अभी कुछ दिनों पहले ही आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस द्वारा बनाई गई ईसाई धर्मगुरु पोप की एक तस्वीर ने इंटरनेट पर हंगामा मचा दिया। दुनिया भर की मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से छापा और आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस का उपयोग करके आभासी दुनिया में किसी वास्तविक व्यक्ति की विवादस्पद और संवेदनशील तस्वीर के कारण उत्पन्न हो सकने वाली सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की और इसके हो सकने वाले दुरूपयोग और दुष्प्रभाव की तरफ पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। अब हम जिस तरह की तकनीकी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं, उसमे इस तरह की फेक न्यूज़ बना कर और उसे इंटरनेट पर शेयर करके किसी भी देश के सामाजिक ताने-बाने को तार-तार किया जा सकता है और इंटरनेट की उपलब्धता होने पर यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसा झूठा और भ्रामक कंटेंट देश की सीमाओं के अंदर ही बनाया और शेयर किया जाये। अब किसी देश या समाज को कमजोर करने के लिए सेनाएं भेजने की जरूरत नहीं है बल्कि यह काम 100-200 लोगों की ऑनलाइन सेना के माध्यम से ही किया जा सकता है। मिश्र और लीबिया की क्रांति केवल इंटरनेट के माध्यम से ही हुई और उस क्रांति के बाद आज तक ये देश संभल नहीं पाए हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में भी यह तथ्य किसी के छुपा नहीं है कि सोशल मीडिया साइट्स पर बैठे विदेशी तत्वों ने नागरिकता संशोधन विधेयक और किसान आंदोलन के समय इंटरनेट पर भ्रामक तथ्य फैला कर भारत में सामाजिक और राजनीतिक अशांति पैदा करने की भरपूर कोशिश की और कुछ हद तक सफल भी रहे। इंटरनेट पर फैले ऐसे झूठे और भ्रामक तथ्यों का उपयोग राजनेता भी करते आये हैं और इसके भी प्रमाण उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का ट्विटर अकाउंट गलत और भ्रामक तथ्य फ़ैलाने के लिए ही रद्द कर दिया गया था। भारत में भी विपक्ष के सर्वोच्च नेता राहुल गाँधी के सरकारी निर्णयों के बारे में कई दावे भ्रामक और तथ्यहीन रहे हैं और विवाद का विषय बने हैं।
फेक न्यूज़ एक वैश्विक महामारी है
फेक न्यूज़ की बढ़ती समस्या पर 2016 के अमेरिकी चुनाव के समय से ही दुनिया भर के विशेषज्ञों का विशेष ध्यान रहा है और भारत में भी इंटरनेट क्रांति और सस्ते स्मार्ट फ़ोन की उपलब्धता के बाद फेक न्यूज़ को सत्यापित करना एक कुटीर उद्योग की तरह फैला है। किसी संस्थागत फैक्ट चेकर जिसकी विश्वसनीयता प्रामाणिक होने के आभाव में कई ऑनलाइन तथ्य चेक करने वाले संस्थान पिछले कुछ वर्षों में कुकुरमुत्ते की तरह उगे हैं। हालाँकि इन ऑनलाइन तथ्य चेक करने वालों की उत्तरदायिता और विश्वसनीयता खुद प्रश्नों के दायरे में रही है और इनका उद्देश्य निरपेक्ष होकर तथ्यों की पड़ताल करना न होकर किसी राजनीतिक दल या विचारधारा के अनुरूप कार्य करना ही दिखाई देता है। इस परिप्रेक्ष्य में, मुहम्मद जुबैर नामक व्यक्ति का सन्दर्भ देना आवश्यक है जिसको तथ्यों की जांच की आड़ में एक धर्म विशेष के लोगों के विरुद्ध जनभावना भड़काने के आरोप में अदालत का सामना करना पड़ा है और फिलहाल यह व्यक्ति जमानत पर रिहा है। इसी प्रकार बिहार के मनीष कश्यप नामक एक यू ट्यूब ब्लॉगर पर भी हाल फ़िलहाल में भ्रामक तथ्य प्रचारित करने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत मुक़दमा दर्ज़ किया गया है और फिलहाल यह यू-ट्यूबर जमानत के लिए न्यायालय के सम्मुख है।
Fact Check: खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह का सम्बन्ध भाजपा से है?
बड़ी संख्या में फैक्ट चेक करने वालों की उपस्थिति अपने आप में फैक्ट चेक को उतना ही भ्रामक बना देती है जितनी फेक न्यूज़ खुद होती है और भारत में यही हो रहा है। अगर एक ही खबर की सच्चाई जानने के लिए दो फैक्ट चेक करने वाली संस्थाएं अलग-अलग नतीजे पर पहुचें तो जाहिर है फैक्ट चेक करने वालों की प्रमाणिकता खुद ही प्रश्नों के दायरे में होगी। उचित तो यह होता कि खबरों को रेगुलेट करने वाले संस्थान जैसे कि एडिटर्स गिल्ड खुद ही फैक्ट चेक करने के लिए सामने आते और एक स्वतंत्र फैक्ट चेक करने वाली इकाई का निर्माण करते लेकिन ऐसे वातावरण में जहाँ पत्रकार खुले आम राजनीतिक दलों के लिए काम करते हुए दिखाई दे रहे हों वहां एडिटर्स गिल्ड या ऐसी किसी इकाई द्वारा बनाई गयी संस्था की प्रमाणिकता पर कौन विश्वास करेगा? वैचारिक खेमों में विभाजित पत्रकार बिरादरी सोशल मीडिया के ज़माने में विश्वास के अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है।
इन तथ्यों की जांच करने वालों की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह होने और मीडिया रेगुलेटर्स पर जनविश्वास में आयी कमी को देखते हुए सरकार का यह दायित्व हो जाता है कि वह खुद ही ऐसी किसी इकाई का निर्माण करे जो भ्रामक तथ्यों की पड़ताल करती हो।
आईटी रूल्स में नया संशोधन क्या है?
फेक न्यूज़ को प्रभावी रूप से रोकने के सन्दर्भ में भारत सरकार आईटी रूल्स-2021 में एक संशोधन के माध्यम से प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के अंतर्गत एक फैक्ट चेक इकाई का निर्माण करने का प्रस्ताव लायी थी जिसका काम सरकार और सरकार के विभागों से सम्बंधित प्रकशित खबरों की सत्यता की जांच करना होता। हालाँकि इस गुरुवार को आईटी रूल में इस संशोधन के प्रस्ताव को नोटिफाई करते समय इलेक्ट्रॉनिक्स और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने संशोधन के प्रस्ताव से प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो का रिफरेन्स हटा लिया है जिसका तात्पर्य यह है कि अब फैक्ट चेक करने वाली नई इकाई एक स्वतंत्र संस्था की भांति कार्य करेगी और क्योंकि यह संस्था स्वतंत्र होगी इसलिए भविष्य में या तत्काल सरकार इसको एक स्वायत्त इकाई भी बना सकती है। इस नए रूल के नोटिफिकेशन के बाद ऑनलाइन मध्यस्थ जैसे फेसबुक, ट्विटर, यू ट्यूब आदि और इंटरनेट सेवा प्रदाता जैसे एयरटेल और जिओ आदि इस सरकारी फैक्ट चेक करने वाली संस्था द्वारा असत्य या भ्रामक पाए गए किसी कथन को अपने प्लेटफार्म से हटाने के लिए जिम्मेदार होंगे और ऐसा न करने पर उनके विरुद्ध विधिक कार्यवाही का रास्ता खुला होगा।
नए नियम का विरोध कितना जायज़ है?
जैसा कि उम्मीद थी, विपक्ष और विपक्ष समर्थित मीडिया संगठनों ने इस नए नियम को तुरंत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताना प्रारम्भ कर दिया है तो इस बात की आवश्यकता है कि इस नए प्रस्तावित संस्थान की उपयोगिता को उचित सन्दर्भों में देखा जाये।
जहाँ तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले की बात है तो आईटी एक्ट-2000 की कंडिका 69(अ) के अंतर्गत भारत सरकार को यह अधिकार पहले से ही प्राप्त है कि वह किसी भी ऑनलाइन कंटेंट को हटाने का आदेश दे सकती है। हालाँकि यह नया नियम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को मिली विधिक सुरक्षा इस अर्थ में ख़त्म कर देता है अगर सोशल मीडिया प्लेटफार्म सरकार द्वारा बनाई गयी इस नयी इकाई के द्वारा चिन्हित किये गए फेक न्यूज़ कंटेंट को हटाने से इंकार कर देता है तो सरकार उस प्लेटफार्म या सेवा प्रदाता को न्यायालय ले जाने के लिए स्वतंत्र होगी। इस प्रकार यह नया नियम सोशल मीडिया प्लेटफार्म को फेक न्यूज़ फ़ैलाने के लिए जिम्मेदार बना देता है और सरकार की नयी इकाई द्वारा निर्देशित फेक न्यूज़ कंटेंट को किसी इंटरनेट प्लेटफार्म द्वारा हटाए जाने से इंकार करने पर सरकार उस प्लेटफार्म को न्यायालय में ले जा सकती है। संक्षेप में, यह नियम ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म से किसी कंटेंट को सत्यापित करने का अधिकार आंशिक रूप से ले लेता है और सरकारी इकाई का आदेश न मानने कि दशा में प्लेटफार्म को न्यायलय ले जाने का रास्ता खोल देता है। जिन सरकारी संस्थाओं और सरकार से सम्बंधित ख़बरों पर इस नयी सरकारी इकाई को आपत्ति नहीं है उनकी सत्यता के बारे में निर्णय करने के लिए इंटरनेट प्लेटफार्म स्वतंत्र होगा। साथ ही गैर सरकारी खबरों के मामले में भी प्लेटफार्म को सही गलत का निर्णय लेने की स्वतंत्रता होगी।
Fake News फैलाने वाले YouTube चैनल, जिनका Fact Check करने AltNews नहीं आता
निश्चित रूप से नए नियम ऑनलाइन प्लेटफार्म को मिली स्वतंत्रता को कम करते हैं लेकिन इसके भारतीय राज्य की एकता और अखंडता पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों को एक उदाहरण के माध्यम से समझिये। इस इकाई के अस्तित्व में आने के बाद किसी विदेशी एजेंसी द्वारा भारत की चुनी हुई सरकार या भारत की अन्य लोकतान्त्रिक संस्थाओं के बारे में यदि कोई भ्रामक लेख छापा जाता है जिसमें तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है तो सभी इंटरनेट प्रदाता कंपनियां या मध्यस्थ इंटरनेट प्लेटफार्म ऐसी खबर या लेख को हटाने के लिए बाध्य होंगे और ऐसा न करने पर उनको भारतीय न्याय व्यवस्था का सामना करना पड़ेगा। पाठकों को इस बात की जानकारी होगी कि किस प्रकार पाकिस्तान जैसे देशों की एजेंसियां लगातार इंटरनेट का उपयोग करके भारतीय राज्य की सम्प्रभुता को चुनौती देने का प्रयास करती रहीं है। जिन पाठकों को जानकारी न हो उनको बता दें कि हाल फ़िलहाल में पंजाब में हुई उथल-पुथल का जिम्मेदार अमृतपाल सिंह नामक व्यक्ति इंटरनेट और व्हाटसएप्प जैसे उपकरणों का उपयोग करके ही पंजाब में अशांति फैला रहा था। इसके पहले भी कश्मीर में पत्थरबाजों के बीच सूचना का आदान-प्रदान करने के लिए या आतंकवादियों को सुरक्षाबलों के आने की सूचना देने के लिए देश विरोधी तत्वों द्वारा इंटरनेट माध्यमों का ही उपयोग किया जाता रहा है। इस प्रकार इंटरनेट माध्यम के उपयोग से आतंकवादी संगठन न केवल देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए खतरा बढ़ा रहे थे बल्कि देश की सुरक्षा में लगे जवानों की जान भी संकट में डालने में सफल रहे थे। इस परिप्रेक्ष्य में पुलवामा में जवानों के काफिले पर हुआ सटीक हमला बिना इंटरनेट माध्यमों के प्रयोग के इतना घातक न हुआ होता। देश के अंदर और बाहर बैठे ऐसे आतंकियों के मददगारों ने किस प्रकार कश्मीर के आतंकवाद को भारतीय राज्य द्वारा कश्मीरियों पर किये जा रहे अत्याचार के रूप में प्रचारित किया, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
फेक न्यूज़ को रोकने के लिए अन्य देशों के कानून क्या कहते हैं?
ऐसा भी नहीं है कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जो फेक न्यूज़ को रोकने के लिए इस प्रकार के संस्थागत उपायों की ओर बढ़ा है। बहुत सारे लोकतान्त्रिक देशों की संसद ने ऐसे सोशल मीडिया कानून लागू किये हैं और उन देशों में भी एक वर्ग द्वारा इन कानूनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के तौर पर ही प्रचारित किया गया है। ऐसे कुछ देशों के कानूनों के प्राविधानों पर एक नज़र डालते हैं-
सिंगापुर की संसद ने ऑनलाइन फेक न्यूज़ की समस्या से जनता की सुरक्षा के लिए 2019 में “प्रोटेक्शन फ्रॉम ऑनलाइन फाल्सहुड एंड मैनीपुलेशन एक्ट” पारित किया जिसके अंतर्गत फेक न्यूज़ या फाल्सहुड को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ऐसे तथ्यात्मक बयान जो झूठे हो या दिग्भ्रमित करने वाले हों और जिन्हे इंटरनेट या अन्य कंप्यूटर सेवाओं के माध्यम से सम्प्रेषित किया गया हो या प्रसारित किया गया हो फेक न्यूज़ या फाल्सहुड की श्रेणी में आएंगे। इस कानून के अंतर्गत ऐसे फेक न्यूज़, जो इस परिभाषा के दायरे में आते हों और जिनसे जनता या जन कल्याण ऋणांत्मक रूप से प्रभावित होता हो, को ठीक करने या हटाने का आदेश देने का अधिकार सरकार को उन व्यक्तियों या संस्थाओं को होगा जिन्होंने झूठे स्टेटमेंट दिए हैं। हालाँकि, इस कानून के अंतर्गत सरकार के आदेश के विरुद्ध अपील करने का अधिकार व्यक्तियों और संस्थाओं को होगा यदि उनको लगता है कि उनको अनुचित तरीके से टारगेट किया गया है। ऐसे मामलों में अपील इस कानून से संबंधित मंत्री के सम्मुख की जा सकती है जो मामले का पुनर्निरीक्षण करने के लिए एक कमिटी बनाएगा। इस कानून में सरकार द्वारा निर्देशित आदेश का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं पर 1 मिलियन सिंगापुर डॉलर का जुर्माना या 10 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। सिंगापुर का यह कानून सिंगापुर से बाहर की संस्थाओं या व्यक्तियों पर भी लागू होता है और इसके दायरे में सभी ऑनलाइन प्लेटफार्म विशेष तौर पर सन्देश प्रसारित करने वाले एप्प भी आते हैं।
इसी प्रकार का कानून जर्मनी में भी 2017 में लागू किया गया जिसको “नेटवर्क एनफोर्समेंट एक्ट” कहते हैं। इस कानून के अनुसार ऐसा कोई भी कंटेंट जिसमें हेट न्यूज, चरित्र हनन, या हिंसा के लिए उकसावा शामिल है, अवैधानिक कहा जायेगा। इस कानून के अनुसार ऐसा कोई भी प्लेटफार्म जिसके २ मिलियन से ज्यादा यूजर हैं, को अवैधानिक (Illegal) कंटेंट को एनफोर्समेंट करने वाली इकाई द्वारा नोटिफाई करने के 24 घंटों के अंदर हटाना पड़ेगा। इस कानून के अंतर्गत सभी ऑनलाइन प्लेटफार्म को प्रत्येक ६ महीने के अंतराल पर अवैधानिक कंटेंट के विरुद्ध अपने प्रयत्नों का लेखा-जोखा प्रदर्शित करना पड़ेगा और इस सन्दर्भ में सालाना रिपोर्ट पब्लिश करनी पड़ेगी। इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले पर 50 मिलियन यूरो तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। इस कानून का अनुपालन करवाने के लिए इस कानून के तहत एक रेगुलेटरी संस्था का निर्माण किया गया है जिसे “फ़ेडरल ऑफिस ऑफ़ जस्टिस” के नाम से जाना जायेगा।
ब्राज़ील ने भी फेक न्यूज़ को नियंत्रित करने के लिए 2020 में एक कानूनी ड्राफ्ट देश की संसद में प्रस्तुत किया जिसके अनुसार फेक न्यूज़ ऐसी गलत या भ्रमित करने वाली सूचना है जिसे धोखे से बनाया गया है या तोडा मरोड़ा गया है या प्रचारित किया गया है। यह बिल सोशल मीडिया प्लेटफार्म से ये अपेक्षा रखता है कि वो ऐसे उपाय अपनाएंगे जो अपने प्लेटफार्म पर हेट न्यूज़ की पहचान कर सकेंगे और उस फेक न्यूज़ को हटाएंगे। यह कानून सोशल मीडिया प्लेटफार्म से यह भी अपेक्षा रखता है कि वह प्लेटफार्म फेक न्यूज़ की शिकायतकर्ता को शिकायत करने के लिए एक पारदर्शी और सरल व्यवस्था प्रदत्त कराएगा। यह ड्राफ्ट कानून बड़ी संख्या में फॉलोवर्स वाले सोशल प्लेटफार्म या किसी ऐसे प्लेटफार्म से जो राजनैतिक या चुनावी चर्चा वाले कंटेंट प्रसारित करता हो से यह भी अपेक्षा रखता है कि वह अपने प्लेटफार्म का उपयोग करने वालों की पहचान करेगा। इस ड्राफ्ट कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले पर उस प्लेटफार्म के रेवेन्यू का 10 प्रतिशत या 9 मिलियन यूएस डॉलर तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत ऐसा कोई व्यक्ति या संस्था जो चुनाव को प्रभावित करने के उद्देश्य से फेक न्यूज़ फैलता पाया जायेगा उस पर ब्राज़ील के आपराधिक कानून के तहत भी कार्यवाही होगी।
फेक न्यूज़, नागरिक अधिकार और लोकतंत्र
हमें यह समझ लेना चाहिए कि नागरिकों के अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के सम्मुख फेक न्यूज़ का खतरा सबसे ज्यादा है क्योकि मानवाधिकार संगठन चीन जैसे तानाशाही राज्य में शोर नहीं कर सकते लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उनको नागरिकों की आवाज़ उठाने का कानूनी अधिकार प्राप्त होता है। भारत जैसे लोकतान्त्रिक राज्य में अजमल कसाब जैसे हत्यारे को भी न्याय पाने का अधिकार प्राप्त है लेकिन कसाब द्वारा मारे गए लोगों को भी जीवन की सुरक्षा का उतना ही अधिकार था जिसको सुनिश्चित करने में भारतीय राज्य पूर्णतः असफल रहा। नागरिकों के मौलिक अधिकार तभी तक सुनिश्चित हैं जब तक देश में एक संवैधानिक लोकतंत्र बना हुआ है। उभरते नए तकनीकी दौर में जहाँ आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीक उपस्थित है वहां फेक न्यूज़ जैसे प्रकोप से लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहे इसलिए ऐसे कानून की आवश्यकता और उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता।