पाकिस्तान का केन्द्रीय बैंक है स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान, और उसने आयात पर प्रतिबन्ध लगा रखा है। ये प्रतिबन्ध इसलिए है क्योंकि पाकिस्तान के पास ‘बेकार की चीजों’ के लिए डॉलर नहीं हैं। इसका नतीजा क्या हुआ? ‘घरेलू मांग नहीं है’ कहती हुई कई ऑटोमोबाइल कंपनियां जो छोटे पुर्जे बनाती थीं, या विदेशों से आयातित पुर्जों को जोड़कर गाड़ियाँ वगैरह बनाती थी, वो एक-एक करके बंद होती जा रही हैं। निशात चुन्नियां ने अपना उत्पादन एक तिहाई कर दिया है। क्रेसेंट फाइबर्स लिमिटेड ने उत्पादन पचास प्रतिशत कर दिया है। सूरज टेक्सटाइल मिल्स लिमिटेड ने उत्पादन चालीस प्रतिशत किया और कोहिनूर स्पिन्निंग मिल्स ने भी उत्पादन घटाने की घोषणा कर दी है। कल-पुर्जे बनाने और कपड़ों के उत्पादन से जुड़ी बड़ी कंपनियों के ऐसे कदम से भारी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए हैं।
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असल में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जैसे चल रही थी, उसे किराया आधारित अर्थव्यवस्था (रेंट इकॉनमी) कहा जा सकता है। पाकिस्तान जहाँ है, वो रूस के नजदीक होता था, चीन भी बिलकुल पास है, और भारत पर जो पश्चिमी देश निगाह बनाए रखना चाहते थे, उनके लिए भी पाकिस्तान महत्वपूर्ण हो जाता है। मुशर्रफ के दौर में ऋण पुनर्गठन की वजह से कर्ज न चुकाने या देर से चुकाने की छूट पाकिस्तान को मिल गयी थी। पिछले बीस वर्षों में पाकिस्तान ने इस मौके का लाभ उठाकर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बदले भीख पर गुजारा जारी रखा। इसके साथ ही उसकी नजदीकियां चीन से बढ़ी जो कि अमेरिका को रास नहीं आई। ये कहा जा सकता है कि पहले तो हालत अच्छी नहीं ही थी, ऊपर से पिछले दो दशक की जो नीतियाँ रहीं, उन्होंने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी। हाल ही में कोविड-19 से बने हालात और मौसम ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। बाढ़ की वजह से चीन की सहायता से बन रहे बिजली, सड़क और रेल के प्रोजेक्ट पर खासा असर पड़ा।
सीपीईसी यानि चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारा, पाकिस्तान की एक बड़ी उम्मीद थी। वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) के जरिये ईंधन और खनिज आने जाने का रास्ता तो बनता ही, साथ ही मध्य एशिया और अफ्रीका जैसी जगहों तक चीन के लिए भी रास्ता बनता। पहले जो चीन में इस्पात, सीमेंट, या मशीनरी के कारखाने बने थे, वो विकास के एक स्तर पर पहुँचने के बाद चीन के लिए बोझ हैं। उनके लिए एक नया बाजार खोजना जरूरी था। पाकिस्तान के साथ आर्थिक गलियारा बनता तो व्यापार से जुड़े कर और रोजगार के रूप में पाकिस्तान के पास आय के स्रोत बनते। अब ये हो नहीं पा रहा। उल्टा अब जो देरी होते जाने से स्थिति बन रही है, उसमें पाकिस्तान कर्ज से ऐसा दब जायेगा कि उसे चीन के हाथों “बिका हुआ मुल्क” कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सीपीईसी के नियम और शर्तें देखें, तो ये साफ़ हो जाता है कि पिछली शताब्दी में जैसे उपनिवेश होते थे, ये योजना, कुछ वैसे ही पाकिस्तान में चीनी उद्योग, चीनी आधिपत्य जमाने की योजना है।
काफी पहले जो हमने एक जुमला सुना था, वो कंगाली की और बढ़ते पाकिस्तान को देखकर फिर से याद आ जाता है। एक फिलिस्तीन समर्थक आयोजन में किसी ने हमसे कहा था कि आमतौर पर मुल्कों के पास फौज होती है, पाकिस्तान के मामले में एक फौज है, जिसके पास मुल्क है। पिछले छह-सात दशकों में पाकिस्तानी फौज ने पाकिस्तान को गन्ने की तरह चूसा है। पाकिस्तान के दर्जनों व्यावसायिक उपक्रमों की मालिक वहां की सरकार नहीं बल्कि फौज है। सालाना बजट का करीब बीस प्रतिशत वर्षों से सीधा वहां की फ़ौज को चला जाता है। अगर 2021-22 की रक्षा सेवा पर ऑडिट रिपोर्ट की बात की जाये तो थलसेना ने 21 अरब, वायुसेना ने 1.6 अरब और नौसेना ने भी करीब 1.6 अरब रुपये खर्च किये हैं। इस बीच आम जनता के लिए आटा अगर 100 से 200 रुपये किलो पर पहुँच जाता तो पहुँचता रहे! फ़ौज की कैंटीन की खरीद में घोटाला तो होता रहेगा।
पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज ने जब ये बयान दे डाला कि पुराने मित्र देश भी अब फोन करने पर ये समझते हैं कि पाकिस्तान ने कर्जा-पैसे मांगने के लिए ही फोन किया होगा, तो पूरे पाकिस्तान में उनकी निंदा हुई। फिर जब उनकी भारत से बातचीत वाला बयान आया और कहा गया कि इतने वर्षों से पाकिस्तान बेकार ही लड़ता रहा है, तो उन्होंने वही कहा था जो अब बहुसंख्यक पाकिस्तानी जानता तो है, मगर सर्वजनिक तौर पर स्वीकारने को तैयार नहीं। सार्वजनिक तौर पर स्वीकारने को तैयार नहीं का दावा इसलिए क्योंकि हिन्दुओं (अल्पसंख्यकों) पर हमले, उनके मंदिरों को तोड़ा-भ्रष्ट किया जाना, जमीनें कब्जाना, अपहरण-बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन के मामले अभी थमे तो नहीं हैं। ये हरकतें कोई सरकार तो कर नहीं रही होती न? पाकिस्तान का आम आदमी ही कर रहा होता है। पाकिस्तान असल में अभी भी ये स्वीकारने को तैयार नहीं कि उसका बोझ ढोते रहना सऊदी अरब या किसी मध्य एशिया के देश की जिम्मेदारी नहीं है। ऐसे में जब कर्ज का विकल्प तो मिलता है, मगर भीख नहीं मिलती, तो पाकिस्तानी हुक्मरानों और अवाम दोनों को दिक्कत हो रही है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि शरीफ हों या इमरान हों या शाहबाज, कोई भी पाकिस्तान के “अच्छे दिन” तो ला नहीं पाया। अभी भी “अच्छे दिन” पाकिस्तान से रूठे ही हैं। निकट भविष्य में श्रीलंका जैसी, या फिर न्यूज़ीलैण्ड जैसी स्थिति अगर पड़ोसी पाकिस्तान में भी दिखे तो आश्चर्य तो नहीं ही होगा।
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