सेंगोल, आज देशभर में यही चर्चा का विषय है। चर्चा का कारण इसलिए क्योंकि देश की संसद के नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर सेंगोल को संसद भवन के अंदर स्थापित किया जाएगा।
लेकिन विपक्षी दल ख़ुद को इस ऐतिहासिक अवसर का साक्षी बनने से क्यों रोक रहे हैं? उन्होंने इस कार्यक्रम का बहिष्कार क्यों कर दिया है?
आख़िर विपक्ष इतना विरोध में क्यों है?
ऐसा लगता है विपक्ष का विरोध प्रधानमंत्री से नहीं बल्कि मजबूत होते भारत के लोकतंत्र से है और संसद में सेंगोल की स्थापना उसी मजबूत होते भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है।
सेंगोल शासक, शासन और प्रशासन के कर्तव्यनिष्ठ और न्यायप्रिय रहने का प्रतीक और आदेश दोनों है। और यही सिद्धांत किसी आधुनिक लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभ हैं। साथ ही सेंगोल भारतीय संस्कृति सभ्यता और परंपरा के पुनर्जागरण का भी प्रतीक है।
आख़िर भारतीय लोकतंत्र में संस्कृति का ऐसा पुनर्जागरण पहले कभी हुआ हो, यह याद नहीं आता और इस पुनर्जागरण को मेनस्ट्रीम करने का सबसे बड़ा प्रयास प्रधानमंत्री मोदी ने किया है।
तो इस प्रयास से विपक्ष क्यों परेशान है?
यह कोई चुनावी यात्रा तो है नहीं या फिर ऐसा भी नहीं है कि सेंगोल स्थापित करने के इस कदम से कोई वोट बैंक भी प्रभावित हो रहा हो? तो फिर क्यों ?
दरअसल, विपक्षी दल जानते हैं यह कोई चुनावी स्टंट नहीं है लेकिन यह एक दूरगामी सोच है जिसमें भारतीय संस्कृति से देश को एकजुट और अधिक मजबूत किया जा रहा है।
जिससे भविष्य में इन विपक्षी दलों की पूरी राजनीति खटाई में पढ़ सकती है। खासकर उन दलों की जिनकी राजनीति दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत पर टिकी रहती है।
जैसे डीएमके को इस बात का भय हो सकता है कि दक्षिण भारत के शासन और धर्म के प्रतीक को यदि संसद में रखा जायेगा तो वह उसके उत्तर और दक्षिण को बाटने के एजेंडे के विरुद्ध होगा
यही प्रयास कांग्रेस के नेता राहुल गांधी पिछले कई वर्षों से करते रहे हैं। राहुल गांधी कई चुनावी भाषणों में दक्षिण को उत्तर से लड़ाने वाले बयान दे चुके हैं।
अब अलगाववाद की राजनीति करने वाली इन दलों को संसद भवन में जब भी सेंगोल एक प्रतीक के रूप में दिखाई देगा, वह केवल शासक को ही नहीं बल्कि नागरिक को भी बार बार आत्मचिंतन और जागृति के लिए प्रेरित करेगा।
तो क्या विपक्षी दल एक कर्तव्यनिष्ठ शासक और नागरिक से डरते हैं?