सबसे पहली जो विचित्र सी चीज दिख गयी होगी, वो ये थी कि मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड तीनों में करीब 60-60 सीटों पर ही विधानसभा चुनाव लड़े जा रहे थे। राज्य की सीमाओं और विधानसभा का निर्धारण, बाकि भारत की तुलना में देर से होने पर, थोड़ा अधिक सोच-विचार होने के कारण ऐसा हुआ होगा क्या? चुनावों में ही एक और बात जो दिखी वो थी मतदाताओं की संख्या। बाकि भारत और विशेषकर यूपी-बिहार जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में जब मतदान होते हैं तो मतदान का प्रतिशत 60 के आसपास होता है। जैसे-जैसे ये सत्तर की ओर बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे भाजपा की जीत की संभावनाएं भी बढ़ने लगती हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों में ये आंकड़ा काफी ऊँचा है। नागालैंड और त्रिपुरा में जहाँ ये 80 प्रतिशत से काफी ऊपर था, वहीं मेघालय में भी मतदान 80 फीसदी से बहुत पीछे नहीं था।
इसके लिए राजनैतिक दलों और नेताओं का मतदाताओं को जागरूक करना कारण माना जाए या स्वयं मतदाता का अपने अधिकार के लिए सजग होना, पता नहीं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वहाँ से पलायन करके लोग मजदूरी करने नहीं गए, इसलिए मतदाता वहीं थे और मतदान कर पाए।
मुद्दों की बात करें तो यहाँ भी वैसे मुद्दे दिखते हैं जो बाकि भारत में चुनावों के समय दिखते हैं। उदाहरण के तौर पर रोजगार एक मुद्दा होता है। गौर करने लायक है कि मीडिया और राजनीतिज्ञों का एक बड़ा वर्ग रोजगार और नौकरी को समानार्थक दर्शाता है। उत्तर-पूर्वी राज्यों के युवाओं को रोजगार शब्द की आड़ में नौकरी के लिए बरगलाना थोड़ा कठिन होता है। इन राज्यों में कई युवा ऐसा मानते हैं कि सभी को सरकारी नौकरियां नहीं मिल सकती। योग्यता के अनुरूप किसी कौशल का विकास किया जाये और उसके हिसाब से काम शुरू किया जा सके इसमें युवाओं की काफी रूचि थी, ऐसा चुनावी सभाओं में सुनाई देने लगा था। दो बड़े मुद्दे जो इन राज्यों में बाकि राज्यों से अलग रहे उनमें से एक है “बाहरी” का मुद्दा। यहाँ बाहरी लोगों का मतलब बांग्लादेशी घुसपैठियों से है। सिर्फ असम में ये मुद्दा होता है, ऐसा समझना एक बड़ी भूल है। मणिपुर और त्रिपुरा इत्यादि राज्यों के लिए भी घुसपैठ करके आ गए लोग एक बड़ी समस्या हैं। जो स्थानीय संस्कृति है, उसमें स्त्रियों को जो स्थान मिलता है उसकी तुलना में स्त्रियों की दशा घुसपैठियों में बिलकुल उल्टी है। इसकी वजह से टकराव होते हैं। जमीनों पर अवैध कब्जे को जैसे घुसपैठियों से मुक्त करवाया जा रहा है, उसका भी सकारात्मक प्रभाव इन क्षेत्रों में भाजपा के पक्ष में गया होगा।
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सीमाओं को लेकर राज्यों के बीच जो विवाद हैं, वो भी इन स्थानीय चुनावों का विषय होते हैं। मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय सभी से असम की सीमा का विवाद होता रहता है। हाल ही में इन्हीं विवादों में हिंसक झड़पें भी हुई थीं। इन विवादों के सिलसिले में राज्यों के बीच बैठकें भी होती रहती हैं। जिन राज्यों को गठित हुए काफी समय हो गया, उनमें से अधिकांश में ऐसे सीमा विवाद सुलझाये जा चुके हैं। इसलिए मध्य भारतीय राज्यों या उत्तर के राज्यों के लिए ये समझना कठिन हो सकता है कि राज्यों के बीच सीमा विवाद में भी हिंसक झड़पें हो सकती हैं। तृणमूल कांग्रेस, जिसे इन क्षेत्रों में मुंह की खानी पड़ी, उसके नेता ऐसी ही भावनाएं भड़काने के प्रयास में थे। मेघालय और असम के बीच करीब नौ सौ किलोमीटर की साझा सीमा है। चुनावों में जनता द्वारा सिरे से नकार दी गई पार्टी टीएमसी ने कहा था कि वो सत्ता में आई तो पिछले समझौते को रद्द कर देगी। एनपीपी ने असम सरकार के साथ सीमा विवादों पर एक ऐतिहासिक समझौता किया था। पिछले वर्ष असम पुलिस की फायरिंग में छह लोगों की मौत के बाद ये मुद्दा भी महत्वपूर्ण था।
स्थानीय मुद्दों में ही एक मुद्दा पर्यावरण से जुड़ा हुआ भी था। मेघालय में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कोयला खनन पर रोक लगा दी है। खनन जिन भी राज्यों में होता है, उन सभी जगहों पर इससे जुड़े माफिया और तस्करों का उदय हुआ है, ये कोई छुपी बात नहीं थी। मेघालय में, जहाँ रोजगार के बहुत अवसर नहीं हैं, वहाँ खनन के बंद होने से रोजगार पर भी असर पड़ता है। जब अवैध बताकर 2014 में राज्य में खनन रोका था, तब से इस पर लगातार विवाद रहे। जब कांग्रेस की सरकार थी, तभी 2018 में नेताओं से इस मुद्दे पर कुछ न करने पर जनता सवाल करने लगी थी। भाजपा ने चुनावी वादों में से एक वादा कोयला खनन दोबारा शुरू करवाने का किया था। सत्ता में जब एनपीपी की (भाजपा समर्थित) सरकार आई तो मामले को सर्वोच्च न्यायलय में चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायलय ने जनजातीय भूमि पर 2019 में खनन की अनुमति दे दी। इसके लिए संविधान के छठे अनुच्छेद में वर्णित उत्तर-पूर्वी राज्यों के विशेषाधिकार का हवाला दिया गया। इसकी वजह से भी इन क्षेत्रों में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ी है।
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इस पूरे क्षेत्र में मूलभूत संरचनाओं, रेल-सड़क इत्यादि के विकास का भी यहाँ की जनता पर प्रभाव रहा ही होगा। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि चुनाव स्थानीय हों, तो स्थानीय मुद्दे कैसे असरदार होते हैं, इसकी समझ भाजपा में दूसरे दलों से बेहतर है। बदलावों की आहट उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी महसूस की जा रही है और कहीं न कहीं ये नतीजे बता रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनावों में ऊँट किस करवट बैठने वाला है।