चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। भारत में महीने दो महीने में चुनावी मौसम आ ही जाता है। हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं। इन चुनाव परिणामों में ऐतिहासिक आंकड़े देखने को तो मिले ही साथ ही वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव पूर्व की तस्वीर भी बनती दिखाई दी। 2024 आम चुनाव की बातें अभी से आरम्भ हो गई हैं। हालांकि, लोकसभा चुनाव से पहले देश के 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। जाहिर है स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय पार्टियां इसमें फिर से अपनी ताकत लगाएंगी।
तरह-तरह की रणनीति दिखाई देंगी। कुछ सफल होगी और कुछ असफल। कुछ नेता अचानक आगे दिखाई देने लगेंगे। जो आज दिखाई दे रहे, शायद तब दिखाई न दें। विपक्ष अनेकता में एकता की खोज में दिखाई देगा। पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्षी खेमे की विशेषता यह रही कि लगभग सारे विपक्षी नेता मंचों पर हाथ उठाकर फोटो खिंचाने से आगे नहीं बढ़ सके। अलग-अलग समय में अलग-अलग व्यक्ति और राजनीतिक दल नेतृत्व देते हुए दिखाई दिए। अंत में बिखराव दिखाई दिया और नेता तथा राजनीतिक दल कहीं पीछे छूट गए।
अब एक बार फिर से वही प्रयास और वैसे ही बयान दिखाई दे रहे हैं। जाहिर है पिछली बार से कुछ सीखते हुए नई रणनीति के लिए प्रयास किये जायेंगे। चुनाव प्रचार के तरीके बदलने की कोशिश होगी। चुनाव प्रबंधन में भी नए लोग दिखाई देंगे। लोकतान्त्रिक राजनीति की विशेषता यह है कि वो खुद को बदलने का जितना अधिक प्रयास करती है, उसके पहले जैसे रहने की संभावनाएं बढ़ती जाती हैं।
वर्ष 2024 से पहले 2023 में राज्यों की विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनाव निकट हैं और इसके लिए दल कमर कस रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह है कि 2024 का आम चुनाव आते-आते क्या विधानसभाओं के चुनाव राजनीतिक दलों को थका नहीं देंगे? हालांकि औपचारिक समय चुनाव प्रचार के लिए कुछ दिनों का ही होता है पर प्रबंधन हर क्षण प्रयास मांगता है। इन सबके बीच सबसे बड़ी चुनौती रहती है संवाद और उसके तरीके की। ऐसे में राजनीतिक दलों के सामने न थकने की चुनौती बहुत बड़ी है।
सत्ता पक्ष को उनके किए गए कार्यों और भविष्य के लिए किये गए वादों पर तौला जाता है तो विपक्ष को एक वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति के आधार पर। वादे, घोषणाएं या विचार जनता तक पहुँचाने के तरीके भी तेजी से बदले हैं। बदलती हुई राजनीति में किसी बात को प्रस्तुत करने को लेकर कोई नया विकल्प अचानक सामने आ जाता है तो सबसे बड़ी चुनौती यह निर्णय लेने की होती है कि इस नए तरीके को अपनाया जाए या नहीं। यही कारण है कि पिछले करीब दस वर्षों में संवाद के मध्यक के तौर पर सोशल मीडिया की स्वीकार्यता को लेकर राजनीतिक दलों काफी हद तक संशय बना रहा। भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में सोशल मीडिया को सबसे पहले स्वीकार किया और उसका परिणाम बार-बार दिखाई देता है।
सोशल मीडिया आज सर्वे का भी माध्यम है। अपनी बात एक बड़े ऑडियंस तक पहुंचाने का सरलतम साधन। आज के परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया एक माध्यम के तौर पर हर राजनीतिक दाल के लिए बहुत मायने रखता है। चूँकि इन माध्यमों पर युवाओं की उपस्थिति बढ़ी है इसलिए रणनीति बनाने वाले सोशल मीडिया को बहुत तवज्जो देते हैं। इसके महत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दलों के कार्यलयों में चुनावी कक्ष में मार्केटिंग से लेकर कंसलटेंट्स की भूमिका में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। यह बात लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भी सोशल मीडिया के प्रयोग के स्तर को दर्शाती है।
चुनावी प्रचार आज राजनीति नहीं बल्कि युद्ध है। उदाहरण के लिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी ने श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स (SRCC) के विद्यार्थियों को संबोधित किया। यह बदलती राजनीति में संवाद का बेहतरीन उदाहरण था। यही कारण है कि विपक्ष के भी तमाम नेता उन्हीं की तरह इस तरह के आयोजनों में जाने लगे।
पिछले दस वर्षों में लगातार बदल रही राजनीति जिस स्तर के प्रयास मांगती है वह अभूतपूर्व है। वैश्विक भू-राजनीति, अर्थव्यवस्था, विज्ञान, शिक्षा और इनोवेशन जैसे विषय युवाओं का मुख्य मुद्दा है। देश में व्यापार करने की स्थितियां कैसी है युवाओं को इससे मतलब है। जो पार्टी इन मुद्दों को मुखरता से रखने में कामयाब रहती हैं चुनाव प्रचार में उसकी सफलता के आसार बढ़ जाते हैं। आज की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में 24 घंटें मुस्तैद रहना आवश्यक हो जाता है।
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राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ सहित 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव और उसके बाद लोकसभा चुनाव पार्टियों के लिए जाहिर तौर पर थकाने वाला होगा। जो रणनीति विधानसभा में काम आएंगी आवश्यक नहीं कि उसी की सहायता लेकर लोकसभा भी पार लग जाए। इसके ऊपर प्रबंधन की नई चुनौतियों में स्थानीय दलों का महत्व भी बढ़ चूका है। एक तरह से उनके लिए उपाय भी आज राजनीति के रणनीतिकारों का सिरदर्द है। ऐसे में किसी भी नेता या दल के लिए सफलता का आधार न थकने में है। जो थकान से खुद को बचाकर रखेगा, उसकी सफलता की संभावना बढ़ जायेगी।