यानी बार्टर सिस्टम को वापस लाएंगे।
काका जोगिन्दर सिंह ने वर्ष 1962 से विधानसभा से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनावों में अपनी उम्मीदवारी दर्ज़ कराई थी। 1962 में उन्होंने पहली बार बरेली से चुनाव लड़ा जिसके बाद उन्होंने हर चुनाव में अपनी उम्मीदवारी दर्ज करवाई। वे केवल उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि हरियाणा के भी लोकसभा चुनाव में खड़े हुए। 1990 के समय में वह भारत के 14 राज्यों से चुनाव भी लड़े जिनमें से ज्यादातर चुनाव विधानसभा के थे।
काका जोगिन्दर सिंह दो बार राष्ट्रपति चुनाव के लिए मैदान में उतरे, 1992 के 10वें राष्ट्रपति चुनाव के दौरान शंकर दयाल शर्मा से हारकर 1,135 मतों के साथ चौथा स्थान अर्जित किया। उन्होंने केआर नारायणन के खिलाफ लड़ते हुए मात्र 1 वोट हासिल किया।
अपने राजनीतिक करियर में वे बीजेपी के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ भी चुनावी मैदान में उतरे।
काका जोगिन्दर सिंह के राजनीतिक जीवन में एक दौर वो भी आया जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बरेली से विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए अपनी पार्टी के टिकट की पेशकश भी की। उस समय नेहरू को कॉन्ग्रेस के लिए बरेली से एक सिख उम्मीदवार की ज़रूरत थी लेकिन काका जोगिन्दर सिंह ने इसे अस्वीकार करते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया।
काका जोगिन्दर सिंह किसी भी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि एक नेता को हमेशा ही निर्दलीय होकर लड़ना चाहिए और उन्होंने हमेशा ही निर्दलीय होकर ही लड़ा। हालाँकि, एक बार राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा और दूसरी बार उप-राष्ट्रपति के.आर नारायण के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने अपने निर्दलीय होकर लड़ने वाले नियम को तोड़ दिया था।
राजनीति में सक्रिय होने के अलावा काका जी का बरेली में अपना बिज़नेस था। उनका जन्म वर्ष 1918 में संयुक्त हिंदुस्तान के गुजरांवाला में हुआ था, जो पाकिस्तान में था। बंटवारे के बाद वह अपने पूरे परिवार समेत उत्तर प्रदेश के बरेली शहर आ गए।
बरेली में उन्होंने कपड़ों का कारोबार शुरू किया। आज भी बरेली के बड़ा बाजार में उनकी कपड़ों की दुकान मौजूद है। जिस तरह काका जोगिन्दर सिंह हमेशा ही चुनाव प्रचार के दौरान अपनी पोटली में छुहारे और मिश्री रखा करते थे ठीक उसी तरह अपनी कपड़ों की दुकान में भी आते-जाते ग्राहकों को वे छुहारे और मिश्री दिया करते थे।
भले ही वह हर चुनाव हारें हों लेकिन निर्दलीय होकर लड़ने का जूनून काका जोगिन्दर सिंह पर हमेशा हावी रहा। काका जोगिन्दर सिंह का देहांत 23 दिसम्बर 1998 को हुआ था। आज भी जब चुनावी माहौल बनता है तो सभी को काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़ ज़रूर याद आते हैं।