रविवार, 16 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक पसमांदा मुसलमानों के सम्मेलन में शामिल हुए। यह तीन दिवसीय सम्मेलन भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें बुद्धिजीवियों के जरिए पसमांदा मुसलमानों से संवाद किया गया।
इस कार्यक्रम में पहुंचे प्रदेश के उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा, “कॉन्ग्रेस और बसपा ने मुस्लिम समाज को बिरयानी में पड़े तेजपत्ते की तरह इस्तेमाल किया था। इन दलों को जब भी सत्ता मिली इस समाज को मुख्यधारा से दूर करने का काम किया। मुस्लिम समाज अब समझ चुका है कि कौन उनका हितैषी है।”
उन्होंने केंद्र व प्रदेश सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के बारे में बताते हुए कहा, “किसी के साथ अब कोई विभेद नहीं होता है। उन्होंने कहा कि देश में साढ़े चार करोड़ लाभार्थी अल्पसंख्यक समाज से हैं। ये आंकड़े बता रहे हैं कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं में किस तेजी के साथ पसमांदा समाज की भागीदारी बढ़ी है।”
कौन हैं पसमांदा समाज के लोग?
पसमांदा का शाब्दिक अर्थ है; जो पीछे छूट गए हैं। दरअसल, भारतीय मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था लागू है। इन्हें तीन वर्गों में देखा जा सकता है। पहले, अशराफ़ जो कुलीन, उच्च वर्ग से या सवर्ण माने जाते हैं। भारतीय मुसलमानों में अशराफ़ मुस्लिमों की संख्या 15% है। बाकी बचे 85% संख्या अरजाल और अजलाफ की है। अरजाल और अजलाफ जाति को ही संयुक्त रूप से पसमांदा समाज कहा जाता है जो दलित और पिछड़े माने जाते हैं।
यह वर्ग आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा है। दर्जी, धोबी,, लोहार, नाई, कुम्हार, मिस्त्री, हस्तशिल्पकार और पुश्तैनी कामों के कारीगर इसी वर्ग से आते हैं।
इस विषय पर भाजपा की नीति देखें तो इससे पहले जुलाई माह में, पीएम मोदी ने भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पसमांदा मुसलमानों की चर्चा की थी और पदाधिकारियों को पसमांदा मुसलमानों से जुड़ने के निर्देश दिए थे।
उनके इस बयान का विश्लेषण राजनीतिक पंडित एवं विपक्षी दल कर ही रहे हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि वर्तमान में देश का सबसे बड़ा दल जो निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक, हर मोर्चे पर सफल साबित हो रहा है, वह अपनी पारम्परिक राजनीति से हट कर मुसलमानों की तरफ क्यों रुख कर रहा है?
भाजपा: मिशन पसमांदा क्या है ?
- अंत्योदय: पिछड़ों का विकास
भारतीय मुसलमानों में पसमांदा समाज की जनसँख्या 85% है, लेकिन यह लोग मुसलमानों के प्रतिनिधत्व में कहीं भी नज़र नहीं आते। इसके उलट, 15% की जनसंख्या वाले अशराफ़ मुस्लिम देश में मुसलमान समाज के प्रतिनिधि बने हुए हैं।
दरअसल, देश के मदरसों से लेकर सरकारी नौकरियों तक एवं मुसलमान समाज के बड़े संगठन जैसे जमात ए उलेमा ए हिंद, जमात ए इस्लामी, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, सभी में अशराफ समाज के लोग ही काबिज़ हैं। यहाँ तक कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन, उर्दू एकेडमी जैसे बड़े संस्थानों में भी अशराफों की ही संख्या अधिक है।
उच्च पदों में अशराफों का यह वर्चस्व एकाएक नहीं हुआ बल्कि यह पसमांदा समाज का लम्बे समय से शोषण का परिणाम है। इस जातिगत भेदभाव का उल्लेख अली अनवर की मसावत की जंग (2001) और मसूद आलम फलाही की हिंदुस्तान में जात पात और मुसलमान (2007) किताबों में मिलता है।
एक आकलन में यह पाया गया कि देश के पहले चुनाव से लेकर वर्ष 2004 तक कुल 400 मुसलमान संसद पहुंच चुके थे, जिसमें पसमांदा मुसलमान सिर्फ 60 ही थे।
शायद पीएम मोदी ने भी इसी तथ्य के परिपेक्ष्य में पसमांदा मुसलमानों से जुड़ने का प्रयास किया है ताकि इस वंचित तबके को मुख्यधारा में ला कर एक स्थान प्रदान किया जाए।
- एक सीमित छवि से बाहर निकलना
दरअसल भाजपा के गठन से लेकर ही वर्तमान समय तक पार्टी की छवि हिंदुत्ववादी पार्टी के तौर पर है, इसके साथ ही कई मौकों पर यह छवि मुसलमान-विरोधी पार्टी के रूप में भी देखी जाती है। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने हिन्दुओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को सत्ता के शीर्षस्थ पदों पर स्थान दिया है जो भाजपा की तरफ से इस बात का संदेश था कि भाजपा सिर्फ सवर्णों की पार्टी नहीं है। इसी प्रकार पसमांदा मुसलमानों से जुड़ने का यह कदम मुसलमान-विरोधी छवि तोड़ने का प्रयास हो सकता है।
- लोकतंत्र के पर्व में समर्थन जुटाना
‘तीन तलाक़’ के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में मुसलमान महिलाओं ने भी भाजपा के पक्ष में मतदान किया था। अमेरिका स्थित ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में लगभग 20% मुसलमानों ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया।
हाल ही में रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर हाल ही में हुए उपचुनावों में सपा को करारी हार झेलनी पड़ी थी। यह सीटें समाजवादी पार्टी का गढ़ मानी जाती थी। भले ही भाजपा को इस जीत में मुस्लिमों का बड़ा योगदान न मिला हो, लेकिन यह साफ है कि समाजवादी पार्टी के पक्ष में भी वह उतनी मजबूती से नहीं खड़ा रहा। ऐसे में भाजपा मानती है कि मुस्लिमों के बड़े वर्ग की सपा से दूरी उसके लिए अवसर की तरह हो सकती है।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश में अशराफ मुस्लिमों की आबादी 10% ही है, जबकि पसमांदा मुस्लिम 90% तक हैं।
इस रणनीति का विरोध
भाजपा का मुसलमानों से जुड़ने के यह कदम नुकसानदायक हो सकता है, ऐसा भाजपा समर्थकों के एक वर्ग का मानना है। उनका कहना है कि मुसलमान किसी भी परिस्थिति में भाजपा को वोट नहीं देगा। आज़ादी के बाद से ही राज्यों सहित समुदायों का आकलन उनसे मिलने वाले वोट प्रतिशत से किया जाता रहा है। जिसका परिणाम यह था कि लोकसभा में कम सीटों का प्रतिनिधित्व रखने वाले छोटे राज्य विकास से दूर रहे।
बीते 7 दशकों में मुसलमानों ने कुछ विशेष दलों को ही हितैषी बनाया लेकिन मुसलमानों की स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ। जिन दलों को मुसलमानों ने जमकर वोट भी दिया, उन दलों ने मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक तक ही सीमित रखा।
सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास?
विगत वर्षों में भाजपा सरकार ने मुसलमानों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की। अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्ति से लेकर पीएम आवास योजना तक, हर योजना में मुसलमानों की भागीदारी समुचित तौर पर रही। पीएम मोदी भी मुसलमानों के लिए ‘एक हाथ में कुरान और दूसरे में कंप्यूटर’ की बात कर चुके हैं।
सच्चाई यह है कि संवैधानिक रूप से देश के विकास की भागीदारी में किसी समुदाय को पृथक नहीं किया जा सकता है। खासकर ,जब यह जनसंख्या देश की अर्थव्यवस्था में भी मजबूती प्रदान करती है।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जब कहते हैं कि अगले 30-40 वर्ष भाजपा का युग रहेगा तो शायद वो जानते हैं कि 8 वर्ष की सत्ता सिर्फ एक आधार हो सकती है। विविधताओं से भरे एक बड़े देश के विकास के लिए दीर्घकालीन शासन की आवश्यकता होती है। और यह कार्यकाल जनता के समर्थन से ही प्राप्त होगा। इसलिए इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश के एक बड़े समुदाय को अछूत मानना भूल हो सकती है।