देश की लोकतांत्रिक राजनीति में विपक्ष की स्थिति पिछले कई वर्षों से अच्छी नहीं है। कारण कई हैं पर सबसे बड़ा कारण यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नई राजनीतिक परिस्थितियों के लिए विपक्ष की तैयारी ऐसी नहीं रही है कि वह सरकार को चुनौती दे सके। दूसरा कारण है अधिकतर विपक्षी दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी का होना। अधिकतर दल परिवारवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले रहे हैं और उनमें ऐसे नेताओं को आगे आने का मौका नहीं मिलता जिन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया और लोकतांत्रिक राजनीति में आए बदलावों की समझ है। इसके परिणामस्वरूप अधिकतर विपक्षी दल औसत या औसत से नीचे की नेतृत्व क्षमता वाले नेताओं द्वारा चलाये जा रहे हैं।
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद शासन और प्रशासन की जिन विधाओं को महत्व देकर देश की राजनीति में स्थिर बदलाव लाए गए, अधिकतर विपक्षी दलों को न तो पहले से उन बदलाव की आदत थी और न ही उन्होंने ऐसे बदलाव की कल्पना की थी। उसके पहले तक अधिकतर राजनीतिक दलों ने शासन के प्रयोग से की जानेवाली राजनीति की कल्पना नहीं की थी और यही बदलाव अब उनके लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बदलाव को स्वीकार न कर पाना वर्तमान विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो रही है। ऐसे में एक पड़ताल इस बात की होनी चाहिए कि विपक्षी राजनीति आज कहाँ खड़ी है और इस बात की भी कि क्या यह राजनीति उस लोकतांत्रिक वैकल्पिक शासन का मॉडल प्रस्तुत करने लायक स्थिति में है जिसकी अपेक्षा उससे की जाती है।
पहले विपक्ष की लोकतंत्र में भूमिका और उसकी कार्यशैली को समझते हुए यह तय कर लेते हैं कि क्यों 15 दलों के गठबंधन को एक मजबूत विपक्ष का नाम नहीं दिया जा सकता है। विपक्ष को मजबूती देने के लिए कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ा दल जरूर है पर यह भी विपक्ष की भूमिका के उसी मौलिक प्रश्न से जूझ रहा है जिसपर अन्य पार्टियां खरी नहीं उतरती और यह प्रश्न है दल में आंतरिक लोकतंत्र की कमी का। यह मौलिक प्रश्न इस विचार से निकलता है कि आंतरिक लोकतंत्र लाये बिना कोई भी दल वर्तमान में बदली राजनीतिक परिस्थितियों के साथ तारतम्य बैठा ही नहीं सकता और इस मुद्दे पर केवल कांग्रेस पार्टी ही नहीं बल्कि तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, नेशनल कांफ्रेंस, एनसीपी, बीआरएस और अन्य कई दल खरे नहीं उतरते।
दूसरा प्रश्न है कि क्या अपनी वर्तमान शक्ल में यह संयुक्त विपक्ष शासन का कोई वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करने की स्थिति में है? कम से कम वर्तमान परिस्थितियों में तो यही कहा जा सकता है कि संयुक्त विपक्ष, जो फिलहाल संयुक्त नहीं है, के पास वैकल्पिक मॉडल के तौर पर एक ही राजनीतिक दर्शन है और वह है, किसी भी हाल में मोदी को सत्ता में वापस नहीं आने देना।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मोदी को फिर से सत्ता में नहीं आने देना जैसे राजनीतिक उद्देश्य को जनता शासन के वैकल्पिक मॉडल की तरह स्वीकार करेगी? ख़ास कर तक जब उसके सामने पिछले नौ वर्षों में नरेंद्र मोदी ने लगातार एक मज़बूत आर्थिक और प्रशासनिक मॉडल प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसा जो देश की राजनीति में कुछ हद तक स्थाई परिवर्तन लाने में सफल रहा है।
आख़िर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि विपक्ष की भूमिका केवल विरोध तक सिमट कर रह गई है। इस बात से भी शायद ही कोई इनकार करे कि विपक्ष की भूमिका केवल सत्तारुढ़ सरकार के विरोध करने की नहीं होती बल्कि विकल्प प्रस्तुत करना उसकी राजनीतिक और लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी है। वर्तमान सरकार के विरोधी दलों को विपक्ष का तमगा देने से पूर्व क्या हम इस मौलिक प्रश्न को उत्तर दे पा रहे हैं कि इनमें से कौनसे दल ने विपक्ष का वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया है?
क्या एक संयुक्त विपक्ष को कांग्रेस पार्टी द्वारा खोली गई मोहब्बत की दुकान जैसे राजनीतिक दर्शन के पीछे खड़ा होना गंवारा होगा? राहुल गांधी जिस GST को गब्बर सिंह टैक्स कहते रहे हैं, क्या सरकार बनाने के बाद उसे हटा देंगे? और अगर हटा देंगे तो क्या उन्होंने अभी तक यह बताया कि उसके लिये उनके पास टैक्स कलेक्शन का कौन सा वैकल्पिक मॉडल है? अभी तक विपक्षी दल जिस मुद्दे पर एकजुट होने में सफल रहे हैं वह है भ्रष्टाचार का मुद्दा। इस मुद्दे पर सारे विपक्षी दल एक-दूसरे को सहारा देते रहे हैं। ऐसे में जब ये मिलकर जनता के सामने जाएँगे तो क्या यह कहेंगे कि इनके सत्ता संभालते ही पहले से जारी भ्रष्टाचार मामलों की जाँच रोक दी जाएगी और केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर ही केस किए जाएँगे?
तीन तलाक, अनुच्छेद 370, सैन्य समझौते से लेकर ऐसे कई फैसले हैं जिसपर राहुल गांधी को समस्या है। क्या ऐसे में उन्हें मौका मिलता है तो वे इन्हें पुनःस्थापित करने के लिए कानून लाएंगे या जो महत्वपूर्ण सौदे हो चुके हैं उन्हें रद्द कर देंगे? हालांकि सत्ता परिवर्तन की कल्पना भी की जाए तो गठबंधन सरकार यह फैसले लेने में कितना कामयाब हो पाएगी यह अलग शोध का विषय है।
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मतदाता क्या यह सोच कर वोट देगा कि उसे मोदी को हराना है? वह वोट तो देगा विपक्ष की घोषणा, नीति, विजन या विचारधारा को देखकर। जब तक विपक्षी दल एंटी मोदी का एजेंडा प्रस्तुत करते रहेंगे वो मतदाताओं के सामने विकल्प नहीं रख पाएंगे। मोदी को हराना किसी भी प्रकार विपक्ष की वैकल्पिक अवधारणा का आधार नहीं बन सकता है। मोदी सरकार में हुए आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों का राजनीतिक दलों के पास क्या जवाब है। पिछले 9 वर्षों में हुए बदलावों को विपक्षी दल लोकतंत्र विरोधी और विकास विरोधी मानते हैं तो उसका आधार क्या है? और क्या सत्ता मिलने पर वे इन बदलावों को पुनःस्थापित कर देंगे।
समस्या को समझने का मूल आधार यही है कि राहुल गांधी विपक्ष के नेता के तौर पर यह बता रहे हैं कि मोदी सरकार के फैसले उन्हें नापंसद है। कायदे से उन्हें यह बताना चाहिए कि उनके पास मोदी सरकार की योजनाओं से बेहतर कौन सा विकल्प है। अगर वर्तमान सरकार की योजनाओं और फैसले को बदलना ही विपक्ष का लक्ष्य है तो क्या यह मानकर चलें कि भविष्य में सेंगोल फिर से किसी म्यूजियम में पूर्व प्रधानमंत्री की छड़ी बनकर रहेगा?
वर्तमान सरकार का विरोध पर्याप्त नहीं है। विरोध करने से अधिक विपक्षी दलों को वो विपक्षी मॉडल सामने रखने की आवश्यकता है जो वो केंद्र में देखना चाहते हैं। विपक्षी नेता जबतक वैकल्पिक सरकार का खाका सामने नहीं रखते उनका विरोध मात्र चर्चा में बने रहने का बहाना है।
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