पटना में हुई हलचल आगामी महीनों में बार-बार देखने को मिलेगी क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव पूर्व विपक्षी पार्टियां एक होने का प्रयास कर रही हैं। इसके लिए संयोजक के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुना गया है। संयोजक बनने से नीतीश कुमार की बांछे खिल गई है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि जिस प्रकार बैठक का नेतृत्व मिल गया उतनी आसानी से प्रधानमंत्री का चेहरा बनने का भी मौका मिलेगा।
नीतीश कुमार को उनके सपनों के साथ रहने देते हैं। पहले बैठक के समीकरण पर नजर डाल लेते हैं। पटना में हुई विपक्षी दलों की यह बैठक उनकी एकता का प्रतीक नहीं बल्कि एकता कायम करने का एक प्रयास है। इसमें आम आदमी पार्टी का नेतृत्व उनके विरुद्ध केंद्र के अध्यादेश पर कांग्रेस के समर्थन नहीं मिलने को लेकर नाराज हैं। इन्हें मनाने की जिम्मेदारी उद्धव-पवार को मिली है। दूसरी ओर उमर अबदुल्ला आम आदमी पार्टी से धारा-370 के उन्मूलन पर अपनी राय स्पष्ट न करने को लेकर नाराज हैं। ममता बनर्जी का कहना है कि जो जिस स्थिति में है वैसे ही साथ आ जाए क्योंकि साथ खड़ा होना आवश्यक है। कुल मिलाकर इस बैठक को आपसी गिला-शिकवा दूर करने के लिए आयोजन कार्यक्रम कहना अधिक बेहतर होगा।
फिर भी बैठक के समीकरण पर नजर डालें तो यह 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी का विकल्प बनने के लिए एकत्रित हुए हैं। बैठक में शामिल हुए नेताओं में एक पार्टी से नेतृत्व के स्थान पर 2 से 3 नेता शामिल हुए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष खरगे के साथ राहुल गांधी को तो आना ही था आखिर निर्णय तो वो ही लेंगे। वहीं, आम आदमा पार्टी, टीएमसी, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, शिवसेना (यूबीटी) से पार्टियों के महत्वपूर्ण नेता शामिल हुए तो लोकसभा चुनाव में ही नहीं पार्टी के भीतर भी नेतृत्व प्रदान करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
लालू ने भले ही विपक्ष का नेता राहुल गांधी को बताया हो पर यह आम राय नहीं है। हर पार्टी में दूल्हे तैयार बैठें हैं और राहुल गांधी फिलहाल चुनाव लड़ नहीं सकते। खैर, आम राय बनाने के लिए अगली बैठक शिमला में की जाएगी। इस बैठक में किस आम आधार पर फैसला होगा यह देखने लायक होगा। जाहिर है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 19.46% वोट शेयर मिला था जो बैठक में शामिल अन्य 14 पार्टियों के सामूहिक वोट शेयर से अधिक है। ऐसे में विपक्ष के नेतृत्व की बागडौर कांग्रेस अपने हाथ में चाहती है। पर प्रश्न यह है कि क्या विपक्ष की अन्य पार्टियां यह स्वीकार करने को तैयार हैं?
कांग्रेस का वोट शेयर भले ही इन दर्जन भर से अधिक दलों से अधिक हो पर पार्टी की देश भर में मिलाकर 52 सीटें ही हासिल की थी और यह सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सरकार बनाने के लिए तो 2019 के आंकड़े देखें तो इन सभी विपक्षी पार्टियों की सीटें भी पर्याप्त नहीं है जिन्होंने कुल 82+ सीटें ही हासिल की थी। इसमें शिवसेना-यूबीटी का आंकड़ा शामिल नहीं है। इन दलों का वोट शेयर पिछले चुनावों में 16.11 के करीब था। आम आदमी पार्टी जो आज अध्यादेश पर कांग्रेस को धमका रही है उसे देश में 1 सीट हासिल हुई थी। ऐसे में आंकड़ों के दम पर तो कोई विपक्ष का नेता अपने आपको खवैया नहीं बता सकता है।
संभव है कि फिर विपक्ष के चेहरे पर आम सहमति नेतृत्व क्षमता और वोट बैंक को ध्यान में रखकर की जाए। पर यह नेतृत्व क्षमता है किस के पास है, यह यक्ष प्रश्न है। कांग्रेस चाहती है कि विपक्ष के दल उसे जगह दे। जगह देने का अर्थ है कि स्थानीय दलों को अपना स्थान खाली करना होगा। इसपर राज्यवार नजर डालें तो विपक्षी एकता के लिए ऐसा बलिदान देने को कोई तैयार नहीं है। ममता बनर्जी एकता चाहती है क्योंकि वो बंगाल में अपने आपको समेट चुकी फिलहाल के लिए। उन्हें जगह खाली करने की आवश्यकता नहीं वो पहले ही बंगाल को बाहरी लोगों से खाली करवाने में लगी है। नीतीश कुमार ने 2019 का चुनाव एनडीए के साथ लड़ा था और कामयाब भी रहे थे। उसी का दंभ उन्हें अपने आपको प्रधानमंत्री का दावेदार मानने के लिए विवश कर रहा है, यह अलग बात है कि बिहार में अब बहार बदल गई है। ऐसे में नई परिस्थियों में वो किस प्रकार पुराने समीकरण दोहराएंगे, यह भविष्य को तय करने देते हैं।
समाजवादी पार्टी, एनसीपी, सीपीएम, झामुमो और शिवसेना (यूबीटी) जैसे कई स्थानीय दल हैं जो अपना स्थान रिक्त करके कांग्रेस को बामुश्किल ही दें। यह मुश्किल लोकसभा चुनाव ही नहीं, पार्टी के अंदर भी है। उद्धव ठाकरे पहले मुख्यमंत्री नहीं बनाने पर भाजपा से अलग हो गए थे। अब अपनी पार्टी से हाथ धो बैठे हैं। अभी वो पवार के साथ हैं पर फिर से पद नहीं मिला तो यह गठजोड़ अधिक लंबा चलने की संभावना क्षीण ही है।
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों का अपना कोर वोट बैंक मुस्लिम समुदाय से आता है। हालांकि यूपी के पिछले चुनावों में मुस्लिम वोट बैंक ने दोनों दलों को फायदा नहीं पहुँचाया है। ऐसे में यहां नेतृत्व के लिए संघर्ष तय है।
राजनीति में ऊंट किस करवट बैठता है इसका किसी को नहीं पता होता। अभी तो इसको समय दीजिए यह समीकरण हर बैठक के साथ बदलते रहेंगे। फिलहाल इतना कह सकते हैं कि विपक्ष की बैठक इसलिए संभव हो पाई है क्योंकि राहुल गांधी अब सिर्फ प्रचारक बन सकते हैं, प्रतिद्वंदी नहीं। राहुल गांधी कितनी भी मोहब्बत की दुकान खोल लें, उससे विपक्षी दल भी सौदा तब ही करेंगे जब उन्हें मनमुताबिक साझेदार बनाया जाए। विपक्षी दलों की बैठक में शामिल हुए अधिकतर नेता इसे मौके के रूप में इस्तेमाल कर स्वयं को कांग्रेस और विपक्ष का नेतृत्वकर्ता बनाने का प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस अभी भी यह बताने में लगी है कि सत्ता में नहीं रही तो क्या विपक्ष के सर्वेसर्वा तो हम ही हैं।
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