देश भर में सेंगोल की चर्चा जारी है और हो भी क्यों न, इतना ऐतिहासिक क्षण जो है। ऐसा क्षण देश की आजादी के समय ही आया था जब प्रधानमंत्री को स्वन्त्रता के प्रतीक के रूप में सेंगोल सौंपा गया।
इससे जुड़ी बातें आप जान ही गए होंगे कि इसका इतिहास क्या था और कैसे सेंगोल को खूबसूरत रूप दिया गया।
इस बीच एक जो महत्वपूर्ण पहलू है, जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया हो, वह ये कि प्रधानमंत्री नेहरू को ये सेंगोल लार्ड माउंटबेटन द्वारा सौंपा गया था।
और ऐसा भी नहीं था कि इसके लिए प्रधानमंत्री नेहरू ने स्वयं से कोई दिलचस्पी दिखाई हो।
सत्ता हस्तांतरण से पहले वो लार्ड माउंटबैटन ही थे जिन्होने स्वयं नेहरू से यह सवाल पूछा कि आपकी संस्कृति में ऐसे ऐतिहासिक मौकों पर क्या परंपरा है?
आप सोचिए कि हमारे देश के स्वघोषित मुखिया बने लोगों को इस विषय से कोई मतलब ही नहीं था कि स्वतंत्रता के मौके पर अपनी संस्कृति का कोई तत्व शामिल किया जाए। पर ध्यान और ऊर्जा शायद प्रधानमंत्री बनने और सरकार बनाने पर लगी थी।
और जब पंडित नेहरू से पूछा भी गया तो उन्हें इस संबध में कोई जानकारी ही नहीं थी। वो तो भला हो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जिन्होंने ये सेंगोल का विषय समझाया।
हालाँकि लार्ड माउंटबैटन इस सुझाव से इनकार भी कर सकते थे और माउंटबैटन से अपनी मित्रता के कारण पंडित जी को इस इनकार से समस्या नहीं होती।
इस पूरे घटनाक्रम से तो यही प्रतीत होता है कि डिस्कवरी ऑफ इंडिया के लेखक होने के बावजूद माउंटबेटन को ऐसे अवसरों पर संस्कृति के महत्व की समझ पंडित नेहरू से अधिक थी।
वैसे इस बात की पुष्टि पंडित नेहरू ने स्वयं तब कर दी थी जब उन्होंने संस्कृति के इस महत्वपूर्ण प्रतीक सेंगोल को छड़ी के रूप में इस्तेमाल किया। कम से कम प्रयागराज संग्रहालय की इस तस्वीर से तो यही समझ आता है।
नेहरू परिवार ने अंग्रेज़ों से सत्ता तो हासिल कर दी थी लेकिन वह भारत के उस भाव को नहीं जान पाए जिसमें एक देश सैकड़ों वर्ष की गुलामी में रहकर भी अपनी संस्कृति के लिए लड़ता रहा। और भारत के संस्कृति को लेकर पंडित नेहरू की समझ की रक्षा उनके वंशजों ने अभी तक भरपूर की है।