भारत और नेपाल दो ऐसे देश है जो केवल पड़ोसी ही नहीं बल्कि संस्कृति की धारा से भी जुड़े हुए है। इन संबंधों की बात की जाए तो भारतीयों और नेपालियों के बीच घनिष्ठ भाषाई, वैवाहिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध बड़े ही मज़बूत हैं। जिसे रोटी बेटी के रिश्ते का नाम भी दिया गया है।
लेकिन अब भारत और नेपाल के बीच सुरक्षा के मायनों को लेकर भी बातचीत शुरू हो गई है। यह बातचीत पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को लेकर है जो भारत और नेपाल के संबंधों के बीच एक कड़ी भी है। पोखरा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को लेकर नेपाल भारत की ओर मदद की उम्मीद से देख रहा है।
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ़ ‘प्रचंड’ की चार दिवसीय भारत यात्रा में बातचीत के तमाम मुद्दों में से एक मुद्दा इस हवाई अड्डे से संबंधित है। पिछले वर्ष दिसंबर में नेपाल के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड की यह पहली विदेश यात्रा है। जो असल मायनों में खास रही क्योंकि इसको लेकर प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि हम हमारी पार्टनरशिप को सुपरहिट बनाने पर कार्य कर रहे हैं।
क्यों महत्वपूर्ण है पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा
इसी वर्ष चीन द्वारा निर्मित नेपाल के पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन किया गया था जो चीनी सीमा से 85 किलोमीटर की दूरी पर है। वहीं भारत की सीमा से हवाई अड्डे की दूरी केवल 75 किलोमीटर है।
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स की मानी जाए तो उद्घाटन के 5 महीने के अंदर भी एयरपोर्ट पर फ्लाइट्स का आवागमन नहीं हो पा रहा है। इसको लेकर सिविल एविएशन एक्सपर्ट्स का भी कहना था कि यह एयरपोर्ट अधिक यातायात को आकर्षित करने में सक्षम नहीं होगा और भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। ऐसे में नेपाल के लिए यह एक बड़ी समस्या बन कर सामने आ सकता है। क्योंकि इस हवाई अड्डे को नेपाल ने चीन के एक्जिम बैंक से 215.96 मिलियन डॉलर के लोन के साथ बनाया था।
ऐसे में हवाई अड्डे के सुचारू रूप से उपयोग में न आने के कारण यदि नेपाल चीन को लोन का री-पेमेंट नहीं कर पाता है तो चीन हवाई अड्डे पर कब्जा कर सकता है और इसे अपने विशेष सैन्य चौकी के रूप में उपयोग कर सकता है।
पोखरा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के मामले में चीन की सीएएमसी इंजीनियरिंग कंपनी ने निर्माण का टेंडर हासिल किया और एक्जिम बैंक द्वारा नेपाल को लोन दिया गया, जिससे लगभग पूरा पैसा चीनी कंपनी के खजाने में चला गया।
मामला वही, तरीका वही, और चीन की आदत भी वही ! थर्ड वर्ल्ड कन्ट्रीज या डेवलपिंग कन्ट्रीज पर अपना दबदबा बनाए रखने और वर्ल्ड ट्रेड रूट पर अपना स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स प्रोजेस्ट कम्पलीट करने का यह चीन का तरीका बहुत पुराना है। चीन यही काम श्रीलंका के हंबनटोटा पोर्ट के मामले में भी कर चुका है।
अब भारत अपने पड़ोसी नेपाल और अपने आप को इस द्रुत प्लान से कैसे बचा सकता है ?
वहीं भारत और नेपाल के बीच सीमा और दूरी की बात की जाये तो गोरखपुर उत्तर प्रदेश से पोखरा सड़क मार्ग से करीब 300 किलोमीटर की दूरी पर है। अगर नई दिल्ली की बात की जाए तो नेपाल ने इस नए एयरपोर्ट तक पहुंचने में कमर्शियल फ्लाइट को पैंतालीस मिनिट्स से भी कम का समय लगेगा।
यदि पोखरा चाइनीज आउटपोस्ट में बदल जाता है जहां उसके लड़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर तैनात होते हैं, तो यह भारत के लिए गंभीर खतरे की बात होगी। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल और उससे भी आगे भारत के मिलिट्री एसेट्स कमजोर होंगे और चीन इस बात से वाकिफ भी है की नेपाल भारत के लिए कितना ज़रूरी हैं जिससे उसका मकसद साफ़ है भारत की घेराबन्दी करना।
नेपाल की जनता भी अब चीन के इरादों से वाकिफ हो चुकी है। चीन की छवि नेपाल में कोविड महामारी के बाद से ही ख़राब होती चली गई जब चीन ने नेपाल को सहयोग नहीं किया वहीं नेपाल सीमा के प्रमुख बिंदुओं पर अघोषित नाकाबंदी लगा दी थी।
यह कारण है कि तमाम और मुद्दों के साथ ही पोखरा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा और उससे जुड़ी सुरक्षा को लेकर भारत की चिंता एक प्रमुख मुद्दा है। चूँकि इसके समाधान के लिए नेपाली के प्रधानमंत्री भारत की ओर देख रहे हैं ऐसे में आशा है कि भारत नेपाल की चिंताओं को रेखांकित करते हुए कोई समाधान अवश्य ढूंढ लेगा।
यह भी पढ़ें: नेपाल के प्रधानमंत्री का पहला भारत दौरा, क्या हैं इसके मायने