नेपाल में प्रचंड-ओली सरकार की वापसी, भारत के लिए अच्छा या बुरा?
कल, रविवार का दिन नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा सहित उनके समर्थकों के लिए निराशाजनक रहा। चुनाव परिणामों के बाद 136 सीटों के साथ सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरने के बावजूद देउबा प्रधानमंत्री नहीं बन सके। शुरू से ही जिसका अनुमान था वही हुआ। नेपाल की राजनीति में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मशहूर पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ तीसरे नंबर की पार्टी होने की बावजूद नाटकीय ढंग से प्रधानमंत्री बन गए।
प्रचंड ने राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से मुलाक़ात कर पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की। उन्होंने दावा किया कि उन्हें 169 सांसदों का समर्थन हासिल है जिसमें निर्दलीय सांसद भी शामिल हैं। सोमवार (26 दिसंबर, 2022) शाम को वह प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचंड को नेपाल का पीएम नियुक्त होने पर ट्ववीट कर उन्हें बधाई दी है।
अपने ट्वीट में प्रधानमंत्री मोदी ने लिखा, “भारत और नेपाल के बीच अद्वितीय संबंध गहरे सांस्कृतिक जुड़ाव और दोनों देशों के लोगों के आपसी संबंधों पर आधारित हैं। मैं इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए आपके साथ मिलकर काम करने की आशा करता हूं।”
क्या था नेपाल का चुनाव परिणाम
शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस एवं पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी माओवादी केंद्र सहित तीन अन्य दलों ने गठबंधन में यह चुनाव लड़ा था, जिसे चुनाव परिणाम में 136 सीटें मिली थी। सबसे अधिक 89 सीटें नेपाली कांग्रेस को एवं 32 सीटें प्रचंड की माओवादी केंद्र को। 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में बहुमत के लिए 138 सीटें चाहिए थी, अर्थात नेपाली कांग्रेस गठबंधन को बहुमत साबित करने के लिए दो सीटें और चाहिए थी।
वहीं दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी, नेपाल कम्युनिस्ट एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (यूएमएल) के नेतृत्व में मुख्य विपक्षी गठबंधन चुनाव लड़ रहा था। केपी शर्मा ओली ने दक्षिणपंथी दल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और मधेस की समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया था। जिनको कुल 104 सीटें हासिल मिली। केपी शर्मा ओली की पार्टी को 76 सीटें हासिल हुई थी।
किसी भी दल के पास पर्याप्त संख्या न होने के कारण चुनाव परिणामों के तीन सप्ताह बाद भी सरकार बनाने का रास्ता नहीं निकल पा रहा था। मामला प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर उलझा हुआ दिख रहा था।
मामला कहाँ उलझा?
नेपाली कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा और सीपीएन-माओवादी सेंटर प्रमुख पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के बीच लम्बे समय से सत्ता के लिए सहमति नहीं बन पा रही थी। प्रचंड चाहते थे कि पांच साल की सरकार के कार्यकाल को आधा-आधा बाँट दिया जाए और शुरूआती ढाई वर्ष के कार्यकाल में वह प्रधानमंत्री बनें लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा का मानना था कि बड़ी पार्टी होने के नाते प्रधानमंत्री का पद पहले उन्हें ही मिलना चाहिए। देउबा ने प्रचंड की इस मांग को अस्वीकार कर दिया था।
वहीं नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री ओली ने चुनाव परिणामों के बाद से ही प्रचंड से बातचीत जारी रखने के साथ सत्ता में साथ आने की संभावनाएं तलाशने का काम शुरू कर दिया था। इसका उन्हें फायदा भी मिला। इधर देउबा और प्रचंड का गठबंधन टूटा, उधर ओली के निवास स्थल पर बैठक बुलाई गई जिसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली विपक्षी सीपीएन (यूएमएल), सीपीएन (माओवादी सेंटर), राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी और अन्य छोटी पार्टियां प्रचंड के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के लिए सहमत हो गई। बैठक में तय किया गया कि शुरूआती ढाई वर्ष के कार्यकाल में प्रचंड एवं बाद के ढाई वर्ष के लिए ओली पीएम बनेंगे
यह पहली बार नहीं है जब प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बन रहे हैं।
प्रचंड का इतिहास
पुष्प कमल दहल 18 वर्ष की उम्र से ही माओवादी आंदोलन से जुड़ गए थे। नेपाल की शाही सरकार ने उनके खिलाफ वारंट जारी किया जिसके बाद वह कई वर्षों तक सरकार से छिपते और भागते रहे। 1990 के दशक में माओवादियों और सरकार के बीच समझौता होने के बाद वे बाहर आए और 1992 में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनाए गए।
68 साल के प्रचंड नेपाल में हुए सशस्त्र संघर्ष के नायक माने जाते हैं। माओवादी इस संघर्ष को एक ‘जनयुद्ध’ के रूप में देखते हैं क्योंकि यह संघर्ष नेपाल में राजनीतिक परिवर्तन का एक बड़ा कारण रहा है, जिसका उन्हें फायदा मिला। वर्ष 2008 में उनका पहली बार प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ लेकिन मधेशी आंदोलन के चलते 9 महीने के भीतर ही उनकी कुर्सी चली गई।
वर्ष 2016 में प्रचंड दूसरी बार प्रधानमंत्री बने लेकिन फिर संविधान को लेकर हुए आंदोलन के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद भी वह कई मौकों पर नेपाल की सत्ता में किंगमेकर की भूमिका में बने रहे। इससे पूर्व की ओली सरकार में भी वह सहयोगी थे लेकिन ओली के कार्यकाल में भारत के साथ कालापानी और लिपुलेख सीमा विवाद के बाद प्रचंड ने अपने 7 मंत्रियों से इस्तीफे दिलाए और ओली को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। अब 17 महीनों के बाद दोनों एक बार फिर साथ हैं।
यह नई सरकार कितनी चल पाएगी ?
यह प्रचंड की बड़ी महत्वकांक्षा का ही परिणाम है कि तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद भी वह प्रधानमंत्री बन रहे हैं। ज्ञात हो कि दो बार प्रधानमंत्री रहे प्रचंड 2008 से अब तक 6 बार पाला बदल चुके हैं। स्पीकर सहित महत्वपूर्ण मंत्रालय का बँटवारा अभी बाकी है।
पदों की इस रेस में ओली ने कुछ हद तक बाजी मार ली है। अगले महीने राष्ट्रपति चुनाव होने हैं और राष्ट्रपति उम्मीदवार इस नए गठबंधन में ओली की सीपीएन-यूएमएल से होगा। ज्ञात हो कि नेपाल संविधान के अनुसार राष्ट्रपति पांच वर्ष के कार्यकाल से पहले नहीं बदला जा सकता है।
इस नई सरकार का एक पहलू यह है कि सत्ता हेतु सात दल एक साथ एकजुट हुए हैं, जिसके बाद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि प्रचंड सभी दलों को लेकर कैसे आगे चलते हैं। नई सरकार के लिए नेपाल की राजनीति से बाहर विदेश नीति भी चुनौतीपूर्ण रहने वाली है।
ओली के पिछले कार्यकाल में विदेश नीति
वर्ष 2015 में ओली के पहले कार्यकाल में ही चीन की ओर उनका झुकाव देखा गया। वर्ष 2016 में भारत के साथ तनाव बढ़ते ही ओली सरकार ने कम्युनिस्ट राष्ट्र के साथ रणनीतिक संधि कर नया व्यापार मार्ग हासिल किया। फिर वर्ष 2019 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नेपाल का दौरा किया।
चीन का प्रभाव तब देखा गया जब नेपाल की राजनीति में चीन की राजदूत मध्यस्थ की भूमिका निभाती पाई गई। इसी बीच ओली के बयान भी उनका भारत-विरोधी रुख स्पष्ट कर रहे थे। चाहे राजनीतिक मजबूरियाँ रही हों या फिर कुछ और लेकिन यही वह समय था जब ओली यह दावा करते देखे गए कि ‘श्रीराम का जन्म नेपाल में हुआ था और भारत ने झूठा अयोध्या बनाया है’।
पिछले वर्ष कोरोना महामारी के बीच ओली ने यह भी कहा था कि ‘भारत का वायरस, चीन या इटली के वायरस से ज्यादा खतरनाक है’।
LAC पर भारत-चीन गतिरोध के बीच ही एक कदम आगे बढ़ते हुए ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने नेपाल का नया मानचित्र जारी किया, जिसमें भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल के हिस्से के रूप में दिखाया गया।
प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के बाद चीन के लिए यह सुखद होगा कि दोनों माओवादी दल साथ आ गए हैं। इस नए गठजोड़ के पीछे माओवादी केंद्र के नेता गुरुंग थापा की हालिया चीन यात्रा की भी भूमिका अहम मानी जा रही है।
भारत के साथ कैसे रहेंगे संबंध?
भारत के लिए देउबा का प्रधानमंत्री न बनना आकांक्षाओं के विपरीत माना जा रहा है लेकिन चूँकि ओली की जगह प्रचंड प्रधानमंत्री हैं इसलिए यह भारत के लिए अधिक चिंता का विषय नहीं है। पूर्व में सरकार में रहते हुए उनका रुख कभी भारत विरोधी नहीं देखा गया। हालांकि माओवादी नेता होने के कारण वह विचारधारा के तौर पर चीन की ओर नहीं देखेंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
किसी भी राष्ट्र की आदर्श विदेश नीति के अनुसार वह पड़ोसी देशों में स्थायी दुश्मन और दोस्त नहीं चाहता है। नेपाल भी अपने हित सर्वोपरि ही रखना चाहेगा। नेपाल की कोशिश रहेगी कि उसके भारत और चीन, दोनों देशों के साथ अच्छे संबध बने रहें।
हालांकि दो राष्ट्रों के संबंधों में ‘पीपल टू पीपल’ कनेक्शन महत्वपूर्ण होता है जो स्वाभाविक रूप से नेपाल और भारत के बीच अच्छे हैं और जिसका कारण ‘बेटी और रोटी’ का रिश्ता भी है। सरकार कोई भी हो, लोगों के बीच की भावनाएं सत्ता नहीं तय कर सकतीं।
नेपाल की नई सरकार को भारत के साथ अपने पुराने संबधों को आगे बढ़ाकर एक नई शुरुआत करनी चाहिए। हालाँकि शपथ ग्रहण के बाद प्रचंड की पहली प्रतिक्रिया से ही जान पाएंगे कि वह अपने पड़ोसी देश के साथ कैसा रिश्ता रखते हैं।
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