बीते रविवार (20 नवम्बर, 2022) को पड़ोसी देश नेपाल में केंद्रीय संसद और प्रांतों की विधानसभा के लिए एक साथ मतदान हुए थे। मतगणना रविवार रात नौ बजे से शुरू हो गई थी। आज मंगलवार (22 नवम्बर, 2022) को इसके ताज़ा रुझान सामने आ रहे हैं।
किसके बीच है मुकाबला?
नेपाल में मुख्य रूप से दो गठबंधन चुनावी मैदान में हैं।
प्रधानमंत्री शेर बहादुर की नेपाली कॉन्ग्रेस के साथ पुष्प कमल दहाल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल और माधव कुमार नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल
वहीं, दूसरी ओर केपी ओली के नेतृत्व में प्रमुख विपक्षी दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनाइटेड मार्क्सिस्ट- लेनिनिस्ट) के साथ राजशाही समर्थक और हिंदूवादी पार्टी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) है जिसका नेतृत्व पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली कर रह हैं।
ताज़ा रुझान
केंद्रीय संसद के चुनाव परिणाम में प्रधानमंत्री शेर बहादुर की नेपाली कॉन्ग्रेस 4 सीटों पर जीत दर्ज़ कर चुकी है और 47 सीटों पर आगे चल रही है।
वहीं केपी ओली के नेतृत्व में प्रमुख विपक्षी दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल 2 सीटों पर जीत दर्ज़ कर चुकी है और 38 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है।
पुष्प कमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी) 18 सीटों पर एवं राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी 12 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है।
प्रांतीय विधानसभा की बात करें तो प्रधानमंत्री शेर बहादुर की नेपाली कॉन्ग्रेस पार्टी 4 सीटों पर जीत दर्ज़ कर चुकी है और 67 सीटों पर आगे चल रही है। वहीं ओली के नेतृत्व वाली प्रमुख विपक्षी दल कम्युनिस्ट पार्टी 1 सीट पर जीत दर्ज़ कर चुकी है और 97 सीटों पर आगे चल रही है। वहीं त्रिकोणीय मुकाबला बनाते हुए पुष्प कमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी) 37 सीटों पर बढ़त बनाये हुए है।
वर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की डडेलधुरा की सीट 13,126 वोटों के साथ शेर बहादुर देउबा निकटतम स्वतंत्र प्रत्याशी सागर से आगे चल रहे हैं। सागर को अभी तक 7002 वोट प्राप्त हुए हैं।
वहीं झापा सीट से ताल ठोक रहे पूर्व प्रधानमंत्री ओली शाम 7 बजे तक की गयी मतगणना में 18,671 हासिल कर चुके हैं और उनके निकटम प्रतिद्वंदी खगेन्द्र अधिकारी 10,912 वोट हासिल कर चुके हैं।
पुष्प कमल दहल प्रचंड भी अपनी गोरखा सीट से 5000 वोटों की बढ़त बनाये हुए हैं
नेपाल चुनाव 2022
नेपाल में वर्ष 2015 में संविधान बदला गया था जिसके बाद से यह दूसरे चुनाव हुए हैं।
नेपाल की संसद की कुल 275 सीटों और प्रांतीय विधानसभा की 550 सीटों के लिए वोटिंग हो चुकी है । संसद की 165 सीटों पर फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (एफ़पीटीपी) व्यवस्था के तहत चुनाव हुए हैं शेष सीटें आनुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिए तय की जाएंगी। ऐसे ही प्रांतीय विधानसभा की 330 सीटों पर एफ़पीटीपी व्यवस्था के तहत चुनाव हो रहा है जबकि बाक़ी 220 सीटों पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था के तहत सदस्य चुने जाएंगे।
चुनाव आयोग अगले आठ दिनों में सभी फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट परिणामों की घोषणा करेगा, जबकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व चुनावों के परिणाम 8 दिसंबर तक घोषित किए जाएंगे।
इन चुनावों से नेपाल की जनता की काफी उम्मीदें जुड़ी हैं। एक दशक से अधिक समय से देश को त्रस्त करने और विकास को बाधित करने वाली राजनीतिक अस्थिरता अब समाप्त होने की उम्मीद है।
नेपाल का चुनावी इतिहास
नेपाल ने वर्ष 1990 में लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास किया था, इससे पूर्व वहाँ राजशाही तंत्र हावी था। वर्ष 2008 तक आते आते राजशाही खत्म कर दी गई, लेकिन राजनीतिक अस्थितरता बरक़रार रही इसका ही परिणाम है कि पिछले चौदह सालों में दस सरकारें आई और गई हैं।
इसी के मद्देनजर इन चुनावों में नेपाल के पुराने नेताओं के खिलाफ युवाओं का एक वर्ग तैयार हुआ है, जो स्वतंत्र उम्मीदवारों के जरिए चुनावों में ताल ठोक रहे हैं। इन्होंने सोशल मीडिया पर पारम्परिक नेताओं के बहिष्कार का भी आह्वान किया था।
क्या थे इस चुनाव के प्रमुख मुद्दे
- नेपाल चुनाव में महंगाई एक मुख्य मुद्दा था। बढ़ती ऊर्जा और खाद्य कीमतों के साथ मौद्रिक तंगी के कारण नेपाल की ख़राब अर्थव्यवस्था एक मुद्दा थी। आर्थिक तौर पर सीमांत जिंदगी बिता रहे इन लोगों पर 8 फीसदी के आसपास मंडराती मुद्रास्फीति की दर भारी पड़ रही है।
- लोगों का मानना है कि देश में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण आजतक नेपाल में कई इलाके मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली पानी से वंचित हैं। नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक है और इसकी अर्थव्यवस्था पर्यटन पर भी निर्भर करती है।
- इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा मधेशियों की नागरिकता से जुड़ा था। मधेशी मांग करते रहे हैं कि जिनका जन्म नेपाल में हुआ है, उन्हें जन्म के आधार पर नागरिकता मिलनी चाहिए इसके लिए मधेसियों द्वारा वर्ष 2015 में बड़ा आंदोलन भी किया गया था। हालाँकि, इस पर अभी तक नेपाल सरकार ने कोई फैसला नहीं किया है। नेपाल की वर्तमान देउबा सरकार ने संसद में नागरिकता विधेयक पारित किया था लेकिन राष्ट्रपति ने अभी इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं चुनाव में दोनों ही गठबंधन मधेशियों को नागरिकता दिलाने के अपने-अपने वादे किए थे।
- वहीं इस बार विदेश नीति को लेकर भी कुछ मतदाता मुखर रहे
रूस यूक्रेन मुद्दे पर सरकार का अमेरिका के पक्ष में खड़े होने का लोगों ने विरोध किया था। वहीं, नेपाल के चीन और भारत के साथ संबंधों से जुड़े मुद्दों के साथ राजनीतिक दल मतदाताओं के बीच गए थे।
पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली ने चुनावी प्रचार के दौरान भी भारत विरोधी रुख जारी रखा।ओली ने भारत के उत्तराखण्ड राज्य के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधार को नेपाल में शामिल करने का वादा किया।
ज्ञात हो कि केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री रहते हुए पिछली सरकार के दौरान इन इलाक़ों पर अपना दावा पेश कर दिया था और नेपाल का नया मानचित्र भी जारी कर दिया था। ओली को भारत विरोधी एवं चीन समर्थक बताया जाता है।
चीन ने अपने विशाल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत नेपाल के साथ भी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर हस्ताक्षर किए हैं और ट्रांस-हिमालयी रेलवे नेटवर्क के माध्यम से काठमांडू को ल्हासा से जोड़ने की परिकल्पना की है।
नेपाल चुनाव परिणामों से कैसे प्रभावित होगी वैश्विक राजनीति
नेपाल एक भू-आबद्ध राष्ट्र है जो दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में भारत के साथ सीमाएं साझा करता है। उत्तर की ओर हिमालय की दुर्गम सीमाओं के साथ चीन से जुड़ता है। भारत और नेपाल के संबंध सिर्फ राजनीतिक तक सीमित नहीं हैं बल्कि रोटी-बेटी के रिश्ते के साथ सांस्कृतिक संबंध भी मजबूत रहे हैं।
हालाँकि, पूर्व की केपी ओली सरकार में यह संबंध अपने ख़राब स्तर पर पहुंच गए थे। दोनों देशों के बीच 2018 में शुरु हुए भूमि विवाद (लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधारा) के तनाव का असर कुछ हद तक अब भी बाकी है।
वहीं, वर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के आने के बाद भारत नेपाल संबंधों को पुनः गति मिली थी और उन्होंने इसी वर्ष भारत का तीन दिवसीय दौरा भी किया था। इसके बाद चीन सरकार के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने उन्हें भारत समर्थित बता दिया था।
नेपाल में बढ़ रहा चीन का प्रभाव भी भारत के लिए चिंता का विषय है।
चीन ने नेपाल में बड़े स्तर पर निवेश तो किया ही है साथ ही इसी के माध्यम से नेपाल सरकार में भी हस्तक्षेप बढ़ाया है। वर्ष 2016 में भारत के साथ तनाव बढ़ते ही ओली सरकार ने चीन के साथ रणनीतिक संधि कर नया व्यापार मार्ग हासिल किया। फिर वर्ष 2019 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नेपाल का दौरा किया। चीन का प्रभाव तब देखा गया जब नेपाल की राजनीति में चीन की राजदूत मध्यस्थ की भूमिका निभाती पाई गई।
एशिया-पैसिफिक फाउंडेशन के सीनियर रिसर्च फेलो मार्कस एंड्रियोपोलोस के अनुसार, चीन की कोशिश नेपाल में भी चीन की तरह ही शासन का निर्माण करना है ताकि नेपाल में भी सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी रहे। बाकी पार्टियां खत्म हो जाएं और नेपाल के सारे संस्थान कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन आ जाएं।
हालाँकि चीन की चिंता यह है कि इस चुनाव में वामपंथी दल दो धड़ों में बंटकर चुनाव लड़े थे।
चीन, दक्षिण एशिया में अपने वर्चस्व स्थापित करने के लिए नेपाल को भी एक अच्छे विकल्प के रूप में देखता है। चीन में शी जिनपिंग राष्ट्रपति के रूप में तीसरी बार कार्यकाल संभाल रहे हैं। इसलिए, नेपाल को लेकर चीन अधिक आक्रामक रुख अपना सकता है। यह चुनाव नेपाल में बीजिंग की पॉलिसी के लिए महत्वपूर्ण रहेंगे।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नेपाल और भारत का संबंध मूलतः दोनों देशों के नागरिकों के बीच का संबंध रहा है, जो दोनों देशों की सरकारों की नीतियों का आधार रहा है। यह संबंध स्वयं में ऐतिहासिक रहा है, जिसे चीन द्वारा नेपाल में आर्थिक निवेश की मदद से प्रभावित कर पाना आसान न रहेगा।
कहीं न कहीं भारत के पक्ष में दिखने वाले शेर बहादुर देउबा के दोबारा सरकार में आने से भारत को लाभ होगा। वहीं भारत विरोधी ओली के जीतने से नेपाल भारत संबंध चुनौती पूर्ण अवश्य रहेंगे।
दूसरी ओर अमेरिका भी चीन के बढ़ते प्रभाव पर नकेल कसने के लिए हिंद प्रशांत के देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है जिसके तहत अमेरिका भी नेपाल से नज़दीकियां बढ़ा रहा है।
चुनाव परिणाम निर्धारित करेंगे कि भविष्य में अमेरिका, चीन और भारत के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए नेपाल क्या रणनीति अपनाएगा।