नफरत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान, इस मोहब्बत की दुकान का अर्थ है कि मैं तुमसे नफरत करता हूं, तुम मुझसे नफरत करते हो, लेकिन मैं सबसे ज्यादा नफरत उससे करता हूं, इसलिए साथ मिलकर नफरत सॉरी… मोहब्बत की दुकान खोलते हैं।
अब यह सच्चाई अगर मतदाताओं के सामने स्पष्ट तरीके से रख दी जाए, तो शायद 23 जून को अपने-अपने प्राइवेट जेट्स में बैठकर पटना पहुंचे विपक्षी दलों के नेताओं को 2024 में सीधे जीत मिल जाती। लेकिन नहीं, हम तो रोयेंगे, किस बात पर? डेमोक्रेसी की हत्या हो गई है, हमें डेमोक्रेसी को बचाना है, हम देश बचाने आए है, इस dystopia में जी रहे नेता अब जल्द ही शिमला में एकजुट होकर शोक जताएंगे। लेकिन क्या ये नेता अपने गठबंधन के इतिहास को भूल चुके है?
आज हम बात करेंगे कि 2024 में कौन से विपक्षी नेता बाथरूम में बंद किए जाएंगे और कौन से नेता अपनी गाड़ी में छिपकर गठबंधन वाले नेताओं से बचेंगे। यह जानने के लिए हमें इतिहास की ओर चलना होगा क्योंकि तभी यह रणनीति समझ में आएगी।
जब भारत आज़ादी के 50 साल पूरे होने का जश्न मना रहा था उस समय केंद्र में भीषण राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह जश्न कुछ फीका पड़ गया।
आज, जिस तरह विपक्षी दलों द्वारा लोकतंत्र की हत्या, लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र मौका या फिर हमें एक साथ आना होगा क्योंकि देश को बचाना है, जैसे जुमले सामने आ रहे हैं, उस समय भी यही हुआ था।
तब इसी तरह से क्षेत्रीय दलों के सहारे यूनाइटेड फ्रंट और थर्ड फ्रंट बनाया गया था, जब कोई भी पार्टी लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने में सक्षम नहीं थी।
साल 1996 में भी ऐसा ही हुआ था जब 13 दिन में ही केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिरा दी गई थी और देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने पीछे के दरवाज़े से इस कारस्तानी को अंजाम दिया था।
कांग्रेस पार्टी को उस समय असम गण परिषद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), डीएमके, जनता दल, समाजवादी पार्टी, टीएमसी और टीडीपी का समर्थन मिला था।
गठबंधन भी हुआ और समर्थन भी मिला लेकिन सवाल उठा कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा?
इसके बाद वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनने के लिए कहा गया था। लेकिन कांग्रेसी दबाव को वे बखूबी जानते थे इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर बैठने से इनकार कर दिया और यहाँ से वहां छुपने को मजबूर हो गए।

जी हाँ, शुरुआत में वह दिल्ली के कैलाश कॉलोनी में अपने फ्लैट में छुपे रहे लेकिन यहाँ उनका आसानी से पता लगाया जा सकता था तो बाद में वो अपने नौकरशाह मित्र के घर पर जा कर छुप गए। फिर वह दिल्ली के रिंग रोड पर कार में घूमते रहे, इसलिए गठबंधन का कोई भी नेता उन्हें पकड़ नहीं सका। जिसके बाद उन्होंने घर वापसी तब की जब उन्हें पता चला कि प्रधानमंत्री पद के लिए एच डी देवगौड़ा को चुन लिया गया है।
प्रधानमंत्री पद के लिए वीपी सिंह पहली पसंद रहे, लेकिन उनके इंकार करने के बाद कई क्षेत्रीय नेताओं को भी इसका प्रस्ताव दिया गया जिसमें अगली पसंद मुलायम सिंह थे, लेकिन यहाँ लालू यादव समेत अन्य यादव नेताओं ने उनका समर्थन करने से इनकार कर दिया।
अब चारा घोटाले में नाम आने के बाद लालू यादव को तो प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता था, जिसके बाद जीके मूपनार और एम. करुणानिधि ने भी प्रधानमंत्री पद से इंकार कर दिया था। जिसके बाद देवगौड़ा को यह मौका मिला और वह प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुए। लेकिन यूनाइटेड फ्रंट की उनकी सरकार ज्यादा दिन टिक ना सकी, क्योंकि अप्रैल 1997 में सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने इस पर रोक लगा दी।

वे कांग्रेस पार्टी को फिर से खड़ा करना चाहते थे और गठबंधन सरकार के साथ तालमेल नहीं बिठा रहे थे। बाद में कांग्रेस के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान कई कहानियाँ बताई गई मसलन, जब तक सोनिया गांधी पार्टी पर कब्ज़ा नहीं कर लेतीं, तब तक सीताराम केसरी को बाथरूम में बंद कर दिया गया था।
खैर, 1997 से मार्च 1998 तक आई.के गुजराल ने यूनाइटेड फ्रंट सरकार के लिए प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। फिर उनकी सरकार गिर गई और यूनाइटेड फ्रंट ख़त्म हो गया।
तो देखा आपने किस तरह से कई पार्टियों के गठबंधन से बनी एक सरकार ख़त्म हो गई थी। ये तो इतिहास था लेकिन आज विपक्षी दल इसे फिर दोहराने की कोशिश कर रहे हैं।

23 जून को पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक की इतिहास से तुलना की जाए तो इसमें केवल समय और स्क्रिप्ट के कुछ पन्ने ही बदले हैं हाँ कुछ नए चेहरे ज़रूर जुड़े हैं लेकिन पैटर्न और समस्या वही है।
आम आदमी पार्टी की यह दिक्कत है कि वह तब तक कांग्रेस का समर्थन नहीं करेंगे जब तक वे केंद्र सरकार द्वारा लाए गए दिल्ली अध्यादेश के खिलाफ वोट नहीं करते। परिणामस्वरूप, अरविंद केजरीवाल सर्वदलीय बैठक में तो उपस्थित थे, लेकिन बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल नहीं हुए।
वहीं उद्धव ठाकरे की बात की जाए तो उन्होंने अपने पिता बाला साहेब ठाकरे, जो कश्मीरी पंडितों को सहायता प्रदान करने वाले पहले नेता थे, उनके आदर्शों का उल्लंघन करते हुए जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को दोबारा लागू करने में पीडीपी की महबूबा मुफ्ती का समर्थन करने की घोषणा की है।
यहाँ हर कोई प्रधानमंत्री बनने का सपना सजाए हुए है, इतिहास में तो चारा घोटाले की वजह से लालू यादव के सपनों पर पानी फिर गया लेकिन अब वह फिट हो गए हैं।
ममता बनर्जी, जिन्हे इतने सालों तक प्रचार करने की ज़रूरत नहीं पड़ी वह आज दीदी फॉर पीएम के रूप में प्रचार कर रही हैं। शरद पवार, राहुल गाँधी, एमके स्टालिन प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं और नीतीश कुमार को तो प्रधानमंत्री बनने से क्या ही आपत्ति हो सकती हैं।
आपको बता दे यूनाइटेड फ्रंट खुद को कितना भी यूनाइटेड क्यों ना पेश कर ले लेकिन यहाँ क्षेत्रीय पार्टियां है जो नहीं चाहती कि कांग्रेस राज्यों में चुनाव लडे। इसमें कई पार्टियां है जैसे टीएमसी, शिवसेना, एनसीपी, आरजेडी, एसपी और दक्षिणी पार्टियां भी शामिल हैं।
फिर भी इन पार्टियों में केवल एक ही चीज़ सामान्य है, वो है बीजेपी को हराना। क्योंकि ये पार्टियां यह वादा नहीं करती कि सत्ता में आने पर वह भारत के लोगों के लिए क्या करेंगी बल्कि मोदी को किस तरह से नीचा दिखाया जा सके इस का प्रदर्शन जरूर करती हैं।
ये विपक्षी दल ‘लोकतंत्र की हत्या हो गई है’ ऐसे जुमले का इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन ये भूल गए हैं कि कर्नाटक, हिमाचल, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में इन्ही की सरकार हैं तो हम इसे लोकतंत्र की हत्या कैसे मान लें ?
खैर देखना यही होगा कि यूनाइटेड फ्रंट कैसे भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ता है या आपस में लड़ कर फिर सिमट जाता है।
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