हाल ही में एक रिपोर्ट के साथ ऑक्सफेम का नाम फिर से चर्चा में आ गया। ये रिपोर्ट गरीबी पर थी। चूँकि ये रिपोर्ट उस समय आई थी जिस समय भारत में बजट पेश किया जाने वाला होता है, इसलिए हालिया राजनैतिक माहौल और अंतरराष्ट्रीय राजनीति, यानि जियोपॉलिटिक्स देख रहे लोगों को इस रिपोर्ट के पीछे की मंशा समझने में कोई देर नहीं लगी।
“अमीरों से छीनकर गरीबों को दे दो” की जिस परीकथा पर तथाकथित प्रगतिशील जमातों की राजनीति चलती है, ये भी उसी का एक हिस्सा थी। ये जरूर है कि अब जब कि भारत में आम चुनावों का दौर भी नजदीक आ गया है, उस समय ऐसी रिपोर्ट से विपक्षी दलों को सरकार पर निशाना साधने का एक मौका मिल जाता है। जहाँ तक आम आदमी का सवाल है, वो साम्यवाद के किसी और से छीनकर किसी दूसरे को अमीर करने के सिद्धांत में कोई भरोसा नहीं करता। इसलिए आम आदमी को इस रिपोर्ट के आने से भारत में काम करने वाले एनजीओ गिरोहों की करतूतें याद आई होंगी।
लोगों को इसका अनुमान तो पहले से ही रहा होगा, मगर जब 2015 में एफसीआरए के नियम, यानी विदेशी चंदे से जुड़े नियम बदले तो मीडिया का भी इस विषय पर ध्यान गया। इस वर्ष केंद्र सरकार ने ई-फाइलिंग के नियम बदले। जो विदेशी चंदा मिला था, उसका हिसाब प्रत्येक तिहाई में देने का नियम बना। इसके अलावा अगर एनजीओ के बैंक खाते, नाम, पते, उद्देश्य या कर्ता-धर्ताओं के नाम इत्यादि बदलते, तो उसके बारे में पंद्रह दिन के अन्दर सूचित करने का नियम भी बना। गृह मंत्रालय को एनजीओ के बारे में सूचना देनी पड़ती।
करीब-करीब इसी समय एफसीआरए के आधार पर फर्जी एनजीओ को पहचान कर उनका निबंधन निरस्त करना भी शुरू हुआ। अशोका विश्वविद्यालय ने जब 2019 में “एस्टीमैटिंग फिलान्थ्रोपिक कैपिटल इन इंडिया” नाम से एक रिपोर्ट जारी की, तो इस बारे में काफी कुछ पता चला। केंद्र सरकार ने 2015 में 10069 निबंधन रद्द किये थे और 2017 में फिर से 4943 निबंधन रद्द कर डाले थे।
इतनी संस्थाओं को मिलने वाला विदेशी चंदा, सचमुच चौंकाने वाला था। ये सही तरीके से हिसाब नहीं दे रहे थे, केवल चंदा लेकर खर्च किये जा रहे थे, ये और भी विचित्र बात थी। ऐसी संस्थाओं पर कड़ी कार्रवाई होने के बाद, भारत की मौजूदा सरकार की छवि भी इन संगठनों की नजर में और बिगड़ी। कई अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों और रिपोर्ट के हिस्से, समय-समय पर सरकार के विरुद्ध विष वमन करते रहे।
इसके बाद भी अगर आप सोच रहे हैं कि एफसीआरए के लिए निबंधित संस्थाओं की संख्या में ऐसी कार्रवाई से कोई बड़ी कमी आई होगी, तो आप गलत सोच रहे हैं। रिपोर्ट बताती है कि 2009-10 में जहाँ 22113 संस्था एफसीआरए के लिए निबंधित थे, वहीँ 2018-19 में 21409 संस्थाएं निबंधित थीं। ये कोई बड़ी कमी तो नहीं। जिन संस्थाओं ने विदेशी चंदे के लिए निबंधन करवा रखा था, उनमें से करीब सात प्रतिशत दिल्ली में थीं, और बाकी संस्थाएं देश भर में फैली हुई थीं।
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वर्ष 2018-19 में इन संस्थाओं को कुल 16343 करोड़ रुपये का चंदा मिला था। भारत की आबादी कुल सवा सौ करोड़ मान लें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने पैसे आये और कितना काम हुआ। किसे कितना चंदा मिल रहा था, ये भी देखने लायक है। इन 21490 एनजीओ में से 46.5% को कोई विदेशी चंदा नहीं मिला। करीब 41.6% को एक करोड़ से कम विदेशी चंदा मिला। यानि कि जो 16343 करोड़ रुपये आये, उसका अधिकांश हिस्सा केवल 12% एनजीओ को मिल रहा था।
हाल के तथाकथित किसान आन्दोलन, जिनमें दिल्ली में व्यापक पैमाने पर हिंसा और तोड़फोड़ हुई, उस दौरान भी एनजीओ से जुड़े लोगों की सक्रियता नजर आई थी। हाल ही में प्रवासी भारतीय के नाम पर जिन्हें मध्य प्रदेश में सम्मानित किया गया है, वो इस तथाकथित किसान आन्दोलन में लंगर चला रहे थे। इसके अलावा विश्व स्तर पर ख्यात लड़की ग्रेटा जो पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर बयान देती है, वो इस आन्दोलन के लिए टूलकिट बाँट रही थी।
जब ऑक्सफेम की रिपोर्ट को आप देखते हैं तो आपको सबसे पहले अर्थशास्त्र के साधारण सिद्धांत समझने होंगे। सरकार के पास स्वयं का कोई पैसा नहीं होता। करों के रूप में जो वो जनता से लेती है, उसे ही जनता पर खर्च करती है। अगर अमीरों से पूरा पैसा छीन ही लिया जाए, तो किसी के पास अधिक मेहनत करने, या कोई उद्योग-व्यापार लगाकर चुनौतियाँ झेलने का कोई प्रोत्साहन नहीं रह जायेगा। साथ ही अगर बिना श्रम के मिलने लगे तू दूसरे लोगों के पास श्रम करने का कोई उद्देश्य नहीं बचेगा। एक सीमा से अधिक करों को बढ़ाना, या रेवड़ियाँ बांटने की नीति से क्या होगा, ये श्रीलंका में हाल ही में दिखा है।
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जब ऑक्सफेम जैसे संगठन ऐसी बात की पुरजोर वकालत करते हैं तो ये भी सोचना पड़ता है कि इन संगठनों का इतिहास क्या रहा है? थोड़े वर्ष पहले (2010 में) ऑक्सफेम के अधियारियों के एक सेक्स स्कैंडल की ख़बरें 2013 में सामने आने लगीं। इस वक्त मार्क गोल्डरिंग ऑक्सफेम के सीईओ थे। पूरे पांच वर्ष बाद जब ख़बरों की सच्चाई पूर्णतया प्रमाणित हो गयी और छुपाने-ढकने का कोई तरीका नहीं बचा तो मार्क गोल्डरिंग ने स्वीकारा कि भूतकाल में ऐसी घटनाएं हुई हैं।
हैती में आये भूकंप से पीड़ित (18 वर्ष से कम आयु की) लड़कियों को वेश्याओं की तरह बुलाने और जनहित के लिए मिले चंदे को खर्च करने के लिए ऑक्सफेम पर ये आरोप लगे थे। इनके सही साबित होने पर मार्क गोल्डरिंग ने इस्तीफा दिया था। ऐसे कारनामों के लिए कुख्यात संस्था किसी देश में राहत कार्यों के नाम पर क्या करती होगी, इसका अनुमान लगाना ही डरावना है। जब दानकर्ताओं को पता चला कि उनके दिए राहत के पैसे का इस्तेमाल ऑक्सफेम के कर्मचारी भूकंप पीड़ितों से वेश्यावृत्ति करवाने में खर्च रहे हैं, तो ऑक्सफेम को मिलने वाले दान में भी भारी कमी आई थी।
जाहिर है कि ऐसी किसी भी संस्था से भारतीय हितों के लिए काम करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऊपर से जब ऐसे अवसर पर ऐसी कोई रिपोर्ट आये जिससे “तीसरी दुनिया” कहलाने वाले कई देशों के बजट और करों के निर्धारण पर प्रभाव पड़े, विदेशी दबाव बनाया जा सके, तब तो शक होना स्वाभाविक ही है। बदलते भारत में अब ऐसे प्रयासों को आसानी से पहचान भी लिया जाता है। हो सकता है दो चार बार ऐसी कोशिशों में मुंह की खाने के बाद ये संस्थाएं भी अपनी हरकतें बदलें। तब तक दूसरों को सलाह देने के बदले अपने गिरेबान में झाँकने की सलाह तो ऑक्सफेम को दी ही जा सकती है!