न जाने क्यों सिनेमा की बात आते ही रमाधीर सिंह प्रांसगिक हो जाते हैं।
“ई साला जब तक हिन्दुस्तान में सनीमा है, लोग ऐसे ही *** बनते रहेंगे।”
असल में दार्शनिक रमाधीर सिंह के इन शब्दों के विश्लेषण के बाद यह भी अर्थ निकाला जा सकता है कि जब तक हिंदुस्तान में लोग ‘भोले-भाले’ रहेंगे, सिनेमा अनवरत चलता रहेगा।
ऐसा ही कुछ चल रहा है कोलकाता में! 15 दिसंबर से कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल शुरू हो चुका है। फिल्मों पर चर्चा के अलावा यहाँ सब कुछ हो रहा है। सामाजिक एकता, नागरिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और मौसम बदलने का पूर्वानुमान, लगभग सब पर चर्चा चल रही है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कार्यक्रम का उद्घाटन किया।
इस समारोह में शामिल हुए अमिताभ बच्चन ने कहा कि देश को आजाद हुए कई साल बीत चुके हैं, पर आज भी अभिव्यक्ति की आजादी और नागरिक स्वतंत्रता पर सवाल उठाए जाते हैं। वहीं, 60 वर्ष के होने वाले शाहरुख खान ने भी जवान दिखने की कोशिश में होंठ भींचते हुए कहा कि “आज के वक्त में सोशल मीडिया द्वारा एक कलेक्टिव नैरेटिव दिया जाता है। मैंने कहीं पढ़ा था, निगेटिविटी सोशल मीडिया के इस्तेमाल को बढ़ाती है। इसके अलावा इसकी कमर्शियल वैल्यू भी बढ़ती है। पर जब तक हम जैसे पॉज़िटिव लोग हैं…”
सोशल मीडिया और कमर्शियल वैल्यू के रिश्ते को आजकल आप पठान फ़िल्म के विवाद के बाद इसकी बढ़ती लोकप्रियता में देख ही रहे होंगे।
खैर, यह कोई पहला वाकया नहीं है जब किसी कला-सिनेमा के मंच पर एक्टिविज्म का इस्तेमाल करके राजनीतिक हित साधने के प्रयास किए गए हों। इससे पहले हाल ही में गोवा में आयोजित 53वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया में इज़राइल से आये निर्देशक और फ़ेस्टिवल में जूरी के सदस्य नदाव लिपिड ने कश्मीरी पंडितों पर कश्मीर में हुए अत्याचारों और उसके परिणामस्वरूप राज्य से उनके पलायन पर बनी हिंदी फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ को ही प्रोपगैंडा बता कर केवल मंच पर बैठे लोगों को ही नहीं बल्कि अधिकतर भारतीयों को चकित कर दिया था।
कला सिनेमा का मंच राजनीति की भेंट उसी वक़्त चढ़ जाता है जब उसमें राजनीतिक व्यक्ति शामिल होते हैं या अराजनीतिक व्यक्ति कुछ समय के लिए राजनीतिक हो लेते हैं।
कोलकाता में ममता बनर्जी अपने मेहमानों का स्वागत कर रहीं थीं और मेहमान उस स्वागतभाव का धन्यवाद अपने भाषण में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तथाकथित खतरे की बता करते हुए धन्य हो रहे थे।
कहने को यह सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रम था, लेकिन सरकार कौन है? जाहिर बात है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जब एक राजनीतिक दल सरकार का गठन करेगा तो उसके कार्यक्रमों में भी उसकी विचारधारा ही परलक्षित होगी। फिर ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों से निष्पक्षता की आशा करना बेमानी ही होगी।
अमिताभ और शाहरुख जैसे कलाकार अपने किरदार के साथ ईमानदारी तब करेंगे जब वह कला-सिनेमा के विशेषज्ञ के तौर पर शामिल होने आएँ और इन कार्यक्रमों में अपने क्षेत्र से जुड़ी बात जनता के सामने रखेंगे। किसी भीड़ के सामने खड़े हो जाने पर ज्ञान बांचने की परम्परा आवश्यक नहीं है।
राजनीतिक एक्टिविज्म ही करना है तो फिर नजर केवल विशेष मुद्दों पर ही क्यों? जिस पश्चिम बंगाल की धरती पर इन कलाकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और असहिष्णुता की याद आई, उसी पश्चिम बंगाल की धरती पर पिछले वर्ष विधानसभा चुनावों के पश्चात बड़े पैमाने पर हुई हिंसा, बलात्कार और नागरिक अधिकारों के हनन के समय ये कलाकार अपनी आत्मा कौन से पेड़ की डाल पर रख कर भूल गए थे? आत्मा ने ऐसी कौन सी भाँग वाली ठंडाई पी ली थी कि उसे गहरी नींद आ गई थी?
या इसलिए नहीं जागी क्योंकि ये उस समय कुछ बोल देते तो आज जहाँ खड़े होकर इनकी आत्मा जाग उठी है, वहाँ खड़े होने का मौक़ा न मिलता? शाहरुख खान तो पश्चिम बंगाल के ब्रांड एम्बेसडर होने का कर्ज चुका रहे थे लेकिन अमिताभ बच्चन? या बच्चन साहब यह मान कर चलते हैं कि चिता में राख हो चुके या कब्र में मिट्टी बन चुके लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होती?
फिल्मों में अभिनय से अपना स्तर तय करने वाले लोगों को आज अपनी बात रखने के लिए सियासी मंचों का सहारा लेना पड़ रहा है। क्यों लेना पड़ रहा है? शायद इसलिए कि इनसे जिस कला की अपेक्षा की जाती है, वह ये नहीं दे पा रहे।
अमिताभ और शाहरुख खान को सक्रिय राजनीति में शामिल नेताओं से भी अधिक सतर्कता न केवल सुना जाता है बल्कि कुछ लोग उनसे बोलने की अपेक्षा करते हैं। जो ‘विचार’ वर्षों से सक्रिय राजनीति में शामिल रहे नेता नहीं ठेल पाते हैं, साल दो साल में नेताओं द्वारा स्थापित किए गए ऐसे लोग सपाट चेहरे के साथ ठेल कर एक ख़ास नैरेटिव सेट कर देते हैं।
बस यह काम इन्हें शायद बार-बार करना पड़ेगा क्योंकि यह करते हुए ये दिखाई दे जाते हैं।