आज जब दक्षिणी चीन सागर में अमेरिका और चीन आमने-सामने हैं, तब हम बात कर रहे हैं चीन में ब्रिटिश उपनिवेश की। किस प्रकार से ब्रिटेन ने सभ्यता के नाम पर चीन की संस्कृति को ही अफ़ीम की लत में झोंक दिया। आज जो विस्तारवादी चीन है, वही कम्युनिस्ट राष्ट्र चीन अपने आप को पूरे विश्व से अलग क्यों सुरक्षित रखने के प्रयास करता है। उसके व्यापार और व्यापार के व्यवहार पूरे विश्व से अलग किस कारण हैं?
चीन के इतिहास में 19वीं और 20वीं सदी का शुरुआती दौर चीनियों के लिए उत्पीड़न और अपमान की सदी यानी Century of Humiliation के रूप में जाना जाता है। ये तब की बात है जब चीन ने अपने क्षेत्र और सांस्कृतिक गौरव, दोनों ही साम्राज्यवादी ताक़तों के आगे खो दिए थे। इस एक दौर ने चीन का अनुभव अपने भीतर और बाहरी दुनिया के साथ हमेशा के लिए बदलकर रख दिए।
उत्पीड़न की शताब्दी
चीन के उत्पीड़न के इतिहास की शुरुआत होती है 1839 से 1842 के दौर से जब पहला अफीम युद्ध हुआ और चीन की बुरी हार हुई। यही वो समय था जब हांगकांग को एक संधि के तहत चीन को ब्रिटिश साम्राज्य को सौंपना पड़ा। किंग राजवंश ने यूरोपीय शक्तियों द्वारा पराजित होने के बाद चीन पर थोपी गई कई अपमानजनक संधियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। और फिर इसने इस घाव से उबरने के लिए चीन के कम्युनिस्टों ने सहारा लिया कल्चरल नेशनलिज्म का, यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। देखते हैं कि आख़िर ये ओपियम वॉर का क़िस्सा क्या है और अंग्रेजों ने चीन की संस्कृति को बाज़ारवाद के ज़रिए कैसे तोड़ा।
अफ़ीम की चपेट में चीन का साम्राज्य
आपको याद होगा कि अमेरिका ने एक वक्त अफ़ीम के लिए अफ़ग़ानिस्तान का किस तरह से शोषण किया था। लेकिन वर्ल्ड हिस्ट्री में अफ़ीम सिर्फ़ एक नशे की खेती तक सीमित नहीं है। इसके लिए कई बड़े युद्ध हुए हैं, कई सभ्यताएँ इसकी चपेट में आईं। चीन भी एक समय इसी अफ़ीम के नशे की चपेट में था और जब तक वहाँ के राजा को इसकी भनक लगी तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। इस सबके पीछे था ब्रिटेन, जिसने सिर्फ़ अपने कारोबार के लिए चीन को अफ़ीम की चपेट में डाल दिया। और सिर्फ़ ब्रिटेन नहीं बल्कि ईसाईयत भी।
सोलहवीं शताब्दी में चीन और विदेशों के बीच व्यापार शुरू हुए। चीन का जिंग राजवंश बाहरी समाज से सीमित संपर्क चाहते थे, इसलिए सिर्फ़ केंटोन बंदरगाह को ही उन्होंने अंग्रेजों से व्यापार की अनुमति दी। ये तब की बात है जब अंग्रेज चाय के व्यापार को बढ़ावा दे रहे थे। चीन की शर्त थी कि वो बदले में सिर्फ़ चाँदी ही लेगा। जब ब्रिटेन को बिजनेस में लॉस होने लगा तो उन्होंने कलकत्ता और बंगाल से अफ़ीम की सप्लाई चीन करनी शुरू कर दी।
भारत से अफ़ीम की सप्लाई
भारत में अफ़ीम का इतिहास चीन और ब्रिटेन के व्यापार के व्यवहार से जुड़ा हुआ है। 18वीं शताब्दी के आख़िर वर्षों के दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से चाय और रेशम ख़रीद कर इंग्लैंड में बेचती थी। इंग्लैंड में चाय की लोकप्रियता बढ़ने से उनका चाय का व्यापार बढ़ने लगा। 1785 के आसपास इंग्लैंड में कई करोड़ पाउंड चाय का आयात हो रहा था, लेकिन अंग्रेजों का दुख ये था कि इंग्लैंड में ऐसी कोई चीज नहीं उगाई जाती थी जिसे वो चीन में बेच पाते।
जब अंग्रेज चीन में व्यापार कर रहे थे, तब चीन का साम्राज्य अंग्रेजों को संदेह से देखते थे। उन्हें शक रहता था कि ये व्यापार के ज़रिए उनके राष्ट्र में अपना शासन ना करने लगें। यही वजह थी कि वो चीन को पश्चिम के देशों के लिए खोलना नहीं चाहते थे।
अब चाय का व्यापार और उसमें मुद्रा का संतुलन अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन गया। चाय के बदले इंग्लैंड को चाँदी के सिक्के देने होते थे और चाय के बदले चाँदी के निर्यात से इंग्लैंड का ख़ज़ाना ख़ाली होने लगा था। लोगों में जब इंग्लैंड का ख़ज़ाना ख़ाली होने का भय सताने लगा तो अब वो चाँदी का ऑप्शन तलाशने लगे। वो एक ऐसी चीज चाहते थे जिस से वो चीन के बाज़ार में सौदा कर पाते।
चीन में पहली बार अफ़ीम १६वी शताब्दी के आरंभ में पुर्तगालियों के ज़रिए पहुँची थी। लेकिन तब ये सिर्फ़ दवा के रूप में इस्तेमाल होती थी। चीनी शासक इसकी लत को ले कर चिंतित थे। १८वीं शताब्दी के अंत तक पश्चिम के व्यापारी चीन में अवैध रूप से अफ़ीम लाने लगे। इसके लिए अंग्रेजों ने चीन के लोकल एजेंट्स पकड़े और उनके ज़रिए चीन के अंदर अफ़ीम की घुसपैठ करवाई।
1836 में ब्रिटिश इंडिया से हर साल 30000 अफ़ीम की पेटियाँ चीन पहुँचता था। अंग्रेज अपने देश में अफ़ीम नहीं ले गये, लेकिन चीन जैसे बाज़ार में इन्होंने इसका जमकर व्यापार करवाया। उधर चाय लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गई और चीन अफ़ीम की लत की शिकार हो गई। चाय ख़रीदने के लिए वो पैसा इस्तेमाल किया जाता जो अफ़ीम बेचकर कमाया गया था।
अंग्रेज चीन को ये यक़ीन दिलाते रहे कि वो उनके देश को अंग्रेजों जैसा बना देंगे, यानी वही ‘व्हाइट मैंस बर्डन’, कि जो भी सभ्यता कहीं पहुँचेगी वो अंग्रेजों के ज़रिए ही पहुँच सकती है और बाक़ी सारा विश्व किसी काम का नहीं।
चीन में अफ़ीम का व्यापार जारी रखने के लिए बंगाल में अंग्रेजों ने अफ़ीम की खेती शुरू की। जैसे जैसे बाज़ार बढ़ता गया, बंगाल के बंदरगाहों से अफ़ीम का निर्यात होने लगा। यहाँ बिहार और बंगाल में ज़मीन के मालिकों को दाल की जगह अफ़ीम उगाने के लिए कर्ज दिया जाने लगा। जैसे ही किसान लोन लेते, वो सरकार और जमीदार के बंधुआ मज़दूर हो जाते।
1839 में जब चीन बर्बाद होता गया तो चीनी सम्राट डोंग वोंग ने नशीले पदार्थ के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा की। इसके तहत पाबंदियाँ लगाई जाने लगीं। केंटोंन शहर की १३ फ़ैक्ट्री सील हुईं, इसमें अफ़ीम की २०००० पेटियों में मौजूद 1400 टन अफ़ीम नष्ट किया, अफ़ीम का व्यापार चाँदी के सिक्कों में ही होता था। चाँदी अंग्रेजों के पास चला जाता और चीन में चाँदी के भाव बढ़ते चले गए।
अब क्योंकि अफ़ीम अंग्रेजों की आमदनी का प्रमुख ज़रिया बन चुका था, इसलिए ब्रिटेन ने चीन की बग़ावत के बदले में अपनी नौसेना उतार दी। जून 1840 में सोलह युद्धपोत और 27 जहाज़ चीन के पर्ल रेवर डेल्टा में भेजे गए। 4000 लोगों के साथ नेमेसिस युद्ध पोत भी था। इस हमले के लिए चीनी तैयार थे लेकिन ब्रिटेन के हथियारों के आगे वो नहीं टीके। और सोचिए कि चीनी सैनिकों की हार में बड़ी वजह ये थी कि चीनी सिपाही अफ़ीम की लत की गिरफ़्त में थे। ब्रिटेन ने केंटोंन के किलों पर बमबारी की जिसमें 20-25,000 चीनी सैनिकों का नुक़सान हुआ। चीन बुरी तरह तबाह हो गया
अब चीन की हार के बाद बारी थी 1842 की संधि की। चीन को ब्रिटेन ने झुका दिया, ब्रिटेन के साथ साथ अब और भी ताक़तें चीन पर अतिक्रमण करने लगीं। हांगकांग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और बहुत से पोर्ट अंग्रेजों के लिए खोल दिये। 1842 से 1858 तक चीन में अफ़ीम का कारोबार तीन सौ गुना बढ़ गया था।
अंग्रेजों के इस रवैये से चीन के लोग अब बहुत नाराज़ हो गये थे। वो जानने लगे थे कि उनके साम्राज्य और संस्कृति को अंग्रेजों ने अफ़ीम के ज़रिए चौपट कर दिया है। धीरे धीरे कर छान का साम्राज्य अंग्रेजों से छुटकारा पाने के तरीक़े तलाशने लगा।
ब्रिटेन के ख़िलाफ़ चीन की बग़ावत
1857 में जब भारत में क्रांति हुई तब चीन में भी चीनी सरकार ने बाहरी लोगों की हत्या पर इनाम की घोषणा कर दी थी। चीन सिविल वॉर से बहुत कमजोर हो गया था, उधर फ़्रांस और ब्रिटेन की सेनाएँ चीन के ख़िलाफ़ एक हो गयीं। चीनी साम्राज्य की फिर हार हुई और फिर संधि हुई। अब अफ़ीम के व्यापार को वैध घोषित करने की बात हुई। इन संधियों का विरोध होने लगा। फ़्रांस और ब्रिटेन की सेना बीजिंग तक पहुँच गई। इसके बाद चीनी राजवंश के लोग संधि के लिए तैयार हो गये लेकिन अब संधि और भी महँगी पड़ी। फ़्रांस के पादरियों को चीन में कैथोलिक चर्च स्थापित करने का अधिकार मिल गया। ताइपिंग रिवोल्ट के बाद अंग्रेज जान गये थे कि चीनी उनसे नफ़रत करते हैं और उन्हें तोड़ना मुश्किल है। तो आख़िर ये विद्रोह था क्या?
ईसाईयत और ताईपिंग विद्रोह
ब्रिटिश शासन से अपमान के घाव सहने के बाद चीन पूरी तरह से अफ़ीम की गिरफ़्त में था। 1860 तक चीन राजशाही का पतन हुआ और ब्रिटेन की इसमें सबसे बड़ी भूमिका रही। ईस्ट इंडिया कंपनी विशेष रूप से चीन को निर्यात के लिए भारत में अफीम का उत्पादन कर रही थी। इसका पटना ब्रांड बाजार में सबसे उम्दा माना जाता था।
पहला और दूसरे अफीम युद्ध में चीन के समर पैलेस को लूट लिया गया, ब्रिटेन ने हांगकांग पर क़ब्ज़ा कर लिया। महारानी विक्टोरिया के ड्रग डीलरों ने चीन की सभ्यता नष्ट कर दी उसे अपमानित किया और जमकर लूटा।
ताइपिंग विद्रोह: चीन का सांस्कृतिक एकीकरण
अब बारी थी चीन के एकीकरण की। यूरोप में राजा को ईश्वर का दूत माना जाता था, जबकि चीन में सिर्फ़ राजवंश के लिए लोगों की श्रद्धा थी। यानी सारा चीन एक परिवार है और राजा उसका मुखिया। राजा अच्छे से काम करता तो लोग उसका साथ देते और ग़लत करता तो उसका विरोध भी करते।
जब वो किंग राजवंश को ब्रिटेन के सामने कमजोर देखने लगे तो वो उसका विरोध करने लगे। ये वो मौक़ा था जब चीन में लोगों का अपनी संस्कृति के लिए प्रेम जाग पड़ा। तब चीनी इकॉनमी का बड़ा भाग कृषि पर निर्भर था और देश की चाँदी अंग्रेजों के पास चली गई थी। ऐसे में एक क्रांतिकारी सामने आया था, जिसका नाम था हांग शियुक्वान।
अब ताइपिंग विद्रोह की बारी आई। इसका नायक बना हांग शियुक्वान। ये पढ़ा लिखा था। एक अमेरिकी प्रीस्ट के संपर्क में आने पर हाँग की विचारधारा बदलने लगी। हाँग ने प्रोटेस्टेंट ईसाइ धर्म अपना लिया। इसने अपना एक संगठन बनाया और राजा के विरुद्ध लोग इस से जुड़ते गये। हाँग ने ताइपिंग तिएन हुमो की स्थापना की जिसका अर्थ था ‘महान शांति की देवी का साम्राज्य’, इसने नानजिंग को अपनी राजधानी भी घोषित कर लिया।
1853 से इसने 16 प्रांतों पर अपना शासन चलाना शुरू कर दिया। बाहरी लोगों से ये दोस्ती रखता। जब तक ये ईसाई धर्म का प्रचार करते रहे तब तक उन्हें इस से फ़र्क़ नहीं पड़ा। हाँग जब मज़बूत होने लगा तो ब्रिटिश चौकन्ने होने लगे, वो चाहते थे कि कमजोर किंग साम्राज्य ही शासन करता रहे ताकि उनका व्यापार आसान रहे। ब्रिटेन ने इसके लिये किंग साम्राज्य को हाँग के ख़िलाफ़ उकसाया। अब ब्रिटेन और फ़्रांस ने इनके विद्रोह को दबा दिया।
अब देखिए कि असल में हुआ क्या था – ईसाइयों ने ही असल में सिविल वॉर के लिए ताईपिंग विद्रोह को उकसाया। उन्होंने इस हाँग नाम के एक स्कूल शिक्षक को अपना हथियार बनाया। उसे ये एहसास दिलाया कि वो यीशु मसीह का भाई है और खुद को ईश्वर द्वारा घोषित राजा घोषित करवा लिया। 1851 में उसने किंग साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, उसकी विचारधारा कम्युनिस्टों जैसी थी। उसके साथ किसान भी जुड़ने लगे। वो असल में सत्ता को उखाड़ने के लिए एक क्रांतिकारी नायक बन गया।
उसने कहा कि यीशु मसीह और वो परमेश्वर की संतान हैं’ यानी हाँग ख़ुद को जीसस का भाई बताने लगा। 1864 में चीन की शाही सेना ने अंग्रेजों और फ़्रांसीसियों की मदद से आखिरकार ताइपिंग विद्रोह की राजधानी नानजिंग को हरा दिया। उनका यह नेता मर चुका था, उसकी लाश को तोप के आगे लगाकर उड़ा दिया गया।
सांस्कृतिक जागरण से जागा चीन
ताइपिंग विद्रोह में बीस लाख लोग मारे गए, जिससे यह विश्व इतिहास का सबसे खूनी गृहयुद्ध था। लेकिन इसके बाद चीन में इस क़िस्म के कई विद्रोह हुए और इन सबके पीछे वहाँ के लोगों का सांस्कृतिक जागरण था। भारत की तरह नहीं, जहां जवाहर लाल नेहरू जैसे लोग ब्रिटेन से लड़ने के लिए अंग्रेजों से भी ज़्यादा अंग्रेज बनने निकल पड़े थे। वैसे भी नेहरू के बारे में एक प्रचलित मत है कि उनके सारे दोस्त यूरोपियन ही थे और वही उन्हें जमता भी था। सूट बूट लगाना, चकाचक टाई और वही लार्ड साहब वाला तरीक़ा।
यही वजह है कि पिछले साल कांग्रेसी नेता ‘पढ़े-लिखे सभ्रांत’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करते हुए कह रहे थे कि उन्हें डाइनिंग टेबल पर ख़ाना ख़ाना और चम्मच पकड़ना नहीं आता है। कारण? कारण यही है कि कांग्रेस आज भी ब्रिटिशक़ालीन ग़ुलामी में जी रही है, और सिर्फ़ कांग्रेस ही नहीं, यहाँ एक बड़ा वर्ग है जो अपनी सभ्यता पर गर्व नहीं करना चाहता।
उसे चीन का ये सौ साल का इतिहास याद नहीं रहता, लेकिन उसे साम्राज्यवादियों के जैसा अपना दिखावा ज़्यादा पसंद है, फिर चाहे बात पहनावे की हो या बोली-भाषा की। चीन की एक शताब्दी अंग्रेजों ने तबाह कर दी और उन्हें अपमानित किया, लेकिन आख़िर में जब चीन के लोग जागे तो वो अपनी सांस्कृतिक पहचान के दमन को देखकर ही जागे। अगर हम आज भी ख़ुद को देखें तो हम ग़ुलामी के घावों को अपने सीने पर चिपकाकर घूम रहे हैं। बाजारवाद हमारे रोज़ के जीवन में किस हद तक घुस चुका है ये आज की इस कहानी को दोबारा देखने और सुनने पर आपको ज़रूर अंदाज़ा आ सकेगा।