पद्मश्री विजेता गूँगा पहलवान: ना जीवन से हारे, ना ही आखाड़े में
फिल्म ‘उपकार’ का गाना … ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’
ये गाना आज भी उतना ही मशहूर है जितना 1967 में था। यानि जिस साल ये फिल्म रिलीज़ हुई थी। क्यों मशहूर है? इस सवाल पर सबका अपना-अपना जवाब होगा पर हमें लगता है कि गाना आज भी मशहूर इसलिए है क्योंकि यह देश की बात करता है … देश की मिट्टी की बात करता है।
हम आज इसी देश और मिट्टी की बात करेंगे… लेकिन गाना गाकर नहीं बल्कि आपको एक ऐसे खिलाड़ी के बारे में बताकर जो हमें यह एहसास दिलाते हैं कि इस गाने के बोल सिर्फ शब्द मात्र नहीं बल्कि शाश्वत कथन है। एक ऐसे खिलाड़ी जिनकी अपने खेल को लेकर की गई मेहनत कुछ यूँ है कि केवल उन्हें ही नहीं बल्कि उनके फैंस को भी इस धरती और उसकी मिट्टी से जोड़ कर रखती है।
हम बात कर रहे हैं हरियाणा के ससरौली गांव के पहलवान वीरेंद्र सिंह यादव की।
यूँ तो वीरेंद्र सिंह यादव सुन और बोल नहीं सकते, लेकिन इनकी पहलवानी सब बोल देती है, और जब बोलती है तो भारत सुनता है। यही वजह है कि वीरेंद्र सिंह का नाम है और उनके नाम कई बड़े पुरस्कार हैं।
वर्ल्ड डेफ रेसलिंग में कई गोल्ड, सिल्वर और ब्रोंज मैडल लाने वाले इस बहादुर खिलाड़ी ने बचपन से ही कुश्ती को अपना बना लिया था और कुश्ती ने उन्हें वैसे कुश्ती और वीरेंद्र के रिश्ते के बारे में पूरी बात बताएं तो इनके पिता भी पहलवान थे। तो कुश्ती और वीरेंद्र का रिश्ता जितना दिखाई देता है उससे भी जायदा गहरा है, उनका शौक भी यहीं से जगा और वीरेंद्र ने केवल नौ साल की उम्र से ही आखाड़ों में ट्रेनिंग लेना शुरू किया।
वीरेंद्र को कुश्ती की पारंपरिक ट्रेनिंग मिली और यह उनकी पारंपरिक ट्रेनिंग का ही कमाल है जिसने आज वीरेंद्र को विश्व स्तर पर मशहूर कर दिया है। आज वे इतने मशहूर हैं कि विश्व भर में जाने जाते है।
तो क्या पिता का खुद एक पहलवान होने के कारण वीरेंद्र का पहलवान होना आसान था? बिल्कुल नहीं. वीरेंद्र का जीवन चुनौती भरा रहा। उनकी बोलने और सुनने की क्षमता न होने के कारण उन्हें कई कठिनाइयों का सामना ज़रूर करना पड़ा लेकिन वीरेंद्र के दृढ़ निश्चय और मेहनत का कमाल है कि वे हर कोशिश करके अपना हुनर निखारते गए।
वीरेंद्र ने कई इंटरनेशनल और नेशनल रेसलिंग कॉम्पिटीसन में हिस्सा भले ही लिया हो लेकिन वे आज भी अपनी मिट्टी और अपने पारम्परिक आखाड़े में कुश्ती का मौका नहीं चूकते. आज भी वीरेंद्र अपने अभ्यास के लिए पारंपरिक तरीके से ही कुश्ती करते हैं। कहते हैं बचपन के खेल इंसान कभी भूलता नहीं. यही कारण है कि वीरेंद्र आज भी अपनी मिट्टी और परंपरा नहीं भूले हैं. इसे दिखाने और लोगों को प्रेरित करने के लिए वे अक्सर ही अपने वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं जिसमे वे अलग-अलग तरह से प्रैक्टिस करते नज़र आते हैं।
अभी हाल ही में वीरेंद्र ने एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें वे पारंपरिक तरह से बने कुश्ती के अखाड़े में हैं. इसमें वे सरसों के तेल, हल्दी और मेहंदी का मिश्रण कर अखाड़े की मिट्टी को रज बना रहे है। भारत में पौराणिक समय में इस तरह आखाड़े बनाए जाते थे जिसमें मिट्टी में तेल, हल्दी और मेहँदी का मिश्रण हमारी हड्डियों को मजबूत बनाने में मदद करते हैं।
वीरेंद्र भी अक्सर ही अपने कुश्ती और प्रैक्टिस के वीडियो पोस्ट करते रहते हैं जिसमे वे कभी पत्थरों को रस्सी से बाँध कर तो कभी बड़े-बड़े दंड पकड़ कर एक्सरसाइज करते नज़र आते है। यह वाकई में अद्भुत है कि एक खिलाड़ी जो इंटरनेशनल स्तर पर रेसलिंग करता है वो आज भी अपनी धरती से इतना लगाव रखता है और इसकी प्रैक्टिस पारम्परिक तरह से करना पसंद करता है। वे हमेशा अपने फैंस को भी इस तरह खेलने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं।
वीरेंद्र की सफलता और उनके कठिन परिश्रम को देखते हुए साल 2014 में उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई गई गूंगा पहलवान और इस फिल्म में उन्होंने खुद लोगों को अपने जीवन से रूबरू करवाया।
वीरेंद्र सिंह यादव की अचीवमेंट्स की बात करे तो उन्होंने (deaflympics) में 3 गोल्ड और 1 बरौंस मैडल अपने नाम किया है वहीं (world deaf wrestling championship) में 2008 में सिल्वर मैडल, 2012 में बरौंस मैडल और 2016 में गोल्ड मैडल अपने नाम किया। इसके साथ भारत सरकार द्वारा उन्हें 2015 में अर्जुन अवार्ड और 2021 में पद्मश्री से नवाज़ा गया। वीरेंद्र ने अपने जीवन में कई बड़ी उपलब्धियाँ ज़रूर हासिल की हों लेकिन आज भी वो वही सीधा सादा जीवन व्यतीत करते हैं।
वीरेंद्र का अपने देश और परंपरा के प्रति सम्मान और गहरा लगाव हर भारतीय को एक ही संदेश देता है, कि इंसान सात समुंदर पार क्यों ना चले जाए या जीवन में हर मुकाम हासिल क्यों ना कर ले पर अपनी मिट्टी, अपनी धरती और अपने देश से लगाव कभी कम नहीं होता क्योंकि देश से लगाव तो दिल का रिश्ता है, जो कभी नहीं बदलता।