चंद्रयान-3 की सफलता के साथ ही एक बात जो देश को याद रखना जरूरी थी वो वो है पंडित जवाहर लाल नेहरू का योगदान। अगर कोई चांद पर उतरने की खुशी में यह भूल गया था तो कांग्रेस और उनके प्रचारकों ने कड़ी मेहनत से सुनिश्चित किया है कि पंडित नेहरू के योगदान को चंद्रयान-3 की खुशी में पहला स्थान मिले।
हो भी क्यों न, 1962 में जिस समिति की स्थापना पंडित नेहरू ने विक्रम साराभाई की प्रेरणा से की थी वही आगे चलकर इसरो बना और इसी तरह इसरो की पहली ईंट रखने का श्रेय पंडित नेहरू को मिल गया। हालांकि जिनकी प्रेरणा से पंडित नेहरू ने इसरो की कल्पना की थी उन्हीं विक्रम साराभाई को कभी भारत रत्न नहीं मिला। यह वैज्ञानिकों के प्रति पंडित नेहरू या कांग्रेस का उपेक्षित रवैया नहीं बस साइंटिफिक टेंपर की अधिकता कही जा सकती है।
चंद्रयान-3 की सफल लैंडिग पंडित नेहरू से मिली प्रेरणा का परिणाम है, यह एक तरह का शुद्ध कांग्रेसी विचार है जो हर उपलब्धि में अपना हिस्सा मांगता है। देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर पंडित नेहरू की उपलब्धियों को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कांग्रेस को उनकी प्रेरणा को किसी मिशन का आधार बनाने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी अगर कांग्रेस ऐसा कर रही है तो यह उसकी असुरक्षा की भावना है। देश और वैज्ञानिकों की सफलता में खुश होने के लिए किसी दल को अपने नेता का योगदान खोजने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है क्योंकि वो दलगत राजनीति के दायरे से बाहर नहीं देख पा रहा है।
चंद्रयान मिशन की घोषणा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाल किले से की थी। चंद्रयान-2 की विफलता का श्रेय मोदी सरकार को मिला (शायद इसकी प्रेरणा पंडित नेहरू से नहीं मिली थी)। चंद्रयान-3 की सफलता में अटल सरकार की दूरदर्शिता की अहम भूमिका रही जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं। फिर भी चंद्रयान-3 की सफलता में अटल सरकार को श्रेय नहीं मिलना इस बात का प्रमाण है कि देश की हर उपलब्धि की प्रेरणा नेहरू जी से ही मिलती है। नेहरू सरकार से लेकर मनमोहन सरकार भले ही इसरो का बजट नहीं बढ़ा पाई हो पर इन्होंने प्रेरणा देने में कभी कंजूसी नहीं की। वर्ष 2004-05 में मनमोहन सरकार ने ISRO को 2.5 हजार करोड़ रुपए दिए गए थे। वहीं, 2019-20 में मोदी सरकार ने इसरो का बजट बढ़ाकर 12,400 करोड़ रुपए किया।
देश के वैज्ञानिक नेहरू और इंदिरा काल में साइकिल और बैलगाड़ी से रॉकेट ढ़ोते हुए चांद पर पहुँचने में कामयाब हो गए हैं। अब प्रेरणा, उपलब्धि और श्रेय की लड़ाई देश की खुशी में हिस्सा बनने का साधन नहीं बल्कि राजनीतिक वर्चस्व हासिल करने की कोशिश है। यह भी तय है कि कांग्रेस और विपक्ष को यह राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लड़नी ही है क्योंकि उनके पास अब नेहरू की विरासत के अलावा कुछ बचा नहीं है। कांग्रेस स्वयं सत्ता में होती तो श्रेय के लिए नेहरू जी को याद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती पर जनता से मिली अस्वीकार्यता ने यह तय कर दिया है कि नेहरू के नाम के जरिए देश की हर उपलब्धि में वे स्वयं को प्रासंगिक बनाने की कोशिश करें।
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