सपा नेता अबू आजमी ने पिछले शनिवार (1 अक्टूबर, 2022) को बयान दिया कि देश के मुस्लिम ‘वन्दे मातरम्’ नहीं बोल सकते। यह बात उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के नवीनतम आदेश पर प्रतिक्रिया देते हुए कही, जिसके मुताबिक अब सरकारी कर्मचारी ‘हेलो’ के स्थान पर ‘वन्दे मातरम्’ बोलेंगे। महाराष्ट्र की शिंदे सरकार के मुताबिक इससे नागरिकों में जागरूकता भी बढ़ेगी।
वन्दे मातरम् पर बवाल
महाराष्ट्र सरकार ने आज (2 अक्टूबर, 2022) गाँधी जयंती के मौके पर इस एक अभियान की शुरुआत पूरे राज्य में की।
महाराष्ट्र के डिप्टी मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और सांस्कृतिक मामलों के मंत्री सुधीर मुंगटीवार ने आज वर्धा से इस यह अभियान शुरू किया। महाराष्ट्र सरकार के मुताबिक ‘हेलो’ पाश्चात्य संस्कृति का प्रतीक है, इसलिए इसके स्थान पर वन्दे मातरम् अधिक उचित होगा।
महाराष्ट्र सरकार के भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने वाले आदेश को विपक्ष का समर्थन नहीं मिल रहा है। विपक्षी कांग्रेस और एनसीपी के मुताबिक सरकार जबरन राष्ट्रवाद थोप रही है।
अबू आजमी का बयान
वन्दे मातरम् पर चल रही बहस में सपा नेता अबू आजमी ने बयान दिया कि महाराष्ट्र में पहले से ही ‘जय महाराष्ट्र’ बोलने का चलन है। उन्होंने कहा कि यह आदेश केवल ध्रुवीकरण करने के लिए दिया गया है क्योंकि मुस्लिम ‘वन्दे मातरम्’ नहीं कह सकते।
उन्होंने आगे कहा, “हम (मुसलमान) अपने देश से प्यार करते हैं लेकिन हम केवल अल्लाह के आगे सिर झुकाते हैं, हम ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान’ कह सकते हैं लेकिन कभी वंदे मातरम नहीं कह कहेंगे”।
अबू आजमी के बयान ने एक बार फिर मजहब बनाम मुल्क की बहस को पुनर्जीवित कर दिया है।
मजहब बनाम मुल्क की बहस
यह पहली बार नहीं जब देश में किसी बड़े नेता ने ‘वन्दे मातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने से इनकार किया हो।
मार्च 2016 में AIMIM के नेता वारिस पठान ने महाराष्ट्र के विधानसभा सदन में बयान दिया कि वह मर भी जाएं तो भी भारत माता की जय नहीं बोलेंगे। ध्यान देने बात यह है कि इस कुछ दिन पहले ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने बयान दिया था, “अब समय आ गया है जब हमें नई पीढ़ी को ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा”।
भाजपा नेताओं ने इस मामले पर साफ कहा कि राष्ट्रवादी नारों से किसी को भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।
2016 में ही दारुल उलूम देवबंद ने फतवा जारी करते हुए कहा कि मुस्लिमों को ‘भारत माता की जय’ नहीं कहना चाहिए, क्योंकि यह नारा इस्लाम के खिलाफ है।
वन्दे मातरम् पर विरोध की बात करें तो समय का पहिया घुमाकर हमें कई साल पीछे जाना पड़ेगा।
वन्दे मातरम् का इतिहास
“वंदे मातरम”, मूल रूप से बंदे मातरम् के रूप में उच्चारित, बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा 1875 में लिखी गई एक कविता है जिसे 1882 में उनके उपन्यास “आनंदमठ” में जगह मिली थी।
सन्न 1908 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिवेशन में सैयद अली इमाम ने बयान दिया था, “जब मैं देखता हूं कि भारत का सबसे उन्नत प्रांत बंदे मातरम के सांप्रदायिक नारे को राष्ट्रीय नारे के रूप में, सांप्रदायिक राखी बंधन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में सामने रखता है, तो मेरा दिल दुःख और निराशा से भर जाता है”।
1937 में कांग्रेस द्वारा “वंदे मातरम” को पहले दो श्लोकों तक सीमित करके आधिकारिक तौर पर अन्य तीन श्लोकों को मुसलमान-विरोधी के रूप में स्वीकारा गया। इसके बाद मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते अब कांग्रेस अपने हर अधिवेशन में वन्दे मातरम् के केवल 2 श्लोक ही गाने लगी। हालांकि 25 साल बाद इस मामले ने एक बार फिर तूल पकड़ा, जब 1973 में बॉम्बे नगरपालिका स्कूल में वन्दे मातरम् गाने पर आपत्ति जताई गई।
भारत ने हमेशा हर धर्म और पंथ का सम्मान किया है लेकिन राष्ट्रीय नारे, जिन्हे बोलते हुए कई स्वतंत्रता सेनानी खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल गए, उन पर किसी भी तरह का विवाद ना सिर्फ अशोभनीय पर निराशाजनक भी है।