बिक्रम दो हफ्ते बाद मिला तो भड़का हुआ था। नीचे से ही उचकते हुए बोला- कविता के चक्कर में कवि बन गया है क्या जी? क्या अल्लबल्ल लिख दिए थे पिछली बार? एक दिन हम भारत जोड़ने क्या चले गए, तुम रहस्यवादी हो गए? एक बार फोन कर के ही हमसे पूछ लेते लिखने से पहले…।
बात तो सही थी, लेकिन दूसरे के कंधे की आदत हमें ऐसी पड़ी हुई है कि क्या बताएं। पेंडिंग जिज्ञासाओं को शांत करना ही बेताल का मूल धर्म है। सो, मैं उचक कर बिक्रम के कंधे पर फिर आ बैठा और अबकी स्पष्ट शब्दों में पूछा- ‘अच्छा गुस्सा मत हो। ये बताओ, कविता को माओ-स्टालिन की निरंकुशता की याद ठीक उसी समय क्यों आयी जब नीतीश कुमार दिल्ली में दीपांकर से मिलने आए थे? साफ जवाब देना वरना तुम्हारा सिर शिव सेना की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।‘
बिक्रम मुस्कराया। फिर बोलता चला गया।
देखो बेटे, कविता या कहानी में राजनीति को पकड़ पाना बहुत मुश्किल काम होता है। आजादी के बाद से ये वामी-कामी कविता कहानी के बहाने जैसी प्रच्छन्न राजनीति करते आए हैं, वे इस बात को भूल गए हैं कि उनके साथ भी कभी राजनीति हो सकती है। कविता के मामले में यही हुआ। बिहार चुनाव में कविता ने जान लगा दी थी। ये जो बारह विधायक बिहार में माले के जीत कर आए, उसमें पार्टी के चेयरमैन का कोई हाथ नहीं था क्योंकि उसे तो चारु भवन की चेयर पसंद है। माले की वेबसाइट को खंगालो, बेताल। बिहार चुनाव की कैम्पेन डायरी पूरी तरह कवितामय है। जिस नेता की मेहनत से दर्जन भर विधायक बने, उसी के साथ राजनीति?
मैंने पूछा, मने अंदरूनी खेल हुआ है क्या कुछ? और नीतीश चाचा का भी उसमें हाथ है?
यार, तुम टुकड़े-टुकड़े वालों की यही दिक्कत है। बात समझते नहीं, हल्ला ज्यादा करते हो। जिस पार्टी के दर्जन भर विधायक हों फिर भी उसका मुखिया एक भी मंत्री पद न मांगे और सरकार का हिस्सा भी बना रहे, तो समझो कि कुछ बड़ा पक रहा है। जिस दिन तुम्हारे नीतीश चाचा दिल्ली आकर दीपांकर से मिले थे उसी दिन राज्यसभा की डील पक्की हो गयी थी। अब पार्टी चेयरमैन बिना कुछ किए राज्यसभा पहुंच जाए और जिसने काम किया वो काम ही करता रहे, कविता इतनी भी मासूम नहीं है न! क्या समझा? माओ-स्टालिन ऐसे ही थोड़े याद आते हैं किसी को।
तो अब? कविता को स्टालिन याद आ रहे हैं। स्टालिन राहुल भइया से मिल रहे हैं। मने, कविता कहीं कांग्रेस में तो नहीं…? या डीएमके? गृहराज्य का भी मामला है! मेरे इस तुक्के पर बिक्रम एकदम चिढ़ गया।
तुम यार उतरो मेरे ऊपर से। सौ साल के अंतर पर पैदा हुए दो स्टालिन को मिला दिया, मूर्ख! अपना वाला स्टालिन तमिलनाडु वाला है, वो रूसी था। और कविता का डीएमके से क्या लेना-देना? हां, इस बहाने एक बात तुम सही याद दिलाए। माले टाइप खेल डीएमके में भी हो रहा है। जिंदगी भर जो शेफर्ड कांचा इलैया दलितों को रास्ता दिखाता रहा उसे छोड़ के दलितों को ओबीसी के फायदे में हांकने वाले दिलीप मंडल को राज्यसभा भेजने की तैयारी है। इसी से खुश हो जाओ कि तुम्हारा बिहारी भाई मंडल तमिलनाडु से संसद जा रहा है पर तुम्हारी तमिल बहन कामरेड को उसी के नेता ने बिहार से संसद नहीं जाने दिया।
गज्जब गुरु। एक बिहारी सब पर भारी। वैसे, साउथ वाले तो मासूम होते ही हैं। अच्छा बिक्रम भइया, एक आखिरी जिज्ञासा का शमन करें। आपका सिर सलामत रहेगा। आप तो खुद भारत जोड़ कर आ रहे हैं बीस दिन बाद। ये बताइए, भारत टूटा कहां-कहां है? कुछ पकड़ में आया?
बहुत गंभीर सवाल कर दिए, बेताल। तो सुनो। भारत के जुड़ने का टूटने से कोई लेना-देना नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अफ्रीकी चीते के भारत आने का एशियाई चीतों के प्रजनन से कोई लेना-देना नहीं है। देखो, ये देश बहुत अखण्ड है। अभी और अखण्ड बनना है। भारत में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान, नेपाल, लंका आदि को जोड़ने की जरूरत है। राहुल गांधी अगर इन देशों में यात्रा निकालते तो मोदीजी भी समर्थन कर देते। वो देशहित में होता, लेकिन यहां हर वो काम किया जाता है जिसकी जरूरत नहीं होती जबकि जरूरत का कोई काम नहीं किया जाता। यही हमारी प्राचीन परंपरा है। अब खुद को ही देखो, तुम बिना मेरे कंधे पर बैठे ही मुझसे शास्त्रार्थ कर सकते थे। स्काइप, जूम, गूगल मीट, फोन, वॉट्सएप, सब कुछ है आज, लेकिन नहीं। परंपरा निभानी जरूरी है। राजनीति हमेशा दूसरे का कंधा मांगती है।
फिर आप फंसा दिए! राहुल भइया किसके कंधे से राजनीति साध रहे हैं? उनका बिक्रम कौन है?
सब आज ही जान जाओगे? पीपल पर जाओ और हफ्ता भर उलटा लटक के सोचो, कि तुम्हारे भइया का जिज्ञासा शमन न करने पर किसका सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।