अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं का भारत पर बहुत दबाव था की सरकारी खर्चे में कटौती की जाय। सरकार का आकार छोटा किया जाय। तो इस वास्ते घोषणा कर दी गई की सरकार पटवारियों के पद समाप्त कर रही है। परंतु लोगों ने आशंका व्यक्त की यदि पटवारी का पद समाप्त हो गया तो अनेक नियम-कानून बदलने पड़ेंगे। अनेक कार्यों में कठिनाई भी आयेगी।
तो तय किया गया कि प्रत्येक जिले में एक पटवारी रखा जाय जो जिले भर के पटवारी के काम देखेगा। और इस निर्णय को लागू कर दिया गया।
इस बार प्रतियोगी परीक्षाओं में एक नया अजूबा हुआ। उस साल संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षा में कोई प्रतियोगी सम्मलित नहीं हुआ। सब जी-जान से पटवारी परीक्षा की तैयारी में लग गये। परंतु अभी कुछ और अजूबे होने बाकी थे।
ख़बर आई कि इस बार की पटवारी परीक्षा के लिये कुछ बड़ी कम्पनियों के सीईओ, विश्विद्यालयों के प्रोफेसर- लेक्चरर, बड़े-बड़े वैज्ञानिक, कुछ बड़े अख़बारों के सम्पादक-पत्रकार भी नौकरी से छुट्टी लेकर तैयारी में जुटे हैं। और इससे भी बड़ा अजूबा ये हुआ कि सभी ने एक सवाल का बिल्कुल एक समान उत्तर दिया, जब इनसे पूछा गया कि इतने शिक्षित होकर भी आप पटवारी की परीक्षा में क्यों बैठना चाहते हैं। सभी ने आँखे फाड़ कर और जीभ निकाल कर इतना ही कहा- अरे! पूरे जिले का एक पटवारी है भाई! फिर वे चुप होकर अध्ययन में जुट गये। अब धीरे-धीरे माहौल बदलने लगा।
बच्चे कहने लगे- मैं बड़ा होकर पटवारी बनूंगा। बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते- बेटा बड़े होकर पटवारी बनना। मातायें अपने बच्चों की बलैयां लेतीं और कहतीं- देखना मेरा बेटा बड़ा होकर पटवारी बनेगा। स्कूल में मास्साब बच्चों को डांटते हुए कहते- ऐसे ही बनोगे तुम पटवारी? चाचियां, देवरों का मज़ाक बनातीं कि भैया तुम खूब बने पटवारी! दुश्मन लड़ाई में कहते- तू क्या कहीं का पटवारी है जो डरें तुझसे! लोगों ने अब अपने बच्चों के नाम कलेक्टर सिंह की जगह पटवारी सिंह रखने शुरू कर दिये। इधर सरकार के लिये नये सिरदर्द शुरू हो गये।
जिले में एक पटवारी होने से जिला मुख्यालयों पर भारी भीड़ होने लगी। रोज़ नये-नये कांड सामने आते। हालाँकि कांड नये नहीं थे, गांवों के लिये ये रोज़ की बातें थी। परन्तु चौथा खम्बा एक्सप्रेस की पटरियां गांवों तक नहीं पहुँचती थी, इसलिये राजधानी वालों के लिये ये बातें नवीन थीं। जिला मुख्यालयों पर जम कर हंगामे हो रहे थे।
नानुआ का खेत रात ही रात में सड़क से पीछे चला गया। सौदान सिंह की ज़मीन अचानक चरनोई हो गई और हरिया जिस चरनोई भूमि पर रोज़ भैंस चराता था वहाँ भक्ति सिंह के पट्ठे बन्दूक लिये खड़े थे। भूरा पण्डित बिना कुछ बोये ओला-पाला का मुआवज़ा ले उड़े। और लाला जी की ज़मीन पर टेड़ी जरीब डलवा कर घीसू घुस लिया। बदले में लाला जी को अपनी फटी खोपड़िया, एससी-एसटी एक्ट, और थाने के डीलक्स रूम में तीन दिन दो रात मुफ़्त मिलीं। प्रधान जी का बीपीएल कार्ड बन गया और मुल्लू अपनी बीबी और आठ बच्चों के साथ रातों-रात गरीबी रेखा से ऊपर उठ गया।
इधर पटवारी के पद समाप्त हो जाने से तहसीलें शमशान नज़र आने लगीं। एक कंक्रीट का धूल उड़ाता वीरान सहरा जहाँ बिना पटवारी के तहसीलदार साहब- मैं और मेरी तन्हाई- गाते रहते थे। इनसे परे गाँव वालों की समस्यायें कुछ दूसरी तरह की थीं।
गांव वालों ने तहसील में धरने देने शुरू कर दिये। उनका कहना था कि अब हमें वैकल्पिक रोज़गार दिया जाय। जब तहसील में पटवारी साहब ही न होंगे तो हम दिनभर किसके पीछे घूमेंगे। किसके साथ लुकाछिपी- आइसपाइस खेलेंगे। किसको खोज कर उसकी पीठ पर धौल जमाकर कहेंगे- धप्पा! ग्रामीणों का कहना था कि यदि सरकार पर वित्तीय भार अधिक है तो हमसे एंटरटेनमेंट टैक्स ले लिया जाए, पर पटवारी का पद फिर से बहाल होना चाहिये। वहीं तहसीलदार साहब का विरहगान जारी था-
तुम इस बात पर कहते कि भग्गो कहारिन ने महुए की उतारी है; छापा मार दो!
तुम उस बात पर कहते की ननुआ ने सरकारी ज़मीन पर झोपड़ी तान दी है; तोड़ दो!
मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं।
हाल केवल तहसील का ख़राब हो ऐसा भी नहीं था। एसडीएम साहब ने भी समझाने आये उद्धव रूपी एडीएम साहब से कह दिया–
ऊधौ, मन न भये दस-बीस,
एक हुतो सो गयौ पटवारी संग,
को अवराधै जिलाधीस ।
और बड़े साहब का हाल तो सबसे बुरा था। बड़े साहब के बड़े भारी बच्चे, भारी मन से रिक्शे में बैठ कर स्कूल गये। मैडम ख़ुद सब्ज़ी खरीदने गईं, और टॉमी ख़ुद ही ‘टहल’ आया। कुछ ही समय में बंगले के पेड़-पौधे, घास, मेमसाहब, और बच्चे सूखने लगे। साहब को दिव्य ज्ञान मिला कि मेरे घरवाले मुझसे अधिक तो मेरे पटवारी से प्यार करते हैं। सर्किट हॉउस में नेता जी ने खुद हैंड पम्प से नहाने का पानी भरा और रात को ‘प्यासे’ और ‘भूखे’ सोये। इन सब के बीच जिला मुख्यालयों पर केवल एक पटवारी होने से कानून-व्यवस्था की स्थिति निर्मित होने लगी। प्रदेशों के हालात खराब हो रहे थे।
विधानसभा में विधायकों ने हंगामा करते हुए कहा कि यदि सरकार को ऐसा निर्णय लेना था तो पहले हमें विश्वास में लेना चाहिये था। सभी विधायकों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर मांग रखी कि यदि पूरे जिले पर केवल एक ही पटवारी रखा जाना है तो उसका चार्ज विधायकों को दिया जाय। आख़िर हम में क्या कमी है? देश में मचे इस हाहाकार से संसद भी उबल रही थी।
सांसदों का कहना था कि पटवारी जिला स्तरीय पद है। अतः ये पद सांसदों को दिया जाय, विधायकों को नहीं। सम्पूर्ण देश परेशान था। लोगों के जाति प्रमाण पत्र, मूलनिवासी, आय, चरित्र प्रमाणपत्र नहीं बन पा रहे थे। रेत-पत्थर की रॉयल्टी की जम कर चोरी हो रही थी। पूरे देश में दंगे हो रहे थे। बात अब धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच रही थी। जैसे-जैसे बातेँ हिंदुस्तान के बाहर अन्य मुल्कों में पहुँची, लोगों को पटवारी के बारे में पता चलने लगा। फ्रांस, जर्मनी अन्य देशों के सरकारी कर्मचारी मांग करने लगे कि हमारे मुल्कों में भी पटवारी के पद सृजित किये जायें। ऑस्ट्रेलिया के युवाओं ने कह दिया कि अब हम ओलम्पिक में तभी मेडल जीतेंगे जब लौट कर हमें पटवारी बनाने का वादा करोगे। अमेरिका में नारा गूंजने लगा-अबकी बारी हम पटवारी। वहीं सीनेटरों का कहना था कि तुम नहीं, हम पटवारी बनेंगे।
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ड्रंक पटवारी पद की जानकारी लेने शिष्टमंडल के साथ भारत आये। पूरी जानकारी लेने के बाद उन्होंने अपने साथी सीनेटरों से कहा- भाईलोगों अब आप वापस अमेरिका जाइये। हमको इदरीच्च पटवारी बनने का माँगटा है। हमने इदर का पीएम को बोला है- जो टुम हमको बनायेगा पटवारी, टो हम टुमको खिलायेगा निहारी। उधर संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में माहौल तनावपूर्ण था। अन्य देशों का कहना था कि अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष का यूँ अकेले-अकेले इंडिया जाकर पटवारी बन जाना कॉउन्सिल के नियमों के खिलाफ है। इसको वीटो किया जायेगा। इंडिया में पटवारी बनने का अवसर सभी राष्ट्राध्यक्षों को दिया जाय। बहस चल ही रही थी तभी वहाँ तेज धमाका हुआ। सब तरफ़ धुआँ छा गया।
आँख खुली तो देखा कि पिता जी ने अपने फिंगरप्रिंट गाल पर अंकित कर दिये थे, और चिल्ला रहे थे कि उठ, भोगी उठ! पटवारी की कोचिंग करने प्रिय के पास जाना था तुझे हरामख़ोर। अगले महीने परीक्षा है।