कॉन्ग्रेस पार्टी के मुख्यालय में दिवाली से पहले ही आतिशबाज़ी का दृश्य नज़र आ रहा था। 19 अक्टूबर (गुरुवार) का दिन कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए दोहरी खुशी लेकर आया। पहली, नव निर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में 80 वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी हुई। दूसरी, गाँधी परिवार के अध्यक्ष बनने से इंकार से लेकर गहलोत-पायलट की रार तक, लम्बे समय से चल रही यह जद्दोजहद आखिरकार समाप्ति हो गई।
अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के बीच सीधा मुकाबला था। खड़गे को गाँधी परिवार से समर्थन प्राप्त था तो शशि थरूर, प्रियंका वाड्रा के उम्मीदवार बताए जा रहे थे। खास बात यह है कि चौबीस साल बाद गाँधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को कॉन्ग्रेस अध्यक्ष चुना गया है। इससे पहले इस दल में अंतिम समय गाँधी परिवार से बाहर से अध्यक्ष सीताराम केसरी थे।
प्रश्न यह है कि क्या गाँधी परिवार कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद से दूर हो जाएगा?
कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से गाँधी परिवार का नाता बहुत पुराना है। स्वतंत्रता के पश्चात कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पहले चुनाव 1950 में हुए। ये चुनाव भी गाँधी परिवार बनाम गैर-गाँधी परिवार से जुड़ा हुआ रहा। उस समय पुरुषोत्तम दास टंडन तथा आचार्य कृपलानी के बीच मुकाबला था। टंडन सरदार पटेल के साथी माने जाते थे तो वहीं कृपलानी नेहरू समर्थित। यहीं से शुरू हुआ नेहरू-गाँधी परिवार और अध्यक्ष पद का एक नया सिलसिला।
पंडित नेहरू और अध्यक्ष पद
स्वतंत्रता के पश्चात पुरुषोत्तम दास टंडन कॉन्ग्रेस में एक बड़े नेता के तौर पर जाने जाते थे। माना जाता है कि टंडन सरदार पटेल के प्रिय थे लेकिन नेहरू से उनके विचार नहीं मिलते थे। अक्तूबर 1949 में जब नेहरू विदेश यात्रा पर थे तब सरदार पटेल ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए कॉन्ग्रेस की समिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को सदस्य बनाने का प्रस्ताव पारित करा दिया था लेकिन विदेश से वापस आते ही पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया। इस प्रस्ताव ने कॉन्ग्रेस में मतभेद पैदा किया।
इसके बाद हुए वर्ष 1950 के कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में टंडन विजयी हुए और नेहरू के प्रत्याशी आचार्य कृपलानी पराजित हो गए। इस हार से नेहरू इतने आहत हुए कि उन्होंने कार्यकारिणी में रहने से ही इंकार कर दिया। हालाँकि बाद में उन्हें मना लिया गया लेकिन कॉन्ग्रेस के अंदरूनी कलह का बीजारोपण हो चुका था।
डॉ महेश चंद्र शर्मा अपनी पुस्तक ‘दीन दयाल उपाध्याय: कर्तव्य और विचार’ में लिखते हैं कि ‘दल पर नियंत्रण करने के लिए आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हो गया , यह एक पार्टी का अंतर संग्राम था।’
अंततः स्थिति यह आई कि टंडन कॉन्ग्रेस व सरकार पर से पंडित नेहरू का प्रभाव समाप्त करने में विफल रहे। दरअसल, कॉन्ग्रेस ने उन्हें अध्यक्ष के तौर पर कभी अपनाया ही नहीं था। कालांतर में पंडित नेहरू के दबाव में आकर उन्हें अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद सरदार पटेल अस्वस्थ हो गए और 15 दिसंबर 1950 को पटेल के देहांत के साथ यह अध्याय यहीं समाप्त हो गया। परन्तु कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद चुनाव में यह अंतिम रार नहीं थी।
इंदिरा बनाम कामराज
बात है वर्ष 1959 की। फरवरी माह आते-आते इंदिरा गाँधी कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बन चुकी थीं लेकिन अगले ही वर्ष 1960 में इंदिरा की जगह कामराज अध्यक्ष बने। यह वही कामराज थे जिन्होंने 1963 में अपना कामराज प्लान लागू किया जिसके अंतर्गत सभी कॉन्ग्रेसी बड़े नेताओं को इस्तीफा देकर वापस संग़ठन के लिए कार्य करना था।
1964 में नेहरू की मृत्य के बाद कॉन्ग्रेसी नेताओं का एक गुट अधिक सक्रिय हो गया जिसे सिंडिकेट कहा गया। इसी सिंडिकेट के नेता थे कामराज जो 1964 से 67 तक कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद पर रहे। सरकार संग़ठन से जुड़े सारे फैसले सिंडिकेट द्वारा लिए जाने लगे थे । जिसमें इंदिरा गाँधी की राय शामिल नहीं होती थी। लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा के लिए यह सिंडिकेट चुनौती साबित हो रहा था।
इंदिरा 1967 का लोकसभा चुनाव बिना सिंडिकेट के समर्थन पर लड़ रही थी। और इस चुनाव में इंदिरा के जीतने का परिणाम यह हुआ कि सिंडिकेट निष्प्रभावी हो गया। इसके बाद सत्ता एवं कॉन्ग्रेस संग़ठन के केंद्र में नेहरू परिवार ही रहा। इंदिरा के बाद राजीव और उनकी मृत्यु के बाद नरसिम्हा राव बिना चुनाव के ही सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने लेकिन इस कहानी में एक बदलाव तब आया जब पार्टी अध्यक्ष पद का अगला चुनाव 20 साल बाद 1997 में हुआ। इस चुनाव में सीताराम केसरी, शरद पवार और राजेश पायलट के बीच त्रिकोणीय मुकाबला था। सीताराम केसरी को भारी मतों से जीत मिली हालाँकि उनकी यह जीत कुछ ही वक़्त में सिफर होने को थी।
सोनिया गाँधी बनाम कॉन्ग्रेस अध्यक्ष
1998 में हुए लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। सोनिया गाँधी भी इस प्रचार में सक्रिय रहीं लेकिन कॉन्ग्रेस के एक गुट ने इस हार का ठीकरा सीताराम केसरी पर फोड़ दिया था। जबकि सीताराम केसरी ने पूरे चुनाव में एक भी रैली को संबांधित नहीं किया था। कॉन्ग्रेसी नेताओं ने माना कि सीताराम केसरी के कमजोर नेतृत्व के चलते पार्टी को सोनिया गाँधी के प्रचार का फायदा नहीं मिल पाया।
यहीं से सीताराम को हटा कर सोनिया गाँधी को अध्यक्ष बनाने की पटकथा शुरू हुई। सीताराम केसरी पिछड़ी जाति के थे जिसका उल्लेख वह अपने भाषणों में भी किया करते थे। इससे सोनिया गाँधी नाराज़ होने लगीं। वर्किंग कमिटी की मीटिंग में सीताराम केसरी के विरोध के बावजूद प्रणब मुख़र्जी के नेतृत्व में अन्य नेताओं ने केसरी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। पार्टी में अपने खिलाफ माहौल बनते देख केसरी ने इस्तीफा दे दिया था और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का पद पुनः गाँधी परिवार के पास आ गया था। सोनिया गाँधी नई अध्यक्ष बनी।
हारने पर सीताराम केसरी की खोली थी ‘धोती’
बताया तो यह भी जाता है कि बैठक समाप्त होने के बाद ही सीताराम केसरी की नेमप्लेट उखाड़कर कूड़ेदान में फेंक दी गई और सीताराम केसरी 24 अकबर रोड को छोड़कर जा ही रहे थे तभी यूथ कॉन्ग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने उनकी धोती खोलने का भी प्रयास किया था।
सोनिया गाँधी का कार्यकाल शुरू होने के बाद ही वर्ष 1999 में शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गाँधी के खिलाफ बगावत की। वह इटली मूल की सोनिया गाँधी को भारत का प्रधानमंत्री बनाने के खिलाफ थे। बगावत की कीमत उन्हें पार्टी से बाहर होकर चुकानी पड़ी।
इसके बाद राजेश पायलट और जितेंद्र प्रसाद ने इस वंशवाद के खिलाफ अपनी नाराज़गी जाहिर की। राजेश पायलट ने सोनिया गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की इच्छा भी जाहिर की लेकिन इसके कुछ समय बाद ही उनकी एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई।
वर्ष 2000 में जितेंद्र प्रसाद ने वंशवाद के खिलाफ लड़ने की ठानी। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में उन्होंने सोनिया गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़ा। इस चुनाव में उन्हें बुरी हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव में 7,542 वोटों में से उन्हें सिर्फ 94 वोट मिले। इसके बाद वर्ष 2001 में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी थी।
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद पूर्ण तरीके से अब गाँधी परिवार के पास आ गया था। संगठन के इस पद को अधिक शक्ति तब प्राप्त हुई जब 2004 में कॉन्ग्रेस ने केंद्र की सत्ता में वापसी की।
मनमोहन सरकार और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष
2004 में कॉन्ग्रेस पार्टी की सरकार बनी जिसमें सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। कारण आज तक स्पष्ट नहीं हुए लेकिन माना जाता है कि इटली मूल की होने के कारण उन्होंने यह पद स्वीकार नहीं किया। यही बात कहकर भाजपा ने भी उनका विरोध किया था।
मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन शक्ति का केंद्र कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष पद ही रहा। यह विदेश दौरों समेत कई मौकों पर साफ़ देखा भी गया जहाँ प्रोटोकॉल के खिलाफ जाकर प्रधानमंत्री के बजाय कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी का स्वागत किया गया।
एक वक़्त तो ऐसा आया कि जब वर्ष 2013 में राहुल गाँधी ने मनमोहन सरकार द्वारा लाये गए फैसले को प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही फाड़ कर फेंक दिया। योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया अपने एक दावे में बताते हैं कि राहुल गाँधी के इस अध्यादेश फाड़ने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस्तीफा देना चाहते थे। यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा झटका था कि प्रधानमंत्री पद का अस्तित्व ही खतरे में नज़र आ रहा था। इसका परिणाम 2014 चुनावों में नज़र आया भी।
विपक्ष में कॉन्ग्रेस पार्टी
2014 के बाद कॉन्ग्रेस जहाँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी वहीं उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए प्रियंका वाड्रा भी सक्रिय राजनीति के लिए तैयार हो रही थी। फिर एक समय तो प्रियंका वाड्रा के पति राबर्ट वाड्रा के भी चुनावी पोस्टर भी नज़र आने लगे और उनके भी सक्रिय राजनीति में आने के कयास लगने लगे। यहाँ तक कि पिछले कुछ वर्षों में राबर्ट-प्रियंका के पुत्र रेहान वाड्रा भी चुनावी रैलियों में मंच पर नज़र आने लगे।
वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव तक आते आते भी कॉन्ग्रेस परिवार इसी उधेड़बुन में व्यस्त रहा। चुनावी परिणाम एक बार फिर उनके पक्ष में नहीं थे। राहुल गाँधी इस्तीफा देते हैं और सोनिया गाँधी फिर से अंतरिम अध्यक्ष बन जाती हैं। लेकिन क्या अध्यक्ष पद से इस्तीफा कॉन्ग्रेस पार्टी की समस्या का समाधान था?
गाँधी परिवार में अध्यक्ष पद एक खेल की भांति इधर से उधर सरकाया जाने लगा। वहीं, चुनावों में कॉन्ग्रेस के लगातार खराब प्रदर्शन के बाद कुछ बड़े नेताओं के द्वारा पार्टी के भीतर संगठनात्मक बदलाव की माँग तेज होने लगी। जिन्हे G-23 कहा जाने लगा। यह ग्रुप कॉन्ग्रेस हाईकमान से चिट्ठी लिख कर सवाल पूछने लगा। इन चिट्ठियों को कॉन्ग्रेस हाईकमान (गाँधी परिवार ) के लिए चुनौती के रूप में देखा जाने लगा।
इसका परिणाम यह हुआ कि G-23 का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया। गुलाम नबी आज़ाद, सिब्बल और जितिन प्रसाद ने इस्तीफा दिया तो मनीष तिवारी पार्टी के भीतर ही किनारे होते चले गए। एक बार फिर गाँधी परिवार ने कॉन्ग्रेस में अपनी सर्वोच्चता का प्रमाण दे दिया था।
कॉन्ग्रेस का भविष्य
स्वतंत्रता पश्चात, कॉन्ग्रेस पार्टी के 75 वर्षों के इतिहास को देखें तो शक्ति का एक ही ध्रुव नज़र आता है – नेहरू-गाँधी परिवार। चूँकि अध्यक्ष पद पर सदैव यह परिवार सत्तासीन रहा और यहीं से सभी फैसले लिए जाने लगे तो सम्पूर्ण कॉन्ग्रेस दल ने इसे अपनी नियति स्वीकार कर लिया। साथ ही, समय-समय पर इस परिवार को मिलने वाली चुनौतियों के हश्र ने भी भविष्य में सवाल पूछने की संभावना को समाप्त कर दिया। जो कि लोकतंत्र में अनुचित माना जाता है।
किसी दल का आंतरिक लोकतंत्र सिर्फ उस दल के लिए नहीं बल्कि पूरी जनता के लिए उत्तरदायी होता है। इसी से राजनीतिक दल के मूल्य तय किये जाते हैं और यही मूल्य जनता के लिए किये गए कार्यों में परिलक्षित होते हैं।
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के इस चुनाव में मल्लिकार्जन खड़गे जहाँ गाँधी परिवार की सर्वोच्चता का परिचय दे रहे थे तो शशि थरूर भी मात्र एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित होने के लिए चुनाव लड़ रहे थे। अब सवाल यह है कि नवनियुक्त कॉन्ग्रेस अध्यक्ष खड़गे अपने फैसले बिना गाँधी परिवार से प्रभावित हो कर ले पाएँगे?
क्या गाँधी परिवार कॉन्ग्रेस में अप्रासंगिक हो जाएगा? इन सवालों के जवाब तो भविष्य में ही मिल पाएँगे, लेकिन एक बात तो तय है कि सदियों से सत्तासीन रहे गाँधी परिवार का औपचारिक शक्ति के अभाव में भी शक्तिशाली बने रहने की दौड़ देखने लायक होगी। वहीं, एक दौड़ राहुल गाँधी भी दौड़ ही रहे हैं।