संसद का उच्च सदन राज्यसभा प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का सामना नहीं करता है। हालांकि संवैधानिक अधिकारों के विषय में यह उतनी ही महत्ता रखता जितना निचला सदन। फिर भी राजनीतिक अनुभव और विशेषज्ञों की विविधता पर गौर किया जाए तो राज्यसभा में इसका बेहतरीन संयोजन देखने को मिलेगा। इसका कारण सदन की संगठानत्मक विशेषता को जाता है जो साहित्य, कला, विज्ञान, सामाजिक कार्य और कई क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों और महानुभावों को बिना चुनाव प्रक्रिया से गुजरे संसद भवन में बैठने का मौका प्रदान करता है।
इस प्रक्रिया का उद्देश्य भी संसद भवन में एक गैर-राजनीतिक वर्ग का निर्माण करना रहा है जो अपने क्षेत्र के अनुभव का फायदा देश को दे सके। जहां लोकसभा में विराजमान राजनीतिज्ञ अपने-अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं राज्यसभा में भेजे जाने वाले गैर-राजनीतिक व्यक्ति संपूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
प्रतिष्ठित व्यक्तियों को राज्यसभा में स्थान देने के विषय में संविधान मसौदा समिति के सदस्य रहे एन गोपालस्वामी अयंगर ने कहा था कि; हम इस प्रक्रिया के जरिए ऐसे अनुभवी लोगों को भी मौका देते हैं जो राजनीतिक मैदान में नहीं हैं, पर सीखने और महत्व के साथ बहस में भाग लेने के इच्छुक हो सकते हैं।
एक सरल पारदर्शी प्रक्रिया ने भारतीय संसद में विविधता का मिश्रण सुनिश्चित किया। सदन में नामांकित होने वाले महानुभावों या दलों के उम्मीदवारों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कई दशक तक राजनीतिक अनुभव और प्रतिष्ठित व्यक्तियों की बौद्धिक संपदा ने उच्च सदन की गरिमा को बढ़ाने का काम किया है।
इसे बनाए रखने में उम्मीदवारों की भूमिका अत्याधिक महत्वपूर्ण भी है। जैसे सचिन तेंदुलकर, अभिनेत्री रेखा के नामांकन उनके संबंधितों क्षेत्रों में अतुलनीय योगदान के लिए किया गया था पर सदन में उनकी निष्क्रियता ने आलोचना को जन्म दिया।
हालांकि इससे किसी प्रकार प्रक्रिया की महत्ता कम नहीं होती है। जाकिर हुसैन जिन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया था आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने। यह भी देखा गया है कि अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाली ये हस्तियां राजनीतिक कार्यों को सामाजिक सेवा के रूप में देखकर इसका हिस्सा भी बन जाती है।
कांग्रेस महासचिव और पूर्व मंत्री मरागाथम चन्द्रशेखर ने एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में 1970 से 1988 तक तीन बार राज्यसभा के मनोनीत हुए थे। असम की पूर्व मुख्यमंत्री अनवरा तैमूर 1988 में राज्यसभा में नामांकित की गई थी। इंदिरा गांधी की करीबी सहयोगी निर्मला देशपांडे 1997 और 2003 में नामांकित हुई थीं। पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर, मदन भाटिया, सत पॉल मित्तल भी कुछ ऐसे नाम रहे जिन्होंने आगे चलकर राजनीति कार्य को अपना लिया।
2018 में भी नामांकित 12 सदस्यों में से 8 के द्वारा बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की गई। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बौद्धिक और सामाजिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला यह वर्ग सक्रिय राजनीति का भाग बनकर किस प्रकार देश को लाभान्वित कर सकता है। संबंधित क्षेत्रों में लंबा अनुभव रखने वाले ये महानुभाव नेता के तौर पर क्षेत्र की चुनौतियों और विकास नीतियों के विषय में किसी राजनीतिज्ञ की तुलना में बेहतरीन काम कर सकते हैं। हाल फिलहाल में देखें तो इसका एक अच्छा उदाहरण विदेश मंत्री एस जयशंकर हैं जो विदेश सचिव के लंबे कार्यकाल के अनुभव से विदेश मंत्रालय को फायदा पहुँचा रहे हैं। भारत की विदेश नीति में सुधार और प्रभावी कूटनीति की चर्चाओं को बढ़ाने का श्रेय एस जयशंकर को जाता है।
इसके बाद भी राजनीति और इसके निहितार्थ लाभ संवैधानिक प्रक्रिया में अपना फायदा खोज ही लेते हैं। समय के साथ नामांकन प्रक्रिया का प्रयोग भी राज्यसभा में अपनी संख्या बढ़ाने या अपने पक्ष के व्यक्ति को सदन में स्थापित करने के लिए भी किया जाने लगा है।
नामांकित उम्मीदवारों को सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनना कोई नई बात नहीं है। या कहें कि अब सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनाने के लिए ही उम्मीदवारों का चयन किया जा रहा है। आगामी राज्यसभा चुनावों के लिए टीएमसी द्वारा घोषित उम्मीदवारों की सूची ने एक बार फिर ऐसी ही बहस को जन्म दिया है। प्रश्न यह भी है कि राज्यसभा में अधिकतर वरिष्ठ प्रतिभाशाली एवं अनुभवी सदस्यों की उपस्थिति के बीच क्या देश सोशल मीडिया एक्टिविस्ट को देखने के लिए तैयार है?
यह प्रश्न साकेत गोखले के विषय में है जो अपनी पृष्ठभूमि के चलते राज्यसभा उम्मीदवार के तौर पर निराश करते हैं। गोखले पर क्राउड फंडिग के नाम पर करोड़ों रूपए के गबन करने का आरोप है। गोखले सिर्फ रूपए के हेर-फेर के लिए ही नहीं बल्कि फेक न्यूज फैलाने में भी कुख्यात है और दोनों ही मामलों में जेल जा चुके हैं।
गोखले के एक्टिविज्म की वास्तविकता और नेता के रूप में उनका आकलन करने पर पता चलता है कि ममता बनर्जी ने क्यों उन्हें टीएमसी के उम्मीदवार के तौर पर चुना हैं। आखिर बंगाल में जारी लोकतंत्र के मखौल का सकलीकरण करने के लिए राज्यसभा में भी कोई होना चाहिए। हालांकि राज्यसभा के कार्य शक्तियां और राजनीतिक महत्व को देखते हुए यह प्रयोग नामांकन की प्रक्रिया का राजनीतिकरण करने जैसा है।
नामांकन प्रक्रिया का महत्व अनुभवी और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को संसदीय कार्य से जोड़ने का है, जिसका लाभ अंततः देश को मिल सके। कथित सामाजिक एक्टिविस्ट या पार्टी प्रचारकों को संसद में स्थान देना चिंताजनक है। यह समझते हुए कि सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनने का यह सरल उपाय है इसे और खतरनाक बना देता है।
प्रत्यक्ष चुनाव प्रक्रिया में जनता द्वारा अवलोकन के बाद किसी नेता को सदन में जगह मिलती है। पर विधानसभा के सदस्य जब निजी लाभ के लिए एक्टिविस्ट को राज्यसभा में जगह दिलाने लगें तो इस प्रक्रिया का महत्व गौण हो जाता है।
राज्यसभा सदस्य के तौर पर वे निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता और सक्रिया राजनीति का हिस्सा बनने की संभावनाओं के चलते उम्मीदवारों के चयन में और गंभीरता बरती जानी चाहिए। आखिर निजी लाभ के लिए काम करने वाला एक्टिविस्ट किस प्रकार अपने अनुभव का प्रयोग राजनीतिक सरोकार के लिए करेंगे?
यह भी तय किया जाना चाहिए कि राजनीतिक लाभ और संख्यात्मक महत्व के लिए क्या राजनीतिक दल राज्यसभा को चोर रास्ते के रूप में प्रयोग कर रहे हैं?
यह भी पढ़ें- सत्ता का वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करना विपक्ष की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है