बदली वैश्विक परिस्थितियों ने विकसित और विकासशील देशों के संबंधों में परिवर्तन ला दिया है। समय के साथ ‘सुपर पावर, महाशक्ति या प्रभावशाली’ जैसे शब्दों की जगह ‘गठबंधन, समन्वय और सहभागिता’ ने ली है। भू-राजनीति आज राजनीतिक रूप में शक्तिशाली देशों का हथियार बन गई है। भूमंडलीकरण के दौर में विकसित और विकासशील देशों के बीच कूटनीति इन रिश्तों की नई पहचान बनी है। इन्हीं वैश्विक परिदृश्यों में भारत ने अपनी मजबूत पहचान बनाई है। बात कोविड महामारी की हो, युद्धरत देशों की या किसी देश के आर्थिक हालात, भारत ने अपने मजबूत कूटनीतिक निर्णयों की मदद से स्वयं को ग्लोबल लीडर के रूप में स्थापित किया है।
भारत द्वारा लिए गए निर्णयों और विदेश मंत्री एस जयशंकर की स्पष्टवादिता ने भू-राजनीति में भारत को नए मुकाम पर ला खड़ा किया है। आज किसी देश में आपदा आने पर भारत का विमान दिखने के साथ ही आशा की उम्मीद बंध जाती है। भारत एक तरफ मदद का हाथ आगे बढ़ा रहा है तो साथ ही यह ध्यान भी रख रहा है कि इससे स्वयं के नागरिकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। कूटनीति के निर्णयों में शायद यह पहली बार ही है जब भारत ने वैश्विक दबाव के आगे स्वयं की प्राथमिकताएं तय की हैं। नेतृत्वकर्ता के रूप में मददगार बनने के साथ देशवासियों की उपेक्षा नहीं कर रहा है।
कोविड महामारी के दौरान विकासशील और गरीब देशों तक वैक्सीन पहुँचाकर भारत ने वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को प्रबल किया तो आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका को आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई और हाल ही में तुर्की में आए भूकंप में भी मदद की। ऐसे में बुद्धिजीवी वर्ग से प्रश्न आना स्वभाविक ही है कि भारत आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान की मदद क्यों नहीं कर रहा है?
पाकिस्तान: बदहाल आर्थिकी के बावजूद जारी है कश्मीर प्रलाप
सर्वप्रथम पाकिस्तान ने भारत से मदद नहीं मांगी है। कमजोर आर्थिक हालातों के बीच भी वह कश्मीर मुद्दे को ही सुलझाने पर जोर दे रहा है। तुर्की में भूकंप आने पर भारत पहला देश था जिसने आपदाग्रस्त लोगों की मदद की थी। ऐसे में पाकिस्तान की मदद के लिए आह्वान की आवश्यकता नहीं है पर यह देखना भी जरूरी है कि नागरिकों की इस पर क्या राय है? किसी भी उदारवादी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध कूटनीतिक निर्णय लेना समझदारी नहीं कहलाती।
साथ ही, मदद का उपयोग पाकिस्तान किस तरह करेगा? संभव है कि आर्थिक मदद देकर भारत स्वयं के लिए ही खतरा खरीद रहा हो।
जब से वैश्विक पटल पर पाकिस्तान का उदय हुआ है तब से ही भारतीय सरकारों ने अपनी उदारता का प्रदर्शन करते हुए इस्लामी राष्ट्र की हर संभव मदद की है। कराची समझौता (1949), लियाकत-नेहरू पैक्ट (1950), सिंधु जल समझौता (1960), और ताशकंद सहित कई समझौतों के जरिए भारत ने अपने आपको अच्छा पड़ोसी साबित किया है। पाकिस्तान को भारत से ही नहीं अपनी पश्चिमी और इस्लामी मित्रों से भी सहारा मिलता आया है। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि भारत से अधिक परमाणु हथियारों वाला यह देश दिवालिया होने की कगार पर है।
इसके लिए पिछले कुछ वर्षों में आई भीषण बाढ़ और कोरोना महामारी को दोष भले ही दिया जाता हो पर ये सार्वभौम सत्य है कि पाकिस्तान यहाँ अपने वॉर बिजनेस एवं आतंकवादियों को पनाह देने के कारण पहुँचा है। पाकिस्तान ने कभी भी लोकतंत्र और विकास के रास्ते का चयन किया ही नहीं। इसलिए 75 वर्षों में भी उसे कोई स्थाई सरकार नहीं मिल पाई। स्वतंत्र देश के रूप में आगे बढ़ने के स्थान पर पाकिस्तान ने स्वयं को एशिया में पश्चिमी देशों के हथियार के रूप में स्थापित कर लिया।
तो फिर से प्रश्न पर वापस आते हैं कि क्या भारत पाकिस्तान की मदद करेगा? बुद्धिजीवियों को निराश करते हुए एक राष्ट्र कूटनीतिक संबंधों को ध्यान में रखकर ही अन्य देश की मदद करता है। राष्ट्रनीति के निर्णयों में संवेदनाएं एक भावना हो सकती है पर अंत में नीतियां दीर्घकालिक निवेश के तौर पर बनाई जाती हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने अपने नागरिकों की प्राथमिकताओं के आधार पर निर्णय लिया। वहीं श्रीलंका की मदद के साथ भी भारत ने स्वयं के लिए चीन और श्रीलंका के त्रिकोण के बीच मजबूत स्थिति बना ली है।
पर भारत के पाकिस्तान के साथ न तो द्विपक्षीय संबंध हैं और न ही आने वाले समय में कोई नीतिगत फायदा नजर आ रहा है। लाभ को दरकिनार भी कर दें तो इस बात की संभावनाएं अधिक है कि भारत का पाकिस्तान में किया गया निवेश जरूरतमंदों को नहीं बल्कि भारत में आतंक फैलाने के लिए किया जाए।
भारत से मदद की उम्मीद ही आधारहीन है। मुख्यतः पाकिस्तान का भविष्य उसके निर्णयों और नीतियों पर ही निर्भर करता है। पाकिस्तान बाढ़ के बाद के हालातों को सुधारने के लिए भी सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। आज भी कृषिभूमि जलप्लावित होने के कारण किसान फसल नहीं उगा पा रहे हैं। आतंकवादी आज भी खुले घूम रहे हैं, अल्पसंख्यक हिंदूओं पर अत्याचार हो रहा है और मूलभूत सुविधाएं पहुँचाने में भी पाकिस्तान सरकार असफल रही है। कोई भी राष्ट्र ऐसी स्थिति में एक दिन में नहीं पहुँचता है। यह वर्षों के असफल शासन एवं कुंठित राजनीति का परिणाम है। इसके बाद भी संभावनाएं प्रबल है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाने से पहले उसके इस्लामी मित्र राष्ट्र एवं पश्चिमी ताकतें इसे संभाल ही लेंगी।
पाकिस्तान से रूठ गए हैं ‘अच्छे दिन’?
पर ऐसी स्थिति में भारत के लिए जो प्रश्न होना चाहिए वो यह है कि क्या हम एक दिवालिया पड़ोसी वहन कर सकते हैं? पाकिस्तान में स्थिति बिगड़ती है तो शरणार्थी भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या बनेंगे। पाकिस्तान की टूटती अर्थव्यवस्था भारत में सुरक्षा और संसाधनों के लिए खतरे का कारण बन सकती है। ऐसे में भारत को अपना निवेश देश को सुरक्षित करने में लगाना अधिक आवश्यक है।
इतिहास सबसे अच्छा शिक्षक है, अगर उससे सिखा जाए तो। भारत-पाकिस्तान के संबंधों में भी इतिहास ही निर्णायक है। किसी भी तरह की मदद पाकिस्तान के लिए मौका होगा भारत पर चोट करने का। भारत आज जिस स्थान पर खड़ा है उससे अपेक्षित है कि वो अपने निर्णय कूटनीति और राष्ट्र को सर्वप्रथम रखकर ही लेगा। पाकिस्तान की मदद की गुहार लगाने वाले भले ही भूल जाएं पर नीति-निर्माताओं को याद है कि देश का संचालन आज भी कूटनीतिक संबंधों पर होता है, प्रोपगेंडा पर नहीं।