वन नेशन, वन इलेक्शन एक बार फिर चर्चा में है। इसे लेकर सभी के अपने तर्क हैं और कुछ के कुतर्क भी हैं, जैसे बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की वन नेशन, वन इनकम वाली मांग।
वहीं, कांग्रेस पार्टी के आजीवन युवराज कह रहे हैं कि वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार, भारत और उसके सभी राज्यों पर एक हमला है। हालाँकि, वे यह नहीं बता रहे हैं कि अगर वाकई में यह हमला है तो फिर पहला हमला तो उनके नाना जी अर्थात देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, पहले ही कर चुके हैं।
आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। तब कोई समस्या नहीं थी। समस्या तब हुई जब कांग्रेस ने ही इस परंपरा को तोड़ने का काम शुरू किया।
1957 में जब लेफ्ट ने केरल में जीत दर्ज की थी और मात्र 2 साल के भीतर केरल की वामपंथी सरकार को केंद्र की नेहरू सरकार द्वारा बर्खास्त कर 1960 में फिर देश का पहला मध्यावधि चुनाव करवाया गया।
नेहरू की इसी रीति को उनकी पुत्री इन्दिरा गांधी ने आगे बढ़ाया और 1968, 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इसका परिणाम ये हुआ कि एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई।
80 के दशक में एक बार फिर, एक देश, एक चुनाव की चर्चा शुरू हुई। 1983 में चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था कि लोकसभा के साथ-साथ राज्यों के भी विधानसभा चुनाव कराए जाने चाहिए। हालांकि, उस समय भी इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी ने इस सुझाव को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। इसके बाद कई बार इसे लेकर चर्चा हुई लेकिन हासिल कुछ नहीं।
वहीं, केन्द्र में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA सरकार आई तो इसे लेकर ठोस कदम उठाए गए, जिनका असर हम आज एक कमेटी के रूप में देख रहे हैं।
अब देखना यह है कि देशहित मेें एक देश, एक चुनाव की परंपरा को लेकर कांग्रेस पार्टी अपने पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा खींची गई लकीर पर चलेगी या फिर फिर देशहित में वर्तमान सरकार का सहयोग करेगी।
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