पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हुए, चुनावी हिंसा भी हुई और सत्ताधारी दल की जीत भी। हालांकि राज्य में चुनाव परिणाम से अधिक चुनाव प्रक्रिया का संज्ञान लेना अति आवश्यक है। ऐसे में एक प्रश्न जो सबके मन में है वो यह कि; अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी हिंसात्मक चुनावी प्रक्रिया के प्रति न्यायिक संस्थाएं गंभीर क्यों नजर नहीं आ रही हैं?
स्थिति की गंभीरता कितनी अधिक है इसे समझने के लिए यह एक तस्वीर देखिए जो पश्चिम बंगाल में पोलिंग बूथ पर तैनात एक महिला अधिकारी की है जो चुनावी हिंसा को देखकर टूट चुकी है। यह हिंसा से संतप्त एक अधिकारी की तस्वीर नहीं है, यह लोकतंत्र, राजनीतिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक शांति के खत्म होने की तस्वीर है। पंचायत चुनाव ही नहीं बंगाल में जारी हिंसा मॉडल को जानने के लिए महज यह एक चेहरा जनतंत्र के संपूर्ण खात्मे को बिना किसी पक्षपात के दर्शा रहा है।
अब एक दूसरा वीडियो देखिए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी का जो संसद भवन में केंद्र सरकार का जमकर विरोध करते नजर आते हैं और अक्सर देश में तथाकथित तौर पर खत्म हो चुके लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न खड़े करते हैं। इस वीडियो में देखा जा सकता है कि देश में विपक्ष का नेतृत्व करने वाली पार्टी का नेता पश्चिम बंगाल में कितना मजबूर है। संसद में चिल्लाने वाली यह आवाज पश्चिम बंगाल में किस प्रकार बेबस हो जाती है।
इसे देखकर भी अगर राजनीतिक दोषारोपण को प्रतिशोध या प्रेरित करार दिया जाए तो क्या यह ठीक होगा? बंगाल में चुनावी हिंसा या कहें कि राजनीतिक हिंसा के लिए सत्ता पक्ष इसलिए अधिक जिम्मेदार है क्योंकि राज्य में लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। राज्य सरकार और राज्य चुनाव आयोग द्वारा लगातार विफल रहने पर भी उनकी जिम्मेदारी पर संदेह न किया जाना लोकतंत्र की मजबूती नहीं है बल्कि विफलता है।
मतदान केंद्रों पर बिखरा खून और चुनाव प्रक्रिया का मखौल केवल शासन-प्रशासन ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में न्यूनतम मानवीय संवेदना के न रहने के सच को उजागर करता है। बात कहां से शुरुआत की जाए, यह समझना आसान नहीं है। फिर भी क्रोनोलॉजी देखने पर एक ही कारण समझ में आता है और वो है सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर लेने की राजनीतिक इच्छाशक्ति।
पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा की राजनीति का इतिहास देखते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग और राज्य सरकार को जो निर्देश दिये, उन्हें पालन न करने की मंशा शुरुआत से ही थी। यही कारण था कि हाईकोर्ट के आदेश को राज्य सरकार एवं राज्य चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट द्वारा याचिका खारिज करने पर ममता बनर्जी सरकार ने कहा कि सुरक्षा बल जनता को धमकाने के लिए आ रहे हैं। राज्य चुनाव आयोग का कहना था कि वो चुनाव करवाने में सक्षम हैं। अब इसे इकोसिस्टम की ताकत ही कहेंगे कि चुनाव में हुई हिंसा की खबर सामने आते ही दी टेलीग्राफ ने खबर इस हेडलाइन से खबर छापी, ‘18 Killed In Clashes, Question Mark on Central Forces’ (हिंसक झड़प में 18 की मौत, सुरक्षा बल संदेह के घेरे में)
क्या सुरक्षा बल हैं जिम्मेदार?
पंचायत चुनाव में सुरक्षा बलों का क्या असर रहा इसे समझने के लिए बीएसएफ के डीआइजी एसएस गुलेरिया का बयान महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि जहां-जहां केंद्रीय बल की तैनाती की गई वहां पर हिंसात्मक घटनाओं में कमी देखी गई है। दो जगह बूथ कैप्चरिंग जैसी घटनाएं सामने आई जिन्हें संभालने में केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान कामयाब रहे।
इसके बाद भी सच यही है कि राज्य में 40 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई है। चुनावी धांधली जगह-जगह सामने आई। क्या इसमें किसी प्रकार सुरक्षा बलों पर संदेह किया जा सकता है जबकि इनकी भूमिका मात्र 25 प्रतिशत पोलिंग बूथ तक सीमित रखी गई। सुरक्षा बलों को राज्य चुनाव आयोग द्वारा आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं करवाए गए। बीएसएफ के डीआइजी गुलेरिया ने बताया कि केंद्रीय बल के 2713 जवानों को बूथों पर तैनात करने के बजाय शनिवार सुबह स्ट्रांग रूम में तैनात रखा गया। जब अंततः उन्हें संवेदनशील बूथों की सूची दी गई, तो एसईसी ने हिंसा को नियंत्रित करने में केंद्रीय बलों की मदद के लिए स्थान या कोई अन्य जानकारी नहीं दी।
यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि बूथों पर सुरक्षा बलों की तैनाती राज्य चुनाव आयोग की योजना के अनुसार की जाती है। पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग के अध्यक्ष राजीन सिन्हा हैं जो सितंबर 2019 से सितंबर 2020 तक राज्य के मुख्य सचिव रह चुके हैं। राजीव सिन्हा ममता बनर्जी के विश्वसनीय अधिकारियों की सूची में आते हैं। उनकी राजनीति भूमिका को लेकर राज्यपाल आनंद बोस भी सवाल उठा चुके हैं।
राजीव सिन्हा और सरकार को क्यों संदेह के घेरे में रखा जा रहा है इसे इस तरह समझिए कि मतदान प्रक्रिया शुरू होने के तीन घंटे बाद सिन्हा अपने ऑफिस पहुँचते हैं और इस लापरवाही के लिए टीएमसी प्रवक्ता द्वारा उनका बचाव किया जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि पंचायत चुनाव पूर्व ही कलकत्ता हाईकोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग पर गंभीर टिप्पणी की थी कि संस्था निष्पक्ष और सुरक्षित चुनाव करवाने में लगातार विफल साबित हुई है।
सुरक्षा बलों को संदेह से परे रखने का एक और कारण यह है कि भले ही इनकी तैनाती का व्यय केंद्र सरकार उठाती हो पर उनकी तैनाती का निर्देश और संबंधित प्रोटोकॉल तथा प्रक्रिया राज्य चुनाव आयोग की निगरानी में ही होनी रहती है। पुलिस अधिकारियों के स्पष्ट आदेश के बिना हिंसा भड़कने पर भी केंद्रीय बल अपने आप कार्रवाई नहीं कर सकते थे। इसके साथ ही बंगाल में एसईसी ने यह सुनिश्चित किया है कि निर्णायक एवं हिंसक बूथों पर सुरक्षा बलों की तैनाती न हो।
पंचायत चुनावों में हिंसा के इतिहास को पश्चिम बंगाल की विभिन्न सरकारें और उनकी मशीनरी नकारती रही हैं। चुनाव की पूर्व संध्या पर पश्चिम बंगाल के डीजीपी मनोज मालवीय ने हिंसा की इन घटनाओं को ‘छिटपुट’ करार देते हुए कहा कि राज्य पूरी तरह से नियंत्रण में है और मीडिया ने कुछ छिटपुट घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। दरअसल राज्य प्रशासन का राजनीतिकरण करने और राज्य चुनाव आयोग की संदेहपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज करना ही पश्चिम बंगाल के जनतंत्र का मॉडल है।
पंचायत चुनावों में सुरक्षा बलों की उपस्थिति चुनावी प्रक्रिया को सुचारू बनाने के लिए थी। यह तो तय था कि इनकी उपस्थिति चुनाव परिणाम को प्रभावित नहीं करने वाली है। दरअसल राज्य चुनाव आयोग और सरकार ने भी यह सुनिश्चित किया है कि केंद्रीय सुरक्षा बल पंचायत चुनावों में वो भूमिका निभा ही न पाएँ जिसके लिए उनकी तैनाती का आदेश कलकत्ता हाईकोर्ट ने दिया था।
चुनावी हिंसा का सरलीकरण
राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीति के मूल में एक बात हमेशा से रही है और वह है राज्य में किसी भी तरह की राजनीतिक हिंसा को या तो सीधा झुठला देना या फिर उस हिंसा के लिये राज्य के विपक्षी दलों पर दोष मढ़ देना। पर यह केवल ममता बनर्जी करती हैं, ऐसा नहीं है। पश्चिम बंगाल में पिछले दो महीने से जो पंचायत चुनाव को लेकर जो हिंसा हुई, उस पर अन्य विपक्षी दलों ने भी चुप्पी साध रखी है। लोकतंत्र की रक्षा करने का दावा करने वाले इन विपक्षी दल और उनके नेताओं ने 41 नागरिकों के मारे जाने के बाद भी अभी तक एक वक्तव्य नहीं दिया, फिर वो मुहब्बत की दुकान चलाने वाली कांग्रेस हो, शरद पवार हों या नीतीश कुमार और लालू प्रसाद हों। और तो और, राज्य में लेफ्ट के कार्यकर्ता भी मारे गए लेकिन वामपंथी दलों के केंद्रीय नेतृत्व में किसी ने चूँ तक नहीं किया।
राजनीतिक फायदे के लिए बंगाल की समस्या को राज्य की अंदरूनी समस्या मानकर राष्ट्रीय राजनीति में इसका सरलीकरण कर दिया गया है। ऐसे में प्रश्न यह है कि देश के लोकतांत्रिक मॉडल के विरुद्ध एकजुट होने वाले विपक्षी दल क्या पश्चिम बंगाल के लोकतांत्रिक स्वरूप को देश में लागू होता देखना चाहते हैं?
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केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति पर सवाल उठाने से भी खतरनाक स्थिति जो पंचायत चुनावों में सामने आई है वो है चुनावी हिंसा का सरलीकरण करना। पिछले चुनावों से इसबार कम हिंसा हुई। चुनाव धांधलियों में कमी आई है। यह ऐसे दावे हैं जो पहले से मौन वर्ग को पश्चिम बंगाल की स्थिति पर अधिक समय तक चुप्पी साधने के लिए प्रेरित करते हैं। पर जिन्होंने राज्य की स्तिथि का अवलोकन अपने राजनीतिक पक्षपात के बिना किया है उसके लिए यह समझना कठिन नहीं है कि राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल में गहरी धंसी हुई है। राज्य में कोई चुनाव हिंसक गतिविधियों के बिना न तो शुरू होता है न ही समाप्त। राज्य सरकार इसकी जिम्मेदारी नहीं लेती है न ही कोई कार्रवाई करती है। इसपर यह कह देना कि सबसे अधिक टीएमसी कार्यकर्ताओं की मौत हुई है इस स्थिति में कहीं से भी सुधार नहीं लाता है। अगर टीएमसी कार्यकर्ताओं की मौत सबसे अधिक हो रही है तो राज्य सरकार चुप क्यों हैं? क्यों नहीं अब तक इन मामलों में गिरफ्तारी, जांच और न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत की गई?
बंगाली राष्ट्रवाद की आड़ में ममता बनर्जी राज्य की जनता को अलग-थलग कर चुनावी रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों में हुई हिंसा पर अबतक राज्य सरकार ने क्या कार्रवाई की है?
न्यायपालिका और बंगाल में होती हत्याएं
राज्य के गवर्नर आनंद बोस का कहना है कि राज्य चुनाव आयोग सड़क पर बिखरी लाशों के लिए जिम्मेदार है। दूसरी ओर ममता बनर्जी चुनावी हिंसा की वास्तविकता झुठलाती आईं हैं। वे चाहती हैं कि उनके बयान के बाद और कुछ न कहा जाए और उनके बयान को ही अंतिम सत्य मान लिया जाए।
राज्य की स्थिति देखते हुए राष्ट्रपति शासन की मांग भी उठ चुकी है। टीएमसी द्वारा इसे राजनीति से प्रेरित बता दिया गया है। वोट देना हर मतदाता का अधिकार है। पश्चिम बंगाल में वोट देना मना नहीं है बल्कि विकल्प चुनने पर प्रतिबंध लगाया गया है। वोट मिले पर सिर्फ सत्ता पक्ष को। क्या यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती है?
लोकतांत्रिक प्रक्रिया के इस मखौल पर न्यायपालिका द्वारा संज्ञान न लेना चिंताजनक है। मात्र नामांकन दाखिल करने के लिए हो रही विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या पर अति सक्रिय न्यायिक संस्थाएं ठोस कार्रवाई के प्रश्न पर शिथिल पड़ जाती हैं। वैसे तो पश्चिम बंगाल में हिंसात्मक चुनावों का लंबा इतिहास है पर हाल ही के चुनावों पर नजर डालें तो वर्ष 2018, 2021 और अब 2023 में हिंसक चुनाव प्रक्रिया सामने आई हैं। चुनाव प्रक्रिया महज सरकार बदलने का साधन नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र की मजबूती का सबसे बड़ा सबूत है जिससे सरकार को अंकुश में रखने में मदद मिलती है। जब चुनावी विकल्प ही समाप्त कर दिया जाएगा तो न्यायपालिका किस लोकतंत्र की रक्षा करेंगी?
पश्चिम बंगाल में न्यायिक संस्थाएं राज्य सरकार को अपने आदेश की पालना करवाने में ही संघर्ष कर रही है ऐसे में कोई कार्रवाई की उम्मीद अभी करना जल्दबाजी होगी। राज्य में साम्प्रदायिक और चुनावी हिंसा की निरंतरता देश के लिए खतरे की घंटी है। प्रशासन की लापरवाही को लेकर न्यायपालिका द्वारा अब भी कुछ न किया गया तो पश्चिम बंगाल उस बिंदु तक चला जाएगा जहाँ से लौटना दुष्कर होगा। लोकसभा चुनाव नजदीक हैं और पश्चिम बंगाल का हिंसात्मक चुनावी मॉडल लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए चेतावनी है।
ममता बनर्जी दावा कर चुकी हैं कि 2024 में मोदी सरकार वापस आने पर देश में चुनाव प्रक्रिया खत्म हो जाएगी। वास्तविकता यह है कि वो पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रक्रिया खत्म कर चुकी हैं। पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र का अस्तित्व डगमगा गया है। पंचायत चुनावों में हिंसा और हत्याओं के बाद जीत का जश्न मनाने से देश को यह समझ लेना चाहिए कि जनतंत्र का यह विकृत मॉडल पश्चिम बंगाल की सच्चाई है। बिना इसे स्वीकार किए इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है।
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