विपक्षी दलों की मीटिंग हुई। इस बार सोनिया गांधी ने कमान संभाली। उनका ऐसा करना तर्कपूर्ण भी था। आखिर भारत जोड़ो यात्रा राहुल गांधी ने की थी, न कि नीतीश कुमार ने। ऐसे में सत्ता तक पहुँचने का रास्ता भी राहुल गांधी के लिए बनेगा, न कि नीतीश कुमार के लिए। इसके अलावा पटना में हुई मीटिंग के बाद रास्ता बनाने के लिए आवश्यक संसाधन भी कांग्रेस पार्टी मुहैया करवा रही थी। उद्देश्य था नीतीश कुमार द्वारा बनाई गई विपक्षी एकता की जमीन पर कब्जा करना। यह बात नीतीश कुमार की चुप्पी में सुनाई दे रही है। नीतीश कुमार की बनाई जमीन पर कब्जे के लिए अनुभवी लालू प्रसाद की मदद ली गई। लालू जी की चर्चा आजकल वैसे भी जमीन के लिए ही हो रही है।
बेंगलुरु की मीटिंग के बाद जिस बात की सबसे अधिक चर्चा रही वह रहा गठबंधन का नाम। इण्डियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव अलायन्स, यानी INDIA. इस नाम पर कल से चर्चा हो रही है। यदि उद्देश्य नाम पर चर्चा करवाने का था तो गठबंधन इसमें सफल रहा है, यह बात और है कि इस नाम के लिए क्रेडिट लेने और देने की बहस शुरू हो चुकी है। वैसे नाम से एक बात साफ हो गई। वो यह कि भारतीय जनता पार्टी के विपक्ष में दलों पर अब सेक्युलर दिखाई देने का कोई दबाव नहीं है। यही कारण है कि गठबंधन के नाम में अब सेक्युलर शब्द के लिए जगह बनाने की आवश्यकता नहीं है। महा विकास अघाड़ी या बिहार के महा गठबंधन जैसे नाम से जो सोच शुरू हुई थी वह अब इस नये नाम के बाद मजबूत दिखाई दे रही है।
देखा जाए तो गठबंधन के लिए चुना गया यह नया नाम विपक्ष की रणनीति को धर्मांतरण के जरिए ईसाईयत फैलाने वाले उन संगठनों की नीति के समकक्ष खड़ा कर देता है, जो हिंदुओं को कन्वर्ट करने के लिए उन्हीं की संस्कृति, पूजा पद्धति, तरीके, भजन, रंगों वग़ैरह का सहारा लेते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि मोदी के विरोध में खड़े दलों के गठबंधन ने अपने नाम में सेक्युलर और डेमोक्रेसी जैसे शब्द इस्तेमाल न करके नेशनल और डेवलपमेंट जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। ये वही दल हैं जो न केवल नेशनलिज्म का विरोध करते थे बल्कि मोदी के आगे आज भी सिक्यूलरिज्म और डेमोक्रेसी को बचाने की कोशिश करते दिखाई देना चाहते हैं। इन्होंने इंक्लूसिव शब्द लिया है लेकिन उसे अगर नेशनल और डेवलपमेंट के साथ रख कर देखा जाय तो उन सब का अर्थ मोदी के सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की ही याद दिलाता है।
अपने लिए नया नाम खोजना विपक्षी दलों के इस गठबंधन की आवश्यकता भी थी और मजबूरी भी। नया नाम चुनने की यह प्रक्रिया कॉर्पोरेट स्ट्रेटेजी जैसी लग रही है। यह बात इसलिए भी समझ आती है क्योंकि राजनीति अब केवल नेताओं और राजनीतिक दलों का काम नहीं है। इसका अधिकतर हिस्सा आजकल आउटसोर्स है, फिर वो देसी लोगों को आउटसोर्स हो या विदेशी लोगों को। ब्रांड से अधिक महत्वपूर्ण ब्रांडिंग की भूमिका है।
जो नाम चुना गया है, या कहें कि मैन्युफैक्चर किया गया, उसकी आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि नेशनल एडवाइजरी काउंसिल, यूपीए-1 और यूपीए-2 ने शासन के नाम पर जो किया, बार-बार उस पर होने वाली बहसों के प्रभाव को कम किया जा सके। एक नया नाम धारण करने पर कोई भी गठबंधन तब तक विचार नहीं करेगा जब तक वह मजबूर न हो। यह इस गठबंधन की मजबूरी ही कही जाएगी कि उसके पास नया नाम रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। यह वैसा ही है जैसे परंपरागत मीडिया में निष्पक्ष पत्रकारिता करते जिन पत्रकारों और संपादकों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी थी, वे सभी आजकल इंटरनेट पर निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं।
नये बने इस गठबंधन में नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल को छोड़कर यूपीए के पूर्व के लगभग सभी सदस्य हैं। नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के नाम पर सुपर सरकार चलाने वाली सोनिया गांधी, चारा घोटाला और लैंड फॉर जॉब जैसे स्कैम देने वाले लालू प्रसाद, 2G स्कैम देने वाले ए राजा और पश्चिम बंगाल में टीचर भर्ती और अन्य घोटालों वाली ममता बनर्जी, सब इस नये गठबंधन में हैं। ऐसे में गठबंधन के लिए नया नाम तर्कपूर्ण है, यह बात और है कि यह प्रयास वैसा ही है जैसे स्थानीय लोग किसी टूटते हुए बांध को साड़ी से बांधने का प्रयास यह सोचते हुए करते हैं कि जब तक इंजीनियर साहब नहीं आ जाते, यह साड़ी पानी से उनकी रक्षा करेगी।
प्रश्न यह है कि नया नाम धारण कर लेना काफ़ी है? जवाब है नहीं। यदि केवल नाम के प्रश्न का मूल्यांकन किया जाए तो विपक्ष नरेंद्र मोदी की शर्तों पर खेलने के लिए तैयार दिखाई दे रहा है, यानी नेशनलिज्म और डेवलपमेंट पर। ये इस समय भारतीय राजनीति के ऐसे मुद्दे या कहें कि ऐसी शर्तें हैं जिन पर फ़िलहाल कोई नेता नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़ा होता दिखाई नहीं देता। नेता या नेतृत्व की बात करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले दस वर्षों में मोदी ने राजनीति को ही नहीं बल्कि चुनाव को भी नेतृत्व प्रधान बना दिया है। विपक्ष अब रिस्क लेकर नेशनलिज्म और डेवलपमेंट के उनकी पिच पर आ खड़ा हुआ है। विपक्ष नेतृत्व के रूप में देश को क्या ऑफर करता है, यह देश के लिए फ़िलहाल तो उत्सुकता की बात है। विपक्ष को यह नहीं भूलना चाहिए कि लड़ाई तभी तक है, जब तक उसके नेतृत्व को लेकर देशवासियों में उत्सुकता है। जिस दिन यह उत्सुकता नहीं रहेगी, विपक्ष की लड़ाई खत्म हो जाएगी।