शक्ति शासक के हाथ में हो, यह तो सही है पर शासक शक्ति को ग्रहण करने के लायक है भी या नहीं, यह देखना उससे भी अधिक जरूरी है। गलत हाथों में शक्ति राज्य के पतन का कारण बन सकती है। इसका जीता जागता उदाहरण है, बिहार। चाचा-भतीजे की सरकार में बिहार की जो अवनति हुई है उसका कोई जवाबदेह नजर नहीं आता है। जो जवाब आते हैं वे किसी जिम्मेदार के से प्रतीत नहीं होते हैं। इसका ताजा उदाहरण है भागलपुर में ध्वस्त हुए पुल का जो कि 2 वर्षों में दूसरी बार गिर गया है। पुल के अवशेषों को नदी में ढूंढ़ने में व्यस्त बिहार के कर्मचारियों के लिए यह भी एक मौसमी रोजगार का माध्यम माना जा सकता है जो हर वर्ष एक बार आ जाता है।
बहरहाल पूरे मामले में पुल गिरने से बड़ा हादसा बिहार सरकार के लापरवाही भरे रवैए का माना जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि ग़लत बन रहा था तभी तो गिर गया। यह बयान एक मुख्यमंत्री का कम और गिरे हुए पुल के बारे में किसी राहगीर का अधिक प्रतीत हो रहा है। शायद यही बिहार की राजनीति का स्तर भी हो चला है। विधानसभा में ‘जो शराब पीएगा वो मरेगा’ जैसे बयान देने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पुल ध्वस्त होने की व्याख्या मांगना दरअसल प्रश्न पूछने वाले की गलती मानी जानी चाहिए।
फिर भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के पद पर हैं। विशेषज्ञ नहीं तो जिम्मेदार तो बन ही सकते थे। पुल को बनाने में 1700 करोड़ से अधिक की लागत आई थी। यह नीतीश बाबू ने स्वयं के घर से निकाल कर तो दिए नहीं थे। ऐसा किस प्रकार संभव है कि जनता की मेहनत की कमाई के हजारों करोड़ पानी में डूब गए और मुख्यमंत्री के आराम में जरा भी खलल नहीं?
हाल ही में नए संसद भवन के निर्माण पर नीतीश सरकार सहित विपक्षी दलों ने अपने कुतर्कों के साथ कहा कि जनता की गाढ़ी कमाई प्रधानमंत्री अपने लिए भवन निर्माण में लगा रहे हैं। इस तर्क की क्षमता का आकलन न करते हुए बिहार के लोग आज अपने मुख्यमंत्री से यह प्रश्न जरूर पूछ रहे होंगे कि बिहार में पुल क्या अन्य देशों के लोगों की कमाई से बना था जिसकी जिम्मेदारी बिहार सरकार नहीं लेना चाह रही?
बहरहाल लापरवाही को ढकते हुए नीतीशबाबू ने जांच के आदेश दे दिए हैं। पर देखने वाली बात यह है कि जांच के आदेश पूर्व में भी दिए गए थे, जिसमें पुल निर्माण में लापरवाही की बात कही गई थी। इस संदर्भ में पुल नदी में कैसे गिरा, की जांच से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पुल निर्माण कार्य में कमी के बावजूद निर्माण जारी क्यों रखा गया था?
एक प्रश्न यह भी है कि मुख्यमंत्री जांच के आदेश दे ही क्यों रहे हैं जबकि उपमुख्यमंत्री का दावा है कि सरकार पुल स्वयं ही गिराने वाली थी।
पुल गिरने पर सरकार की ओर से सफाई तो आनी ही थी पर पुल निर्माण सही ढंग से नहीं हो रहा था, इसके पक्ष में तर्क तो मजबूती से रखे जा सकते थे। तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि सीबीआई को जांच क्यों दें उसमें कोई इंजीनियर थोड़े ही है। या तो बिहार के उपमुख्यमंत्री को सीबीआई जांच प्रक्रिया किस प्रकार कार्य करती है इसकी जानकारी नहीं है या वे जांच के परिणामों से बचना चाह रहे हैं। यही कारण है कि जांच का जिम्मा उन्हीं को सौंपा गया है जिन्होंने पिछली बार जांच रिपोर्ट दी थी और साथ ही तीसरी बार पुल बनाने का खाका भी तैयार कर दिया है।
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यह पुल दो बार गिर चुका है और सरकार ने इसे सामान्य घटना मानकर तीसरी बार बनाने का फैसला ले लिया है। यह तो तय है कि आगामी विधानसभा चुनावों में नीतीश सरकार पुल बनने की उपलब्धि गिना पाए या नहीं पर पुल के कारण हर वर्ष लोगों को रोजगार देने की उपलब्धि जरूर प्राप्त कर लेगी।
पुल ध्वस्त हो जाना किसी भी प्रकार से सामान्य घटना नहीं मानी चाहिए। इसमें मानव श्रम, संसाधन, कर राशि एवं पर्यावरण का नुकसान शामिल होता है। बिहार में ध्वस्त हुए पुल में जनता के रुपए तो बर्बाद हुए ही हैं साथ ही पुल के मलवे से गंगा नदी का जो पानी दूषित हुआ उसके जिम्मेदार कौन है? पुल गिरने से गंगा में डॉल्फिन अभयारण्य का जो नुकसान हुआ है उसपर बिहार के पर्यावरण मंत्री तेज प्रताप क्या बयान देंगे कि डॉल्फिन को भी बीजेपी ने मारा है?
1710 करोड़ रुपए की लागत से बन रहा पुल अगर एक बार गिर चुका था तो दूसरी बार संबंधित कंपनी (एसपी सिंगला कंपनी) को ही क्यों कॉन्ट्रैक्ट दिया गया? पहली बार पुल गिरने पर सिंगला कंपनी पर क्या कार्रवाई की गई? पहले की जांच में कमियां सामने आने के बाद भी पुल निर्माण क्यों किया गया? पर्यावरण के नुकसान की भरपाई कौन करेगा?
यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो फ़िलहाल अनुत्तरित हैं क्योंकि बिहार की सरकार जवाब देने में सक्षम नहीं है। दरअसल तर्क और तथ्यों को दरकिनार कर दें तो बिहार शासनकर्ताओं के जवाब में सबकुछ शामिल है। पुल को नजर लग गई, पुल को बीजेपी ने गिराया या गलत बना तो गिर गया।
बिहार सरकार भले ही जांच न करवाए पर गंगा नदी में डूबा पुल उनकी डूबती शासन व्यवस्था के प्रति आखिरी संकेत दे रहा है। 1710 करोड़ रुपए लगाकर 8 वर्षों में बिहार सरकार ऐसा पुल नहीं बना सकी जो अपनी जगह पर कम से कम खड़ा रह सके। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कब तक भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात करने वाले नीतीश बाबू अपनी कॉलर की सफेदी चमकदार बनाए रख पाते हैं।
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