अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया संस्थानों को लेकर पूरे भारत में गहरा सम्मोहन देखने को मिलता है। वहां प्रकाशित-प्रचारित तथ्यों को संचारीय कूटनीति-रणनीति के नजरिए से देखने का बजाय, प्राय: उन्हें अंतिम प्रमाण-पत्र के रूप स्वीकार करने की हमारी प्रवृत्ति रही है। यह स्थिति तब है जब बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में ही इस बात को लेकर एक वैश्विक बहस चल पड़ी थी कि विकसित देश संचार-प्रवाह का न केवल रणनीतिक उपयोग करते हैं, बल्कि इसके जरिए अन्य देशों के हितों को नुकसान भी पहुंचाते हैं। मैक्ब्राइड आयोग ने न केवल संचार-प्रवाह के इस असंतुलन को रेखांकित किया, बल्कि इससे बाहर निकलने के कुछ उपाय भी सुझाए थे।
चार दशक बीत जाने के बाद वैश्विक संचार-प्रवाह अब भी कमोबेश यथावत बना हुआ है। हालांकि, इस दौर में अलजजीरा के उभार और सोशल-मीडिया के अस्तित्व में आने के कारण अब वैश्विक संचार प्रवाह में भी नए समीकरण जरूर उभरने लगे हैं। अलजजीरा के कारण जहां खाड़ी के इस्लामिक देश वैश्विक रणनीतिक-संचार के महत्वपूर्ण कारक बन गए है, वहीं भारत ने सोशल-मीडिया प्लेटफार्म्स के दुराग्रहों के बावजूद उनका उपयोग अपनी बात को दुनिया में पहुंचाने और विश्व में कहीं भी घट रही घटनाओं के आकलन के लिए किया है। यदि भारत की वैश्विक सूचना-प्रवाह में कुछ उपस्थिति और प्रभाव है तो मुख्यत: सोशल मीडिया के कारण ही है।
सोशल-मीडिया का रणनीतिक-संचार की दृष्टि से भारत में उपयोग बहुत संस्थागत और सुसंगठित नहीं है, फिर भी इतना प्रभावशाली तो है कि अब भारत को लेकर लम्बे समय से किया जा रहा दुष्प्रचार न केवल पकड़ में आ जाता है, बल्कि त्वरित प्रत्युत्तर देने की स्थिति में भी होता है। इसलिए अपने पूर्वाग्रहों और सतत दुष्प्रचार के बावजूद, जिन मीडिया संस्थानों के तथ्यों को असंदिग्ध माना जाता था, उनके सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है।
हाल के दिनों में यूरोपीय-अमेरिकी मीडिया संस्थानों के विषय-चयन और कवरेज के विश्लेषण से पता चलता है कि उनमें एक वैचारिक और राष्ट्रीय पूर्वाग्रह हावी है और यह तथ्य भी अधिक स्पष्ट होकर उभरा है कि बड़े मीडिया-संस्थान भी कई बार किसी रणनीतिक संचार अभियान का ’टूलकिट’ बनकर कार्य करते हैं।
8 मार्च, 2023 को न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित अनुराधा भसीन का आलेख भी वैश्विक संचार-प्रवाह में कार्य कर रहे पूर्वाग्रहों का सबसे नया और मजबूत प्रमाण है। आलेख पढ़ने से लगता है कि किसी ने अपने दुराग्रहों को करीने से सजाकर प्रस्तुत किया है। आलेख जिस मूलभूत मान्यता को लेकर आगे बढ़ता है और उसके लिए जिन तथ्यों का उपयोग करता है, वह पूरी तरह बेमेल और अर्द्धसत्यों पर आधारित है।
उदाहरण के लिए वह जम्मू-कश्मीर और भारत में मीडिया के बढ़ते दमन के अपने दावे को साबित करने के लिए लिखती हैं कि 1990 के 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में 19 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। तथ्यात्मक रूप से यह आंकड़ा बिलकुल सही है, लेकिन इसके लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराने की उनकी कोशिश समझ से परे है। इनमें से अधिकांश हत्याएं 1987 से 1995 के बीच हुई। यह वही समय है, जब जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी और कट्टरपंथी ने हिंदुओं के नरसंहार के अपने अभियान में चुन-चुनकर हत्याएं रहे थे। यदि कोई भी पत्रकार उनके वीभत्स कृत्यों को सामने लाने की कोशिश कर रहा था तो उसकी कोशिश की जा रही थी। उस समय मोदी अथवा उनकी सरकार कहीं भी परिदृश्य में नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर में पत्रकारों की हत्या का पहला बड़ा मामला तब आया था जब आतंकवादियों ने प्रसिद्ध वकील और साहसी पत्रकार प्रेमनाथ भट्ट की 27 दिसम्बर, 1987 को गोली मारकर हत्या कर दी थी। 19 फरवरी, 1990 के दिन जम्मू-कश्मीर में निष्पक्ष पत्रकारिता को तब सबसे बड़ा धक्का लगा था, जब कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक लास्सा कौल की आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद 1 मार्च, 1990 को जम्मू-कश्मीर सरकार में सहायक निदेशक, सूचना पुष्कर नाथ हंडू की हत्या कर दी थी। इसी तरह आतंकवादियों ने मोहम्मद सबा वकील की हत्या 23 अप्रैल, 1991 को, सैयद गुलाम नबी की हत्या 16 अक्टूबर, 1992 को, मोहम्मदी शफी की हत्या 3 अक्टूबर, 1993, गुलाम मोहम्मद लोन की हत्या 29 अगस्त, 1994 तथा मुश्ताक अली की हत्या 10 सितम्बर, 1995 को कर दी गई।
इन सभी हत्याओं के लक्ष्य बहुत स्पष्ट थे, आतंकवादी जम्मू-कश्मीर में अपने अनुकूल संचार-पारिस्थितिकी का निर्माण करना चाहते थे। इन हत्याओं के माध्यम से वह पत्रकारिता-जगत को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि उनके मंसूबों के विरुद्ध और नृशंस हत्याओं के खिलाफ कोई भी न जाए। जो समाचार पत्र उनके अनुकूल कार्य कर रहे थे, उन्हें न कभी धमकी मिली और न ही उनसे सम्बन्धित पत्रकारों की हत्याएं हुईं।
हैरत की बात यह है कि उस समय अधिकांश अखबारों ने इन हत्याओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर न तो देखने-समझने की कोशिश की और न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर कोई अभियान चलाया। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन हत्याओं के लिए संस्थागत रूप से किसी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश ही नहीं की गई। अब 20-25 वर्ष इन सभी हत्याओं के लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना हास्यास्पद पूर्वाग्रह ही माना जाएगा।
इसी तरह भारत में मीडिया का दमन साबित करने के लिए और जिन उदाहरणों को लिया गया है, वह तथ्यात्मक रूप से आधे-अधूरे हैं। सोशल -मीडिया पर इस आलेख पर बहस छिड़ने के बाद सूचना-प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने न्यूयार्क टाइम्स के इस लेख को शरारतपूर्ण और काल्पनिक ठहराते हुए और इसे भारत और उसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं तथा मूल्यों के खिलाफ दुष्प्रचार बताया।
सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा इस तरह के दुष्प्रचार पर औपचारिक प्रतिक्रिया देने का चलन नया लेकिन संचारीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि अब वैश्विक संचार-प्रवाह में भारत हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ रहा है, इससे भारत के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान में शामिल मीडिया-संस्थानों की निष्पक्षता और तटस्थता के लबादे को फेककर सामने आना पड़ रहा है। इस कारण, भारत अब अपने खिलाफ चलाए जा रहे दुष्प्रचार और उसके दायरे को पहचानने की बेहतर स्थिति में आ गया है। इसे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाना चाहिए क्योंकि रणनीतिक-संचार से परिचित लोग यह जानते हैं कि दुष्प्रचार के वास्तविक स्रोत और उसके दायरे की पहचान और उसकी विश्वसनीयता का क्षरण आधा युद्ध जीतने जैसा होता है।
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यह लेख डॉ जयप्रकाश सिंह द्वारा लिखा गया है। डॉ सिंह हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केंद्र में सहायक आचार्य और हायब्रिड वारफेयर के विशेषज्ञ हैं।