लंगड़ ने अब पूरी तैयारी कर ली है वह अपने गाँव से चला आया है। अपने घर में उसने ताला लगा दिया है। खेत, फसल, बैल बधिया सब भगवान के भरोसे छोड़ आया है। अपने एक रिश्तेदार के यहाँ डेरा डाल दिया है और सवेरे से शाम तक तहसील के नोटिस बोर्ड के आस-पास चक्कर काटता रहता है। उसे डर है कि कहीं ऐसा ना हो कि नोटिस बोर्ड पर उसकी दरख्वास्त की कोई खबर निकले और उसे पता ही न चले। उसने फीस का पूरा चार्ट याद कर लिया है। आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना कचहरी का मुँह देखना पड़ता है, लंगड़ का भी करम फूट गया है
ब्रिटिश की छाया से बाहर निकले भारत में ये पंक्तियाँ सन् 1967 में लिखी गई थी। लंगड़ की यह व्यथा उस दौर की परिस्तिथियों को आसानी से बयाँ कर रही हैं। स्वर्गीय श्री लाल शुक्ल द्वारा रचित ‘राग दरबारी की यह पंक्तियाँ आज 55 वर्ष बाद भी प्रासंगिक बनी हुई हैं। इस निष्कर्ष के पीछे किन्हीं एक-दो लोगों की प्रतिक्रिया नहीं है। ऐसा, देश की प्रथम नागरिक राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संबोधन से निकला है।
इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह उन्होंने हिंदी में कहा है।
संविधान दिवस के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने वक्तव्य में न्यायपालिका से संबंधित जन साधारण के कई विषयों को श्रोताओं के समक्ष रखा। यहाँ भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति सहित देश के सभी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश ‘विराजमान’ थे।
राष्ट्रपति मुर्मू ने जिन मुद्दों को उठाया वे उन मुद्दों पर स्वयं दीर्घ अवधि से कार्य कर रहीं थीं। जब उन्होंने जेल में बिना ट्रायल के सजा काट रहे कैदियों और मानवाधिकार से वंचित कैदियों के विषय पर विचार प्रकट किए तो उन्होंने, यह भी बताया कि कैसे विधायक रहते हुए उन्होंने इस मुद्दे के समाधान का प्रयास ढूंढा और अपने ये प्रयास उन्होंने झारखण्ड के राज्यपाल रहते भी जारी रखे।
सम्भवत: राष्ट्रपति मुर्मू ने न्यायपालिका के स्तंभों को यह सन्देश दिया कि किसी भी जनसाधारण के मुद्दे पर एक शब्द की भी व्याख्या करने के लिए उन मुद्दों से जुड़ा होना आवश्यक है। यह विश्वास उनके संबोधन में भी स्पष्ट हो रहा था।
सम्मानित व्यक्तियों के इस मंथन में राष्ट्रपति ने कोई नया विचार नहीं रखा था। समाचार पत्रों के शीर्षकों से लेकर लोकतंत्र के मंदिर संसद तक, न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और न्यायपालिका में लंबित मुकदमे हमेशा चर्चा का विषय रहे हैं। ‘हम भारत के लोगों’ की मन की बात राष्ट्रपति कह रही थीं। संविधान के अभिभावकों तक जनता की बात पहुँचाने का सहारा या सेतु राष्ट्रपति को बनना पड़ा। यह जनता और न्यायपालिका के बीच संवाद की कमी को ही उजागर कर रहा था।
राष्ट्रपति महोदया ने पहले कागज़ों में समेटे हुए अपने भाषण को पढ़ा, जोकि अंग्रेजी भाषा में लिखा था। फिर कागज़ हटाकर अपनी बात रखने के लिए हिंदी का सहारा लिया। हिंदी में भी ओड़िया का प्रभाव झलक रहा था लेकिन, राष्ट्रपति द्वारा कहे गए हर एक शब्द, विचार गंभीरता के साथ भावनाएं ओढ़े हुए थे। दिल की बात हिंदी में कह कर राष्ट्रपति ने बताया कि जिन पीड़ितों की बात रख रही हैं वो भी अगर सुनें, तो बात समझ सकें। साथ ही इसमें सन्देश निहित था कि अंतिम व्यक्ति अगर अपनी समस्याएँ हिंदी में व्यक्त करता है तो मात्र अंग्रेजी न जान पाना उस तक न्याय पहुंचने में बाधा नहीं बन सकता।
हस्तक्षेप की चर्चा से दूर रहते हुए जब वह कहती हैं कि “तीनों अंग मिलकर काम करें और सभी यहाँ ज्ञानी हैं।” किंचित ही राष्ट्रपति में बच्चों के भविष्य के लिए एक भावुक शिक्षक नज़र आ ही रही थीं। सिर्फ एक वनवासी महिला तक सीमित नहीं वरन् शिक्षक से जनप्रतिनिधि रहीं द्रौपदी मुर्मू कार्यपालिका के प्रमुख के तौर पर न्यायपालिका के साथ शक्ति पृथक्करण को भी समझ रही थीं। इसलिए उन्होंने कईं बातें न रखकर भी अपनी बातें रख दी। कार्यपालिका में हस्तक्षेप कर नजीर बनाने वालों के लिए यह नजीर हो सकता है जब राष्ट्रपति कहती हैं “बाकी जो नहीं बोल रही हूँ वो आप समझें।”