24 सितंबर, 1932 यानि आज ही के दिन गाँधी और डॉ बीआर अंबेडकर के बीच यरवदा जेल में एक समझौता हुआ था, जिसमें दलित वर्ग को कई अधिकार दिए गए थे। लंदन में आयोजित हुए गोलमेज सम्मेलन के बाद से भीमराव अंबेडकर दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की माँग पर अड़े थे। गाँधी इससे नाराज होकर अनशन पर बैठ गए थे और इन्हीं घटनाक्रम के बीच पूना समझौता (पैक्ट) हुआ था।
पूना पैक्ट की पृष्ठभूमि
यह वो समय था जब गाँधी राजद्रोह के आरोप में पुणे की यरवदा जेल में बंद थे और डॉ भीमराव अंबेडकर के साथ उनका तनाव चल रहा था। अंबेडकर दलित वर्ग जो आज अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं, के लिए संविधान में अलग से निर्वाचन प्रतिनिधित्व की माँग कर रहे थे। गाँधी इस माँग के विरुद्ध थे, उनका मानना था कि ऐसा कोई भी कानून उनके द्वारा किए जा रहे दलितों के ‘उत्थान की मुहिम’ को कमजोर कर देगा।
यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड 16 अगस्त, 1932 में ‘साम्प्रदायिक पंचाट’ (कम्युनल एवॉर्ड) लेकर आए थे। इसी पंचाट के प्रावधानों ने समाज के साथ ही गाँधी और अंबेडकर के बीच फूट डालने का काम किया था।
‘साम्प्रदायिक पंचाट’ में मैकडोनाल्ड ने दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन मंडल का प्रावधान किया गया था। इस प्रावधान में दलितों को हिंदूओं से अलग माना गया था। ‘फूट डालो राज करो’ का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता, क्योंकि सिखों और मुसलमानों के बाद हिंदू-हिंदू में द्वेष पैदा करने के प्रावधान इसमें शामिल किए गए थे।
गाँधी को जब पंजाट की जानकारी हुई तो वो आमरण अनशन पर बैठ गए और समाज में फूट डालने वाले प्रावधान का पुरजोर विरोध किया। सांप्रदायिक पंचाट के विरोध में डॉ राजेंद्र प्रसाद, मदन मोहन मालवीय, राजा गोपालाचार्य ने पूना में ही अंबेडकर के साथ इस पर बैठक भी की थी।
आखिर यूके के तत्कालीन प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने सांप्रदायिक पंचाट में ऐसे क्या प्रावधान किए थे कि गाँधी को जिद का रास्ता पकड़ना पड़ा।
- मुसलमान, सिख, ईसाई, एंग्लो-इंडियन, व्यापारिक एवं ओद्यौगिक और जमींदार वर्ग और विश्वविद्यालयों के लिए इसमें ना सिर्फ अलग चुनावी क्षेत्र का प्रावधान किया गया बल्कि अलग सीटें भी आरक्षित की गई है।
- अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था, अछूतों और हिंदूओं में फर्क, स्त्रियों के लिए भी कुछ स्थान आरक्षित किए गए।
- ऐसे क्षेत्र जहाँ हिंदू अल्पमत में थे उन्हें उस तरह छूट नहीं मिली जैसे मुस्लिम वर्ग को उन क्षेत्रों में मिली थी, जहाँ वो अल्पसंख्या में थे।
इस सांप्रदायिक ‘निर्णय’ से राष्ट्रवादी लोगों को गहरा धक्का पहुँचा, इसका दूरगामी प्रभाव वो समाज के विभाजन के तौर पर देख रहे थे। इस के विरोध में 18 अगस्त 1932 को गाँधी ने रैम्जे मेकडोनाल्ड को पत्र लिखा था कि अगर इस पंचाट के प्रपंच को 20 अगस्त 1932 तक वापस नहीं लिया गया तो वो आमरण अनशन शुरू कर देंगे।
हालाँकि, अंग्रेजी हुकुमत ने इसकी कोई परवाह नहीं की। इसके बाद गाँधी ने आमरण अनशन शुरू किया, जिसे अंबेडकर ने राजनीतिक धूर्तता बताया। कथित अछूतों के लिए काम कर रहे अंबेडकर अपनी माँग पर टिके रहे और कहा कि वो गाँधी के लिए इस प्रावधान का विरोध नहीं करेंगे। विशेषतौर पर जब उनके पास इसके अतिरिक्त विकल्प उपस्थित नहीं है।
आमरण अनशन से गाँधी के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी। उस समय के सबसे मुख्य अखबार गाँधी के गिरते स्वास्थ्य की हेडलाइन से भरे थे। कॉन्ग्रेस से जुड़े नेता अंबेडकर पर विवाद सुलझाने का दबाव डाल रहे थे। हालाँँकि, अंबेडकर दलित वर्ग के ‘हितों’ को दरकिनार करने से इंकार कर चुके थे। उन्होंने कहा “अगर मुझे फाँसी पर भी चढ़ा दिया जाए तब भी मैं लोगों के विश्वासघात कर अपने पवित्र कर्तव्य से नहीं डिग सकता”
22 सितंबर, 1932 को पूणे की यात्रा के दौरान अंबेडकर गाँधी से मिलने पहुँचे थे। हालाँकि, कॉन्ग्रेस ने इससे पहले बाबा साहेब को मनाने के लिए द्विस्तरीय प्रणाली का प्रस्ताव उनके समाने रखा था।
23 सितंबर, 1932 को दोनों ने जिद छोड़ कर एक बार फिर मुलाकात की। गाँधी का जीवन बचाने के लिए अंबेडकर ने कहा कि वो यह समझौता करेंगे। 24 सिंतबर, 1932 को 5 बजे 23 लोगों के हस्ताक्षर द्वारा एक समझौता सामने आया, जिसे पूना पैक्ट कहा गया।
पैक्ट पर हिंदू और गाँधी की ओर से हस्ताक्षर किए तो दलितों की ओर से भीमराव अंबेडकर ने। समझौते के सामने आने के साथ ही दलितों के लिए अलग निर्वाचन का प्रावधान समाप्त हो गया। अब दलित वर्ग को अंग्रेजों द्वारा 80 के बजाय 148 सीटें दी गई।
गाँधी और अंबेडकर के बीच विवाद
बेमन से हुए इस समझौते के बाद अंबेडकर ने गाँधी को कहा था कि हम आपको नायक तभी मानेंगे जब आप अपना संपूर्ण जीवन अछूत वर्ग के उत्थान के लिए लगाएँगे।
गाँधी वर्ण-व्यवस्था के प्रचंड समर्थन में थे, वहीं अंबेडकर इसके कट्टर विरोधी। अंबेडकर के अनुसार, वर्ण व्यवस्था अवैज्ञानिक, अमानवीय, अनैतिक थी। वहीं गाँधी वर्ण व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था को समाज के लिए जरूरी मानते थे। गाँधी वर्ण व्यवस्था को समाज में व्यापत अस्पृश्यता का कारण नहीं मानते थे लेकिन, अंबेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था को समाप्त किए बिना अस्पृश्यता समाप्त नहीं हो सकती।
‘अस्पृश्यता निवारण अभियान’ चलाने वाले गाँधी का मानना था कि इसे आदर्शों और दीर्घकालिक उपायों के साथ ही हटाया जा सकता है। हालाँकि, अंबेडकर का कहना था कि हिंदू धर्म में अछूतों का उद्धार नहीं हो सकता, मात्र धर्मांतरण ही उन्हें विकास के रथ पर चढ़ा सकता है।
अंबेडकर का मानना था कि हिंदू धर्मशास्त्रों में अस्पृश्यता के विचार विद्यमान है। हालाँकि, गाँधी हिंदू धर्मशास्त्रों में अस्पृश्यता की बात को सिरे से नकारते थे।
क्या था पूना पैक्ट
यह समझौता रैम्जे मेकडोनाल्ड द्वारा लाए जा रहे सांप्रदायिक पंचाट के विरुद्ध था। इसके जरिए दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार समाप्त किया गया था।अछूत वर्ग को हिंदूओं से अलग ना समझते हुए प्रांतीय विधानमंडलों में दलित आरक्षित वर्ग के लिए 80 के स्थान पर 148 सीटें दी गई।
- केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों के 18 फीसदी का प्रावधान किया गया।
- अंबेडकर और गाँधी के बीच दलित वर्ग के उम्मीदवारों के लिए संयुक्त निर्वाचक मंडल द्वारा चुने जाने पर सहमति बनी।
- इस समझौतों में कथित अछूत वर्ग को प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि और सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के प्रतिनिधित्व पर भी सहमति बनी थी।
मद्रास, बंगाल में 30-30, प्रांत एवं संयुक्त प्रांत में 20-20, बिहार एवं उड़ीसा में 18, बम्बई और सिंध में 15, पंजाब में 8 तो असम में 7 स्थान दलितों के लिए आरक्षित किए गए थे। इसके साथ ही गैर-मुस्लिम क्षेत्र में आरक्षित सीटों का एक निश्चित प्रतिशत भी दलित वर्ग के लिए आरक्षित किया गया था।
दलित, जो कि वंचित वर्ग के रूप में उभर कर आए थे के लिए केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों में मताधिकार लोथियन समिति की रिपोर्ट के अनुसार करने का प्रावधान इसमें था। इस बात पर भी सहमति बनी कि किसी भी स्थानीय निकाय के चुनाव या लोक सेवाओं में नियुक्ति में किसी व्यक्ति को इस आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा क्योंकि वो दलित है।
पूना पैक्ट का प्रभाव
पूना पैक्ट ने समाज का एक हिस्सा जो कि समान्य वर्ग से आता था, को राजनीतिक हथियार बना दिया। वास्तविक दलित वर्ग जिसके लिए संयुक्त निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत की गई थी को हराकर केवल उन दलितों को जीत दिलाई गई, जिन्होंने राजनीतिक एजेंट की भूमिका अदा की। समझौते के जरिए समानता और बंधुत्व पर टिके समाज की नींव हिलाने का काम किया गया।