बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वर्ष, 2005 में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद अब तक करीब 15 वर्षों से अधिक समय तक इस पद पर रह चुके हैं। बिहार के विकास की बातें करके उन्होंने अपने लिए सुशासन बाबू के नाम का तमगा भी हासिल किया है पर विडंबना यह है कि वे अब भी बिहार के विकास की बात ही किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि बिहार के हर नागरिक के विकास के लिए पाँच वर्ष लगेंगे लेकिन यदि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिल जाए तो यह काम दो वर्ष में ही हो जाएगा।

अब यह हम पर निर्भर करता है कि नीतीश बाबू की इस बात को हम कैसे लें। उनकी बात को शब्दशः लिया जाए तो उनसे पूछा जा सकता है कि यदि बिहार के हर नागरिक को विकसित होने में मात्र पाँच वर्ष ही लगने हैं तो यह काम अब तक तीन बार हो जाना चाहिए थे क्योंकि पंद्रह वर्ष से तो वे ख़ुद मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में जिन आँकड़ों के आधार पर हर नागरिक के विकसित हो जाने के लिए पाँच वर्ष का समय चाहिए, वह तो उनके पास तीन बार आकर लौट गया।
यदि नीतीश कुमार की बात के दार्शनिक पक्ष को देखा जाए तो फिर हम वैसी ही प्रतिक्रिया दे सकते हैं जैसी ख़ुद नीतीश कुमार जी ने अपने बयान में कही है। मतलब यह कि बिहार के इतिहास को ले आयें। भारत का गौरव था, यहाँ चाणक्य हुए, चंद्रगुप्त हुए, गौतम बुद्ध को यहीं ज्ञान प्राप्त हुआ वग़ैरह वगैरह।
पर प्रश्न ये है कि इस दार्शनिकता से बिहार को क्या मिलेगा? राज्य के नागरिकों को क्या मिलेगा? वैसे भी नीतीश कुमार आजकल अल्ल बल्ल बकते रहते हैं। तो बात अल्ल बल्ल हो या दार्शनिक दर्जे की, बिहार का कोई लाभ तो होने से रहा।
अब प्रश्न ये है कि राज्य को विशेष दर्जा मिले या न मिले, नेतृत्व की उसकी आवश्यकता पक्की है। इस बात को लेकर किसी को कोई संशय नहीं है। दर्जा या दर्जा नहीं मिलना, संसाधनों के ऑप्टिमम यूटिलाइजेशन नेतृत्व की कुशलता पर निर्भर करेगा। आज बिहार को नेतृत्व देने वाले कैसे लोग हैं, इसे लेकर नीतीश कुमार के क्या विचार हैं, यह जानना भी आवश्यक है। बिहार का वर्तमान नेतृत्व पिछले एक वर्षों से अपनी पूरी ऊर्जा बिहार छोड़ देश का नेतृत्व संभालने में लगा रहा है। उसे कुछ पता ही नहीं कि राज्य में हो क्या रहा है। विश्वास नहीं तो यह वीडियो देख लें।
नेतृत्व की बात पर कौन नकार सकता है कि पिछले 15 वर्षों में नीतीश कुमार ने सुशासन बाबू से कुर्सी कुमार बनने का सफर तय किया है? अब बिहार के लिए विशेष राज्य की मांग इसी कुर्सी मोह के कारण है। यह कहा जा सकता है कि बिहार के लिए जमीनी कार्य करने और राज्य को विकास की राह पर लाने के लिए नीतीश बाबू ने कभी राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया ही नहीं।
वर्ष, 2022 ASER की रिपोर्ट के अनुसार बिहार के स्कूल, छात्रों और शिक्षकों दोनों की कमी से जूझ रहे हैं और पिछले चार वर्षों में सीखने का परिणाम बेहद कम और लगभग अपरिवर्तित रहा है। बिहार प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध राज्य है। कृषि के लिए उपजाऊ मिट्टी, जल संसाधन, मत्सय पालन और साथ ही प्राकृतिक गैस औऱ खनिज की भी राज्य में सराहनीय संभावाएं हैं।
बिहार बीमारू प्रकृति से नहीं बना है बल्कि राजनीतिक विफलताओं के कारण बना है। बिहार के 70 साल के इतिहास में 23 अलग-अलग मुख्यमंत्री हुए हैं और इनमें चार वर्षों से अधिक का कार्यकाल पूरा करने वाले सिर्फ 6 मुख्यमंत्री रहे जिनमें नीतीश कुमार का नाम भी शामिल है। ऐसे में राजनीतिक विफलता का दोषारोपण उन पर भी किया जाना चाहिए।
महागठबंधन से लेकर इंडि गठबंधन का सफर तय करके अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करने के प्रयास में नीतीश कुमार बिहार के विकास को भूल चुके हैं। उन्हें हर प्रशासनिक विफलता का उत्तर जाति जनगणना में खोज लिया है। उनके राज्य में सार्वजनिक योजनाओं में सामने आ रही धांधलियों पर उनके लापरवाह बयान उनके गैर-जिम्मेदाराना रवैए को दर्शाते हैं। जातिगत जनगणना करवाकर उन्होंने राज्य सरकार या योजनाओं में क्या बदलाव आएगा इसकी जानकारी नहीं दी है।
अब स्वयं को फिर से राजनीतिक चर्चा का विषय बनाने के लिए वे स्पेशल राज्य की मांग कर रहे हैं। नीतीश कुमार दरअसल आखिरी नेता होने चाहिए जो बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग करे।
जनता ने उन्हें भरपूर समय दिया था और उन्होंने इसका उपयोग महज कुर्सी पर बने रहने के लिए किया है। विशेष राज्य का दर्जा मांगने से पहले नीतीश कुमार को राज्य का राजनीतिक खिलौना बनाने के लिए माफीनामा जारी करना चाहिए।
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