राज्य चुनावों में पुरानी पेंशन स्कीम को सबसे प्रमुख और ज्वलंत मुद्दा बना दिया गया है। गैर-भाजपा दल सभी चुनावी राज्यों में यह वादा कर रहे हैं कि उनकी सरकार आने पर पुरानी पेंशन स्कीम को बहाल किया जाएगा।
वहीं इस वादे के पूरे होने के पीछे के आर्थिक पेंच कम नहीं हैं। चुनावी फायदा लेने के लिए कॉन्ग्रेस इससे पहले राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में और आम आदमी पार्टी पंजाब में पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने का फैसला कर चुकी है।
हालाँकि, स्कीम में कई पेंच होने के कारण अभी तक पुरानी पेंशन स्कीम को इन राज्यों में लागू नहीं किया जा सका है।
एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि पहले ही सरकारी कर्मचारियों को दी जाने वाली पेंशन का खर्चा, कर्मचारियों की तनख्वाहों से ऊपर निकल चुका है। इससे पहले भी चुनाव आयोग पार्टियों से यह कह चुका है कि यदि वे चुनावों में कोई वादा करते हैं तो उन्हें उसके आर्थिक पहलू को भी बताना पड़ेगा।
क्या है पुरानी पेंशन स्कीम और नई पेंशन स्कीम?
पुरानी पेंशन स्कीम के अंतर्गत राज्य एवं केंद्र सरकार के कर्मचारियों को उनके सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन के रूप में उनकी अंतिम तनख्वाह का 50% निश्चित रूप से मिलता था, जिमसें समय के साथ बढ़ोतरी होती रहती थीं।
यह पेंशन स्कीम, पूरी तरीके से सरकारी खर्चे के ऊपर निर्भर थी जिसमें किसी की सेवानिवृत्ति के बाद उसकी पेंशन का खर्चा आगे के करदाताओं को उठाना पड़ता था। वर्ष 2004 से पहले यह स्कीम पूर्ण रूप से लागू थी।
नई पेंशन स्कीम को पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा लाया गया था एवं यूपीए की सरकार द्वारा वर्ष 2004 में पूरी तरीके से लागू किया गया।
इस स्कीम के अंतर्गत कर्मचारियों को निश्चित 10% अपनी तनख्वाह से एक उनके पेंशन खाते में जमा करना होगा। जिसमें उतना ही पैसा सरकार अपनी तरफ से डालेगी। इसके अतिरिक्त कर्मचारियों को इससे जयादा भी अंशदान देने की सहूलियत रहेगी। इसी पैसे के आधार पर कर्मचारी अपनी सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन पाएंगें।
क्या है पूरा विवाद?
पुरानी पेंशन स्कीम की मांग कई कर्मचारी संगठन कर रहे थे। उनका कहना था कि नई पेंशन स्कीम से उनके भविष्य पर खतरा होगा।इस मुद्दे को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का सबसे पहला उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखने को मिला।
उत्तर प्रदेश के 2022 विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने वादा किया कि यदि सत्ता में वापस आते ही वह पुरानी पेंशन स्कीम को राज्य में लागू कर देंगें। हालाँकि इससे उन्हें कोई ख़ास राजनीतिक फायदा तो नहीं हुआ पर इस वादे को अन्य पार्टियों ने भी भुनाना आरंभ कर दिया।
आम आदमी पार्टी ने पंजाब में, कॉन्ग्रेस ने हालिया हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनावों में इसको मुद्दा बनाया। मुद्दे को और धार देने के लिए कॉन्ग्रेस ने छतीसगढ़ और राजस्थान में इसे लागू करने की घोषणा भी कर दी। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में इसे लागू करने की घोषणा कर दी। आर्थिक पेंचों की वजह से यह स्कीम फिर भी अभी तक लागू नहीं हो पाई है।
क्या कहता है आर्थिक पक्ष?
मुद्दा सरकारी कर्मचारियों के आर्थिक हितों के साथ जुड़ा होने के साथ ही साथ राज्यों और केंद्र के आर्थिक बजट से भी जुड़ा है।
पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने से राज्यों और केंद्र पर आर्थिक बोझ और बढ़ेगा ऐसा कई अर्थशास्त्री कह रहे हैं। यह दावा एक सरकारी रिपोर्ट में खरा भी उतरता है।
भारतीय लेखापरीक्षा एवं लेखा विभाग (CAG) की रिपोर्ट “युनियन एंड स्टेट फाइनेंसेस एट आ ग्लांस 2019-20” के अनुसार, वर्ष 2019-20 में केंद्र सरकार ने कर्मचारियों की पेंशन पर 1,83,954 करोड़ रूपए खर्च किए। जबकि इसके उलट केंद्र सरकार ने तनख्वाहों पर इससे कम 1,39,980 करोड़ रुपए खर्च किए।
ऐसे में दोनों के बीच का अंतर लगभग 44,000 करोड़ रूपए है। इसका आगे और बढना तय है। पुरानी पेंशन स्कीम के आने से इसमें काफी बढ़ोतरी होगी। केंद्र सरकार द्वारा यह खर्चा राजस्व खर्चे के एक भाग कमिटेड खर्चों के अंदर करती है। कमिटेड खर्चों में कर्जों का ब्याज भुगतान, तनख्वाहें और पेंशन आती है।
वहीं अगर राज्यों की बात करें तो गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य रहे जहाँ पेंशन का खर्चा तनख्वाह के खर्चे से आगे निकल चुका है। गुजरात ने अपने कर्मचारियों को ₹11,126 करोड़ रूपए तनख्वाह के तौर पर दिए वहीं पेंशन के ऊपर गुजरात का खर्चा ₹17,663 करोड़ था।
इसी तरह कर्नाटक में यह क्रमशः 14,573 और 18,404 था। इसी तरह पश्चिम बंगाल में यह आँकड़ा 16,915 और 17,462 था।
इसके अतिरिक्त कई राज्य ऐसे हैं जहाँ पर पेंशन और तनख्वाहों के बीच का अंतर काफी कम रह गया है और संभव है कि आने वाले समय में यह पेंशन का आँकड़ा तनख्वाह के आँकड़े को पार कर जाए। बिहार, उत्तर प्रदेश आदि इसका उदहारण हैं।
मुश्किल होगा पुरानी पेंशन स्कीम लाना
इन सब के बीच पुरानी पेंशन स्कीम का वापस लाना काफी मुश्किलों भरा काम होगा, भले ही तात्कालिक फायदे के लिए पार्टियां अपने घोषणा पत्र में इसका वादा कर रही हों कि इसको वापस लाया जा सकता है, पर आर्थिक समस्या इसमें सबसे बड़ी चुनौती होगी।
उन राज्यों में, जो कि भारी कर्ज में डूबे हैं और जिनका खुद का राजस्व बड़ी मात्रा में एकत्र नहीं हो रहा है, वहां पर इसका लाया जाना राज्य की आर्थिक व्यवस्था की ताबूत में आखिरी कील ठोकने जैसा होने वाला है।
पुरानी पेंशन स्कीम को यूपीए सरकार में योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी इस समय की सबसे बड़ी रेवड़ी बताया है। ऐसे में सवाल उठता है कि भला इस तरह के वादे कर के राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद अपना आर्थिक प्रबंध कैसे करेंगें?