देश के लिए नया संसद भवन कई प्रश्न लेकर आया है। इसकी जरूरत और राजनीतिक महत्व सभी पर बात करने के लिए राजनेता से लेकर राजनीतिक विश्लेषक बैठे हैं। पर नये संसद भवन के बनने से क्या बदलाव आएंगे, इसकी चर्चा करने से पहले हमें इसपर बात करनी चाहिए कि यह क्या दर्शाता है और इसका भारत की समसामयिक परिस्थितियों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा।
इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई में चरखे का योगदान हथियार नहीं बल्कि उस भारतीयता के प्रतीक के तौर पर था जिसमें जनमानस ने विदेशी संसाधन त्याग कर भारतीयता को अपनाया। चरखे ने समाज को संगठित करके भारत से जोड़ने का काम किया था। दुख की बात यह है कि समय के साथ चरखे के साथ भारतीयता को लाने वाले महात्मा गांधी के प्रयोग को उन्हीं के अनुयायियों ने भुला दिया और आजादी के साथ भारत कई पहलुओं पर औपनिवेशिक बोझ के साथ आगे बढ़ता गया।
इसी औपनिवेशिक बोझ को पीछे छोड़ने के रूप में आज नया संसद भवन हमारे साथ है। यह भवन राजकार्य की व्यवस्था को सुदृढ़ तो बनाता ही है पर इसका सामाजिक और लोकतांत्रित व्यवस्था पर असर उल्लेखनीय है।
हाल ही में उपजी इंडिया बनाम भारत बहस के बीच भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का हस्तांतरण नए संसद भवन में हुआ जिसे उपनिवेशवादी बेड़ियों को तोड़ने के प्रतीक के रूप में भी देखा जाना चाहिए। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को सिर्फ शक्ति हंस्तातरण के रूप में देखा जाना क्या इसके महत्व को गौण नहीं कर देता? इस से कौन इंकार कर सकता है कि औपनिवेशिक शासन से मिली स्वतंत्रता के पश्चात महानुभावों द्वारा लोकतंत्र अपनाने के पीछे का लक्ष्य भारतीयता को अपनाना रहा होगा?
नए भारतीय संसद भवन का उदय उस प्रक्रिया का हिस्सा है जो हमें पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिली है। शासन और प्रशासन महकमे में लगी औपनिवेशिक जंग को हटाकर उसे सेवा प्रदाता की भूमिका में लाना इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। नौकरशाही व्यवस्था को सेवा प्रदाता व्यवस्था में बदलने के लिए किए गए बदलाव ही भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं।
इसमें चाहे कोविड के दौरान किया गया प्रबंधन हो जिसमें ऑनलाइन सेवाओं को बेहतर बनाने से संक्रमण के फैलावा को रोका गया हो या जनधन बैंक खातों के जरिए किए गए आर्थिक सुधार। जनधन बैंक खाते द्वारा गरीबों को अपनी बचत को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाने का एक अवसर प्रदान किया गया। गाँवों में अपने परिवारों को धन भेजने के अलावा उन्हें सूदखोर साहूकारों के चंगुल से बाहर निकालने में यह कारगार साबित हुआ। सिर्फ आर्थिक सुधार ही नहीं जनधन के साथ आए प्रशासनिक सुधारों ने जमीनी स्तर पर बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बुनियादी सुविधाएं यह दर्शाने के लिए सबसे सरल माध्यम है कि देश में प्रशासनिक स्तर पर किस प्रकार के सुधार किए गए हैं। पिछले नौ साल में लगभग 50,000 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण क्या प्रशासनिक सुधार और शासन द्वारा योजनागत निर्माण का सही उदाहरण नहीं है?
यह सभी प्रशासनिक बदलाव भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का उद्देश्य पूरा करते हैं। औपनिवेशिक मानसिकता, सामाजिक न्याय और आत्मनिर्भरता कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था आजादी के बाद से ही संघर्षरत रही है। नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना उन सभी कार्यों का विस्तार है जो लोकतंत्र में भारतीयता को सुनिश्चित कर रहे हैं। धार्मिक तुष्टिकरण और कथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर समानता की परिभाषा को छिन्न-भिन्न करने के बाद आज यह कहा जा सकता है कि समाज भी उस व्यवस्था का हिस्सा बनने को तैयार है जहां राजनीतिक लाभ के लिए समानता की परिभाषा न बदली जाए।
नई लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक दलों के लिए अवसर के समान है। दुनियाभर में इसके स्वरूप पर छिड़ी बहस में वह नेहरूवाद और कांग्रेसी कल्चर की परिभाषा दर्शा कर लोकतंत्र की रूप रेखा खींचने का प्रयास नहीं कर सकते। यह सच है कि सभी का लोकतंत्र में स्थान हो सकता है पर इसकी व्यवस्था की परिभाषा इतनी सीमित नहीं हो सकती कि एक व्यक्ति, नेता या दल में सिमट कर रह जाए।
बेशक भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में लंबे समय तक सत्ता में रहा दल अपने कार्यकाल की नजीर पेश करके लोकतंत्र पर अपना एकाधिकार जमाता रहेगा पर समय की मांग यह है कि इसे इस स्वरूप में समझा जाए किसी भी विशिष्ट दल की अनुपस्थतिथि में भी भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप यही होता। इसके अन्य स्वरूप की कल्पना न तो संभव थी न ही स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रहा जनमानस उसे कभी स्वीकार करता।
विडंबना यह है कि राजनीतिक दलों ने सत्ता मोह में लोकतांत्रिक व्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप को कभी छोड़ा ही नहीं। लोकतंत्र के लिए जिस संसद भवन से शक्तियों का संचालन किया जाना था वो एक परिवार में केंद्रित होकर रह गया। यही कारण रहा कि राजनीति के नाम पर अबतक भारत पीछे छूटता गया और परिवार आगे बढ़ने में कामयाब रहा।
नया संसद भवन परिवारवाद को पीछे छोड़कर लोकतंत्र को संपूर्ण रूप में अपनाने का प्रतीक है। यह भवन नई शासन प्रणाली और अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ देश की सेवा करने के लिए तैयार है। इसमें उपनिवेशवाद को बोझ नहीं बल्कि भारतीयता का उत्साह है। परिवारवाद, उपनिवेशवाद और जंग लगी नौकरशाही से बाहर निकलकर आज यह स्वयं संचालनकर्ता की भूमिका में आने को तैयार है।
दलगत राजनीति और निजी स्वार्थ से बाहर निकलकर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था यह तय करेगी कि उसे किसी दल की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं बल्कि देश के संचालकर्ता के रूप में स्वीकार किया जाए। नया संसद भवन तो बस इसका प्रतीकात्मक रूप है।
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