भारत और रूस का द्विपक्षीय व्यापार इस वित्त वर्ष के पाँच महीनों में ही रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया है। यह तब हुआ है जब यूक्रेन और रूस के बीच भीषण लड़ाई चल रही है और अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी राष्ट्रों ने रूस पर व्यापार सम्बन्धी कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैं। रूस-यूक्रेन के बीच लड़ाई इसी वर्ष के फरवरी माह से जारी है, जिसके कारण वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गई थीं और अब भी ऊँचे स्तर पर ही हैं।
इस बीच रूस ने भारत एवं चीन जैसे देशों को सस्ता तेल देने की पेशकश की थी, जिसके बाद से भारत ऊर्जा की अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए रूस से लगातार कच्चा तेल खरीद रहा है।
अंग्रेज़ी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, चालू वित्त वर्ष 2022- 23 के मात्र पाँच महीनों (अप्रैल-अगस्त) के दौरान भारत-रूस का द्विपक्षीय व्यापार इससे पहले होने वाले वार्षिक व्यापार से भी ऊपर पहुँच गया। रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल से अगस्त माह के बीच यह व्यापार 18 बिलियन डॉलर से अधिक रहा।
ज्ञात हो कि प्रतिबंध के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदने के भारत के फैसले का पश्चिम के देशों में विरोध हुआ और सार्वजनिक मंचों पर भारत सरकार के पदाधिकारियों से प्रश्न पूछे गए।
पूर्व के वर्षों में क्या रहे हैं भारत-रूस व्यापार के आँकड़े ?
ऐसा नहीं है कि भारत और रूस का व्यापार इस संघर्ष के बाद से ही बढ़ा है। भारत, सोवियत रूस और फिर रूस से भी बड़े स्तर पर व्यापारिक सम्बन्ध रखता आया है। पिछले कई दशकों से रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा सहयोगी भी रहा है।
आँकड़ों की बात करें तो पिछले वित्त वर्ष यानी 2021-22 में द्विपक्षीय व्यापार लगभग 13 बिलियन डॉलर रहा, इससे पहले 2020-21 में यह लगभग 8 बिलियन डॉलर था। भारत और रूस के बीच व्यापार में अधिकतर रूस का पलड़ा भारी रहा है।
भारत रूस से रक्षा सामान, मशीनी उत्पाद एवं उर्वरक बड़े स्तर पर खरीदता रहा है, वहीं रूस भारत से मुख्य रूप से दवाएँ खरीदता है। इसके अतिरिक्त, रूस भारत से मेडिकल उपकरण, कपड़े, रत्न और ज्वेलरी जैसे समान खरीदता है।
इन्डियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने चालू वित्त वर्ष के पांच महीनों में करीब 17 बिलियन के उत्पाद रूस से आयात किए, वहीं लगभग 1 बिलियन के उत्पाद रूस को निर्यात किए।
क्यों एकाएक बढ़ा रूस के साथ भारत का व्यापार?
युद्ध प्रारम्भ होने से पहले भारत और रूस का व्यापार सामान्यतः मशीनी उपकरण, रक्षा उत्पाद एवं उर्वरक और दवाओं जैसी वस्तुओं तक सीमित था। भारत द्वारा आयात किए जाने वाले तेल का काफी छोटा हिस्सा ही रूस से खरीदा जाता था।
यूक्रेन और रूस के बीच मोर्चा खुलने के कारण पश्चिमी देशों ने रूस, जो कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऊर्जा का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता है, पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए जिससे वैश्विक बाजार में तेल की माँग अधिक और आपूर्ति कम हो गई। परिणामस्वरूप कच्चे तेल के दामों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई।
भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है तथा कच्चे तेल के लिए लगभग पूरी तरह से विदेशों पर निर्भर है। इन बढ़ी कीमतों से भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा क्योंकि एक विकासशील देश की अर्थव्यवस्था के लिए ऊर्जा सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अलावा डॉलर की बढ़ती कीमतों का भी असर हुआ क्योंकि कच्चे तेल का अधिकतर व्यापार डॉलर में होता है और भारत को तेल खरीदने के लिए अधिक डॉलर खर्चने पड़े।
इन सब से स्थानीय स्तर पर भी तेल की कीमतों में बढ़ोतरी होती है और चूँकि तेल की कीमतें देश में एक संवेदनशील मुद्दा है इसलिए इसका असर राजनीतिक, आर्थिक सभी आयामों पर पड़ा। भारत ने इस समस्या से निपटने के लिए रूस, जिस पर आर्थिक प्रतिबंध लगे हुए है, से तेल की खरीददारी जारी रखने का निर्णय लिया।
दरअसल रूस ने भारत समेत कई देशों को तेल के अंतरराष्ट्रीय स्तर के दामों में काफी छूट दी थी, जिसके कारण भारत, चीन आदि देशों ने तेल रूस से खरीदने का निर्णय किया। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार, रूस ने भारत को कच्चे तेल के दामों में $35 तक की छूट दी थी।
रूस ने भारत के साथ रूपये-रूबल में भी व्यापार की शुरुआत की जिससे डॉलर पर निर्भरता कम होने का भी रास्ता खुल गया। यही कारण है कि भारत का तेल आयात रूस से अप्रत्याशित रूप से काफी बढ़ा और मई आते-आते रूस भारत का दूसरा सबसे बड़ा तेल का आपूर्तिकर्ता बन गया।
अंग्रेज़ी समाचार पत्र द हिन्दू की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की कम्पनियों ने अपने कुल तेल आयात का 16% तेल मई के माह रूस से खरीदा। यह स्थिति अगस्त के माह में बदली जब आपूर्तिकर्ता के रूप में वापस सऊदी अरब ने दूसरे स्थान पर कब्जा किया।
टाइम्स ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने बढ़ी कीमतों के बीच रूस से तेल खरीदने का निर्णय लेकर कम से कम 35,000 करोड़ रुपए की बचत की। यूक्रेन-रूस संघर्ष प्रारम्भ होने से पहले भारत के तेल आयात में रूस का हिस्सा केवल 1% था जो बाद में बढ़कर 12% हो गया।
अमेरिका नहीं चाहता भारत-रूस के तेल व्यापार में बढ़ोतरी
वैश्विक स्तर पर बढ़ी कीमतों के बीच भारत का रूस से तेल खरीदना अमेरिका सहित पश्चिमी देशो को नहीं भाया। खरीददारी पर सलाहें देने के साथ ही कुछ देशों ने कड़े बयान भी दिए। अमेरिका की तरफ से कई बार इस तरफ संकेत मिला कि वह यह नहीं चाहता कि भारत रूस से तेल खरीदे।
समाचार एजेंसी रायटर्स में मार्च के माह छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने भारत की रूस से एकाएक बढ़ी तेल खरीददारी को नई दिल्ली को खतरों की तरफ अग्रसारित करने वाला बताया था। हालाँकि, अमेरिका को भारत की तेल खरीददारी नहीं बल्कि खरीददारी में एकाएक तेजी से समस्या थी।
वहीं यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमेत्रो कुलेबा ने भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने पर काफी विवादित बयान देते हुए कहा था कि “रूस द्वारा भारत को बेचा गया हर तेल का बैरल यूक्रेन के लोगों के खून को खरीदने जैसा है।” वह बात अलग है कि यूक्रेन कई वर्षों से पड़ोसी देश पाकिस्तान को लगातार हथियार बेचता रहा है।
हालाँकि, ब्रिटेन की तत्कालीन वाणिज्य मंत्री लिज ट्रस ने मार्च में भारत की रूस से खरीददारी पर कहा था कि ब्रिटेन भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने के निर्णय का सम्मान करता है। हम उन्हें नहीं बता सकते कि उन्हें क्या करना है।
भारत ने अमेरिका से स्पष्ट कहा- हमारे हित सबसे जरूरी
भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने का पश्चिमी देशों ने लगातार विरोध किया है। इस विरोध को लेकर किये गए प्रश्नों पर भारत ने अपना पक्ष एकदम स्पष्ट एवं मजबूती से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रखा है। भारत ने यह स्पष्ट कहा है कि हम अपनी ऊर्जा की जरूरतों के लिए आवश्यक और सही निर्णय करेंगे और जहाँ से हमें फायदा दिखेगा हम खरीदेंगें। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने लगातार भारत का पक्ष सशक्त रूप से रखा है।
इसी साल अप्रैल माह में भारत और अमेरिका के विदेश तथा रक्षा मंत्रियों के मध्य होने वाली 2+2 बैठक की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जयशंकर ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि हम जितना तेल रूस से एक महीने में खरीदते हैं उतना यूरोप एक शाम में खरीद लेता है।
वहीं, अगस्त माह में थाईलैंड के दौरे पर जयशंकर ने कहा था कि हम एक ऐसे देश हैं जिसकी जनता महँगा तेल नहीं खरीद सकती, हमारी अधिकतर आबादी काफी कम आय में गुजर बसर करती है और यह मेरा दायित्व है कि उनके लिए सबसे अच्छी डील की जाए। जयशंकर का कहना है कि हम अपनी ऊर्जा खरीददारियों को लेकर ईमानदार रहे हैं।
वहीं पिछले माह सितम्बर में जयशंकर ने अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के साथ बातचीत में कहा था कि तेल के ऊँचे दाम हमारी कमर तोड़ रहे हैं। विदेश मंत्री ने अपने पिछले बयानों में कहा है कि जब आप अपना पक्ष स्पष्टता से रखते हैं तो लोग भी इसे स्वीकार करते हैं।
तेल के मुद्दे पर भारत के विरोध में नहीं अमेरिका
भले ही अमेरिका यह ना चाहता हो कि भारत रूस से व्यापार बढ़ाए पर सच्चाई को समझते हुए अमेरिका ने इस मुद्दे पर काफी संभल कर बयान दिए हैं। मार्च में ही अमेरिका ने कहा था कि हम भारत की खरीददारियों को लेकर कोई रेखा नहीं खीच सकते।
वहीं अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को F-16 विमान के रखरखाव का पैकेज दिए जाने पर यह अनुमान लगाए गए थे कि ऐसा भारत के रूस से तेल खरीदने के दंड के रूप में किया गया हो पर अमेरिका ने इससे भी इनकार किया है।
अमेरिका ने भारत की खरीदारी को देखते हुए अभी तक भारत के विरुद्ध कोई भी आर्थिक या राजनीतिक कदम नहीं उठाए हैं। अगस्त माह में अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने भी भारत के रूस के साथ संबंधों के विषय में यथार्थवादी बयान दिया था।
प्राइस ने कहा कि हमने दुनियाँ भर के राष्ट्रों को देखा है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि किसी देश का अपने संबंधों को बदलना एक बल्ब के जलाने-बुझाने जैसा नहीं है। ख़ास कर उन देशों के लिए जिनके रूस से पुराने सम्बन्ध रहे हैं, विशेषकर भारत। विदेश नीति बदलने में काफी समय लगने वाला है।
तेल नहीं, यह मुद्दे बने हुए हैं अमेरिका-भारत में अविश्वास का कारण
तेल के मामले का भले ही पटाक्षेप हो गया हो, पर भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते एक समान नहीं रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति झुकाव इसकी मुख्य वजह बनता जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका पाकिस्तान की तरफ फिर से ध्यान दे रहा है।
सितम्बर माह में ही अमेरिका के द्वारा पाकिस्तान को F-16 विमान के रखरखाव के पैकेज देने के मुद्दे पर जयशंकर ने अमेरिका में ही कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि आप इन क़दमों से किसी को मूर्ख नहीं बना रहे।
एस जयशंकर की प्रतिक्रिया अमेरिका के उस दावे पर थी जिसमें उसने कहा था कि यह विमान रखरखाव पैकेज पाकिस्तान की आतंकियों के खिलाफ लड़ाई से लड़ने के लिए दिया जा रहा है। वहीं अमेरिका के पाकिस्तान में राजदूत डोनाल्ड ब्लोम ने भी पाक के द्वारा कब्जाए कश्मीर का दौरा किया था और उसे अपने ट्विटर पर ‘आजाद कश्मीर’ लिखा था। भारत ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई थी।
हाल ही में अमेरिका ने पाकिस्तान को 10 मिलियन डॉलर की अतिरिक्त सहायता देने की घोषणा भी कर चुका है, इससे पहले पाकिस्तान के लिए अमेरिका ने इस वर्ष 55 मिलियन डॉलर की राशि की मदद की घोषणा की थी। इन सब क़दमों को भारत के रणनीतिक विशेषज्ञ अमेरिका के कदमों को भारत पर दबाव डालने वाला मान रहे हैं।
इन सब बातों से यह तो साफ़ है कि जहाँ तक रूस और भारत के बीच व्यापार संबंधों की बात है, कोई भी वैश्विक शक्ति फिलहाल भारत पर दबाव नहीं बना सकती। पश्चिमी देशों को समझना और स्वीकार करना होगा कि भारत अब ऐसा नहीं रहा जिसके ऊपर आर्थिक या व्यापारिक दृष्टि से दबाव बनाया जा सके।
स्वतंत्र विदेश नीति को लेकर भारत का अपना सिद्धांत और दृष्टिकोण है उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने दृष्टिकोण और सिद्धांतों के आधार पर चले। भारत अब उन दिनों से बहुत आगे निकल आया है जब विकसित पश्चिमी देश भारत की केवल विदेश नीति ही नहीं बल्कि आर्थिक नीतियों पर दबाव डालते थे।