इसे हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती ही कहेंगे कि सरकार के सबसे महत्वपूर्ण पॉलिसी स्टेटमेंट यानी बजट पर सरकार के समर्थक या सत्ताधारी दल के नेता दस में नौ नंबर दे सकते हैं और विपक्षी दल, उसके समर्थक या नेता उसी बजट को दस में एक या दो नंबर दे सकते हैं। कभी-कभी तो विपक्ष के लोग शून्य देकर बजट को ही खारिज कर देते हैं। बजट पर ऐसी प्रतिक्रिया विपक्ष की सोच और को दर्शाता है।
पर लोकतंत्र की खूबसूरती से आगे देखा जाए तो सामान्य तौर पर बजट पर प्रतिक्रिया साल दर साल अधिकतर नीरस और क्लीशे के दोहराव से पीड़ित होती गई है। हमारे नेता बजट पर अपनी प्रतिक्रिया बजट पढ़ने या उसे सुनने से पहले तैयार रखते हैं। मन में शायद यह सोचते हुए कि; इसे बनाने में क्यों इतनी मेहनत कर रहे हो? आखिर जाना तो इसे हमारी प्रतिक्रिया के डस्टबिन में ही है। विपक्ष माने या न माने पर किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के सबसे महत्वपूर्ण पॉलिसी स्टेटमेंट पर ऐसा करते हुए विपक्ष और उसके नेता कमजोर दिखाई देते हैं।
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वैसे आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए कि विकसित लोकतांत्रिक देशों की तरह हमारे बजट के भी हर पहलू का मूल्यांकन हो। अब यह काम सरकार अकेले तो कर नहीं सकती। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का तकाजा है कि इस मूल्यांकन में विपक्ष की हिस्सेदारी हो। कारण यह भी है कि विपक्षी नेताओं की एक या दो लाइन की प्रतिक्रिया बजट तो क्या बजट बनाने की प्रक्रिया के प्रति भी न्याय नहीं करती। ऐसे में आवश्यक है कि विपक्षी दल और उसके नेता बजट जैसे पॉलिसी स्टेटमेंट को लेकर गंभीर रहें और उस पर सरकार से आवश्यक प्रश्न पूछें।
पर प्रश्न यह है कि विपक्ष इस प्रक्रिया से खुद को अलग क्यों रखना चाहता है? क्या उसे यह डर है कि बजट पर सामान्य प्रतिक्रिया वाली राजनीतिक लफ्फाजी से आगे यदि विस्तार से चर्चा करने जाएगा तो पहले की सरकारों के कार्य सामने आने लगेंगे और लोग तुलनात्मक अध्ययन शुरू कर देंगे? विपक्ष को क्या यह डर है कि इस तरह का तुलनात्मक अध्ययन उसके “यह गरीब विरोधी बजट है” या “यह देश विरोधी बजट है” जैसी प्रतिक्रिया को धराशायी कर देगा? इसके पीछे कारण चाहे जो हो पर एक ठोस कारण यह है कि मोदी सरकार के आने के बाद से बजट बनाने, उसके प्रस्तावों के क्रियान्वयन और सम्बंधित खर्चे के हिसाब को लेकर पारदर्शिता बढ़ी है।
विपक्ष को चाहिए कि वो केवल बजट ही नहीं बल्कि हर सरकारी योजनाओं की समग्र विवेचना करने को लेकर गंभीर रहे। आखिर इस बात से विपक्ष भी असहमत नहीं होगा कि लोकतंत्र में एक वैकल्पिक आर्थिक नीति और योजना प्रस्तुत करना भी उसकी जिम्मेदारी है। पर शायद उसकी समस्या यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक आर्थिक योजना के नाम पर वह अभी तक मनरेगा या कांग्रेस की NYAY योजना से आगे देख ही नहीं सका है। वैकल्पिक आर्थिक नीति देने का काम गंभीर चिंतन और लगातार बदलते भारत के लिए नए आइडिया की मांग करता है जिसकी कल्पना और प्रस्तुतीकरण करने के लिए शायद विपक्ष के पास आवश्यक प्रतिभा, मेहनत और संसाधन की कमी है और फिलहाल विपक्ष इसकी भरपाई लफ्फाजी और प्रोपगैंडा को आउटसोर्स करके करना चाहता है।