मणिपुर की घटनाओं को लेकर संसद ठप्प पड़ी है। अगर ये कहा जाये कि पिछले दो दशकों में लोकतंत्र संसद से कम और सड़क से ज्यादा चल रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उदारवादी विद्वानों का बड़ा तबका सड़क द्वारा लोकतंत्र को नियोजित किये जाने को ख़राब प्रवृत्ति मानता है और इस प्रवृत्ति को संस्थागत क्षय के रूप में देखता आया है। विद्वानों के अनुसार संसद की भारतीय लोकतंत्र में गिरती भूमिका प्रति सत्र गिरती हुई बैठकों की संख्या, विधायी कार्यों में लगे समय का कम होते जाना, और विधेयकों की संख्या में गिरावट के अतिरिक्त संसदीय बहस के गिरते स्तर और शून्य काल में पूछे गए प्रश्नों के मध्य व्यवधान के रूप में भी व्यक्त होती है। संसदीय कार्य में गिरावट की प्रवृत्ति को कई विद्वानों ने समझने का प्रयास किया है और इस प्रवृत्ति के पीछे की वजहें जानने के लिए हमें पिछले दो दशकों में भारतीय लोकतंत्र में आये परिवर्तनों पर गौर करना होगा।
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि जब संसदीय कार्य प्रणाली में गिरावट की बात की जाती है तो नेहरू युग को आधार बना कर की जाती है। इसलिए नेहरू युग में संसदीय प्रणांली के चरित्र को समझने की आवश्यकता है। नेहरू युग के समाप्त होने तक संसद में पहुंचने वाले अधिकांश नेता वो थे जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के उत्पाद थे और उनमें न्यूनतम उपनिवेशवादी और गांधीवादी अनुशासन की उपस्थिति से कोई इंकार नहीं कर सकता। इसके अलावा यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि इस दौर के अधिकांश संसद सदस्य सवर्ण जातियों में भी क्रीमी लेयर से आते थे और इस आधार पर नेहरूकाल की संसद को कुलीन संसद कहा जाये तो गलत नहीं होगा।
इसके अतिरिक्त नेहरुकाल में सामान्य जनता में भी नई-नई मिली आज़ादी को लेकर खुमार था और लोग वोट देने का अधिकार मिलने को लेकर ही अपने जनप्रतिनिधियों से संतुष्ट थे और जनप्रतिनिधियों को कठिन प्रश्नों में घेरना नहीं चाहते थे, या इस योग्य ही नहीं थे कि वो प्रश्न पूछ सकें। ऐसे कुलीन लोग कुलीन तरीके से एक दूसरे से खूब बहस किया करते थे तो इसमें कतई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन नेहरुकाल के बाद की संसद को नेहरुकाल की संसद से तुलना में रखना कतई उचित नहीं है क्योंकि नेहरूकाल खासकर आपातकाल के बाद संसदीय प्रतिनिधित्व का विस्तार हुआ और भारतीय संसद ने समाज की असमानता को व्यक्त करना शुरू किया। इसलिए संसदीय प्रणाली की गुणवत्ता को जांचने के लिए नेहरुकाल कहीं से भी उचित सन्दर्भ नहीं है।
भारत में लोकतान्त्रिक प्रतिनिधित्व का व्यापकीकरण आपातकाल के बाद होना शुरू हुआ और कालांतर में क्षेत्रीय दल उत्पन्न हुए। इस प्रक्रिया में १९९० के दशक में विशेष तौर पर तेजी आई और संसद में पिछड़ी और दलित जातियों के प्रतिनिधियों का हिस्सा बढ़ा। इसी प्रकार उदारीकरण के बाद ही आर्थिक सामाजिक कार्यक्रमों के द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, आय जैसे संकेतकों में तेज़ी से सुधार भी शुरू हुआ। १९९० के दशक में ही व्यापक चुनाव सुधार भी हुए जिसके चलते लोग अपने मताधिकार का कहीं ज्यादा स्वतंत्रता से उपयोग कर पाए और मतदान की प्रक्रिया पारदर्शी हुई। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ये उचित लगता है कि १९९० के दशक में संसद के व्यवहार को ही सन्दर्भ मान कर संसदीय कार्यप्रणाली की गुणवत्ता पर कोई टिप्पणी की जाए। १९९० के बाद के समय में एक प्रमुख बात यह हुई कि कांग्रेस पार्टी का भारतीय लोकतंत्र पर एकाधिकार हमेशा के लिए समाप्त हो गया। विद्वानों ने कांग्रेस पार्टी के पराभव को परोक्ष रूप से संसदीय प्रणाली में कुलीन संवाद के क्षरण के तौर पर तो जरूर देखा लेकिन इस क्षरण में कांग्रेस पार्टी के उत्तरदायित्व पर कभी चर्चा नहीं की।
लोकसभा सचिवालय के एक दस्तावेज के अनुसार १०वी लोकसभा (१९९१-१९९६) में लोकसभा के बर्बाद हुए कुल समय का प्रतिशत कुल लोकसभा के कार्यों में लगे समय का लगभग १० प्रतिशत था जो अटलबिहारी बाजपेयी (१९९९-२००४) से मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल (२००४-२००९) की अवधि में बढ़ कर लगभग २० प्रतिशत हो गया। इस सन्दर्भ में देखने पर यह समझ में आता है कि कांग्रेस ने सत्ता से बाहर होते ही सत्तासीन हुए विपक्षी दलों को न तो संसदीय आचरण सिखाया और न ही सीखने का मौका दिया। इस सन्दर्भ में कांग्रेस द्वारा अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री और सरकार पर की गयी टिप्पणियां महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री रहते हुए बाजपेयी साहब ने कई बार कांग्रेस को इस सन्दर्भ में सावधान भी किया। अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अटल बिहारी सरकार के खिलाफ जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग कांग्रेस द्वारा किया जाता रहा, उसका सन्दर्भ लेते हुए बाजपेयी साहब को एक बार कहना पड़ा था कि ऐसा लगता है कि शब्दकोष से ढूंढ ढूंढ कर शब्द निकाले गए हैं। इसलिए जो विद्वान पिछड़ी और दलित जातियों के बढ़ते प्रतिनिधित्व को संसदीय आचरण में गिरावट का जिम्मेदार मानते हैं उनको सदन के कामकाज की गुणवत्ता में गिरावट का श्रेय कांग्रेस को देने में संकोच नहीं करना चाहिए। मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में बीजेपी ने खुद को इतना संयत रखा कि सदन के समय को कांग्रेस के साथ प्रतियोगिता में ज्यादा बर्बाद नहीं होने दिया।
मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल (२००९-२०१४) के दौरान लोकसभा की कार्यवाही में बर्बाद हुए समय का प्रतिशत बढ़ कर लगभग ३५ प्रतिशत हो गया लेकिन ये बात समझने की है कि इस कार्यकाल में देश में बड़े घोटाले हुए और मंत्रिपरिषद के कई सदस्यों को न्यायलय की कार्यवाही के कारण इस्तीफे भी देने पड़े। घोटालों की जिम्मेदारी लेना तो दूर, कांग्रेस हमेशा ये कहती आयी है कि घोटाले के कोई सबूत नहीं मिले और सरकार को बदनाम करने के लिए विपक्ष ने अफवाहें उड़ाई लेकिन कांग्रेस के पास न्यायालय के आदेशों का कोई जवाब नहीं है। अभी-अभी कोयला घोटाले से सम्बंधित एक मामले में कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य को जेल की सजा सुनाई गई है। इसलिए कांग्रेस का भाजपा पर लोकसभा को बाधित करने का आरोप न्यायालय के निर्णय के कारण न केवल ध्वस्त हो जाता है बल्कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में लोकसभा का समय नष्ट करने की जिम्मेदारी भी कांग्रेस की हो जाती है। २०१४ के बाद से अब तक कांग्रेस फिर विपक्ष में है और संसद की कार्यवाही को लगातार प्रतियोगी रवैये से बाधित करती रही है जो कांग्रेस की लोकतंत्र के प्रति अवज्ञा को दिखाता है। २०१४ के बाद से ही कांग्रेस अपने कृतित्व को स्वीकार्य बनाने के लिए भाजपा सरकार पर लगातार अनेक आरोप लगाए हैं लेकिन इनमे से किसी आरोप को वह अपनी रैलियों के अतिरिक्त किसी जिम्मेदार मंच पर स्थापित नहीं कर सकी है। भाजपा के घोटाले सिर्फ राहुल गाँधी और उनके घरेलू मंत्रिमंडल के मन में ही होते रहे हैं। २०१४ के बाद से ही सत्र दर सत्र, कांग्रेस बनावटी मुद्दों का बहाना लेकर संसद की कार्यवाही को बाधित करते आई है और वर्तमान संसद सत्र इस बात का कोई अपवाद नहीं है।
इस संसदीय सत्र में भी कांग्रेस ने मणिपुर के मुद्दे को लेकर जिस तरीके से संसद को बाधित कर रखा है, वह पिछले बीस-तीस वर्षों के कांग्रेस के क्रियाकलाप को देखने पर कोई अपवाद नहीं दिखाई देता। यह देखने वाली बात है कि इस सत्र में कांग्रेस पहले एक विशिष्ट नियम के अंतर्गत बहस करना चाहती थी और कांग्रेस का उसी नियम के विपरीत आग्रह था कि प्रधानमंत्री पहले जवाब दें और फिर बहस हो। अब कांग्रेस सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाई है जिसको लोकसभा अध्यक्ष ने स्वीकार कर लिया है। ये अपने आप में सरकार द्वारा बहस की इच्छा दिखाता है। इससे भी अधिक अगर सरकार को मणिपुर पर बहस न करनी होती को सत्र की शुरुआत में प्रधानमंत्री ने मणिपुर का मुद्दा उठाया ही न होता।
इस प्रकार आर्थिक उदारीकरण के बाद के समयकाल में लोकतंत्र की गुणवत्ता में गिरावट के लिए कांग्रेस सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, चाहे वो सत्ता में रही हो या विपक्ष में।