वॉल स्ट्रीट जर्नल की सबरीना सिद्दीक़ी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बायडेेन की संयुक्त प्रेस वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी से पूछा कि उनकी सरकार मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए अलग से क्या प्रयास करेगी?
यह सवाल पूछने से पहले सबरीना सिद्दीक़ी ने दो बातें कही। पहली बात यह कि; तमाम ह्यूमन राइट्स ग्रुप ऐसा मानते हैं कि भारत में रिलीजियस माइनॉरिटीज़ अर्थात मुसलमानों के धार्मिक अधिकार सुरक्षित नहीं हैं और दूसरी बात यह कि; प्रधानमंत्री मोदी इस समय जहाँ खड़े हैं, वहाँ खड़े होकर दुनिया के तमाम और राष्ट्राध्यक्षों ने मानवाधिकार की रक्षा के वादे किए हैं।
सबरीना सिद्दीक़ी का सवाल दो बातों पर आधारित था; पहला यह कि भारत में मुसलमानों के अधिकार सुरक्षित नहीं हैं, ऐसा ह्यूमन राइट्स ग्रुप मानते हैं। दूसरा यह कि; चूँकि दुनिया भर के तमाम और राष्ट्राध्यक्षों ने व्हाइट हाउस में खड़े होकर अपने-अपने देशों में रिलीजियस या एथनिक माइनॉरिटीज़ के अधिकार सुरक्षित करने का वादा किया है इसलिए प्रधानमंत्री मोदी भी ऐसा कोई वादा कर डालें।
सबरीना सिद्दीक़ी के इस सवाल का प्रधानमंत्री मोदी ने जो जवाब दिया; वह ये था कि लोकतांत्रिक मूल्य भारत के डीएनए में है। यह भारत और भारतीयों ने केवल किसी संविधान या किताब से नहीं सीखा है। इसलिए यह कहना कि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों पर केवल गर्व करता है, सही नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जवाब की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि; प्रधानमंत्री मोदी ने कोई ठोस जवाब नहीं दिया बल्कि गोल-गोल घुमाते रहे और जो भी कहा वह वही पुरानी बातें हैं जिन्हें बोलकर हम भारतीय परंपराओं पर गर्व करते रहे हैं।
भारतवर्ष, जो हजारों साल पुरानी संस्कृति, वसुधैव कुटुंबकम् के सिद्धांत और लगभग पचहत्तर वर्ष पुराने संविधान के आधार पर चलता है, उसमें माइनॉरिटीज़ के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता है, यह सोच उसी व्यक्ति या समाज की हो सकती है जिनका मानवाधिकार और माइनॉरिटीज़ राइट्स का खुद का रिकॉर्ड बहुत ख़राब होगा।
किसी व्यक्ति या समाज के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक्स्ट्रा करना पूरी तरह से पाश्चात्य सोच है क्योंकि इन मामलों में पश्चिमी देशों का, फिर वो चाहे यूरोप के देश हों या अमेरिका, क्या इतिहास रहा है, वह पूरी दुनिया को पता है। यूरोपीय देशों ने एशिया और अफ़्रीका में सदियों तक जो भी किया, उसकी भरपाई वे अपराध बोध और रिलीजियस माइनॉरिटीज़ के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ ‘अलग से’ करके करते रहे हैं। उनका यही अपराध बोध उन्हें अपने देशों में अल्पसंख्यकों को घुसने की दावत देता है। उनका यही अपराध बोध उनके यहाँ महिलाओं को प्लेकार्ड लेकर तथाकथित शरणार्थियों का स्वागत करवाता है, भले ही वे उसके बाद खुद असुरक्षित हो जाएं। उनके इस अपराध बोध ने अपने देशों के साथ पिछले लगभग डेढ़ दशकों में क्या किया है, वह सबके सामने है।
यूरोपीय देशों की इसी अपराध बोध को अमेरिका अपने यहाँ आगे बढ़ा रहा है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि लोग बड़े चाव से अब्राहम लिंकन और जॉन कैनेडी की तुलना करते हैं और उनके बीच समानताएँ ढूँढ़ते हैं, बिना यह विचार किए कि यदि दोनों के बीच सौ वर्ष का अंतर था तो फिर अमेरिका में रंगभेद को लेकर क्या काम हुए? कौन सी प्रगति हुई? 1865 में यदि लिंकन उसी बात के लिए लड़ रहे थे जिसके लिए सौ वर्ष बाद कैनेडी और मार्टिन लूथर किंग लड़ रहे थे तो फिर दुनिया भर की पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले इन बड़े-बड़े नेताओं ने क्या अर्जित किया?
समय पर रंगभेद न मिटा पाने का अपराध बोध आज अमरीकी शासकों से क्या-क्या करवा रहा है, वह सबके सामने है। यूरोपीय और अमेरिकी जिस अपराध बोध से ग्रस्त हैं, वे चाहते हैं कि पूरी दुनिया भी उसी से ग्रस्त रहे। यही कारण है कि इनका विश्वास इस बात में पुख़्ता है कि रिलीजियस और एथनिक माइनॉरिटीज़ के लिए जब तक कुछ अलग से न किया जाए तब तक उनके अधिकारों की रक्षा न होगी। सबरीना सिद्दीक़ी का प्रधानमंत्री मोदी से किए गए सवाल का आधार पाश्चात्य देशों का यही अपराध बोध और उससे उपजा ‘कुछ अलग से करने का सिद्धांत’ है।
सबरीना सिद्दीक़ी ने व्हाइट हाउस में उस स्थान का सही हवाला देकर बताया कि दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने वहाँ खड़े होकर मानवाधिकार और रिलीजियस माइनॉरिटीज़ के अधिकारों की रक्षा का वादा किया है। यह समझना असंभव नहीं है कि उस स्थान पर कोई नवाज़ शरीफ़, इमरान ख़ान, गद्दाफी या शी जिनपिंग खड़ा होगा तो उसे वादा करना पड़ेगा क्योंकि उनके देशों में रिलीजियस माइनॉरिटीज़ सुरक्षित नहीं हैं। पर क्या ऐसा ही वादा भारत के प्रधानमंत्री से भी करवाया जा सकता है? जवाब है नहीं, क्योंकि भारत में रिलीजियस माइनॉरिटीज़ असुरक्षित नहीं हैं।
अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग के बीच के जिन सौ वर्षों की बात मैंने ऊपर की है, उसी की तुलना भारत से कर लें। संविधान सभा से लेकर सामाजिक स्तर तक यदि इस बात पर सहमति थी कि भारत में कुछ वर्ग ऐसे हैं जिनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान हों तो वह किया गया। उसका असर भी आज दिखाई देता है। अब्राहम लिंकन को सौ वर्ष बाद भले ही जॉन कैनेडी के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ा हो (समानताएँ खोजने वाला अमेरिकी उद्योग यही साबित करना चाहता है) लेकिन बाबा साहेब आम्बेडकर द्वितीय को जन्म नहीं लेना पड़ा। बाबा साहेब ने अपने सामने ही समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा दी और उनके बाद की भारतीय व्यवस्था ने उसे न केवल सुदृढ़ किया बल्कि उसे बड़ा भी करती रही है।
सबरीना सिद्दीक़ी, वॉल स्ट्रीट जर्नल, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, ह्यूमन राइट्स वॉच बार-बार सामने आएँगे ताकि वे हमारे अंदर वही अपराध बोध भर सकें, जिससे ग्रस्त होकर आज लगभग पूरा यूरोप और अमेरिका अपनी सामाजिक संरचना को तार-तार होते हुए देख रहा है। हमें ऐसे किसी अपराध बोध में बंधने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि हमनें हजारों वर्षों में ऐसा कोई अपराध किया ही नहीं है। तो प्रधानमंत्री कोई गोल-गोल नहीं घुमा रहे थे। वे सच बोल रहे थे। अपराध बोध से ग्रस्त अमरीकियों की दृष्टि नहीं है कि वे उस सच को देखें और स्वीकार करें।
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