आपने जाति-व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था के बारे में तो सुना ही होगा? उसके पक्ष-विपक्ष में जो राय वामपंथियों की होती है और जो विचार तथाकथित दक्षिणपंथी कहलाने वाले (असल में एक पार्टी-नेता के समर्थकों की भीड़) के होते हैं, उनमें अंतर क्या है? एक ही बात अगर तथाकथित प्रगतिशील भी कह रहा है और तथाकथित हिन्दुत्ववादी भी, तो फिर दोनों में असल में कोई अंतर नहीं। गंगाधर ही शक्तिमान है! सामाजिक व्यवस्था से आगे विज्ञान पर आ जाइये। तथाकथित प्रगतिशील भी उसी वैज्ञानिक सोच की बात कर रहा है, जिसकी माला तथाकथित हिन्दुत्ववादी जप रहा है, तो दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता।
जैसे 1781 तक अरुण (यूरेनस) ग्रह के अस्तित्व का पता नहीं था। टेलिस्कोप के अविष्कार के बाद जब इसका पता चला तब जाकर सौरमंडल के हिन्दुओं जैसे नवग्रहों वाले सिद्धांत पर लोगों को कुछ विश्वास हुआ। इतने पर ही बात रुकी नहीं, क्योंकि वरुण (नेपच्युन) की खोज इसके कई वर्ष बाद 1846 में जाकर हुई। जैसे हिन्दुओं में वरुण को पानी और समुद्रों का देवता माना जाता है, वैसे ही नेपच्युन भी रोमन सभ्यता में समुद्र के देवता थे, इसलिए नाम नेपच्युन है। ग्रहों की गति में अंतर के कारण वरुण (नेपच्युन) को खोजा जा सका था। इस समय तक बुध (मरकरी) की चाल में भी वैसी ही गड़बड़ी दिखी तो पश्चिमी खगोलशास्त्रियों को लगा कोई और ग्रह भी बीच में है।
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जांच के बाद समझ में आया कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम उतने पक्के नहीं। इसके बाद आइन्स्टाइन की “जनरल रिलेटिविटी” की थ्योरी को बड़े पिंडों के गुरुत्वाकर्षण के जोड़-घटाव के लिए न्युटन के सिद्धांतों के बदले प्रयोग किया जाने लगा। अब सोचकर बताइये कि ग्रहों, चाँद-तारों की गति इत्यादि के अध्ययन के लिए भारतीय ज्योतिष के सिद्धांत प्रयोग में लाने के बारे में जो विचार तथाकथित हिन्दुत्ववादी जमातों के हैं, उसमें और तथाकथित लेली (लेफ्ट-लिबरल) गिरोहों के भारतीय ज्योतिष को पोंगापंथी कहने में कितना अंतर दिखता है?
यहाँ से थोड़ा मुड़कर चिकित्सा व्यवस्था की तरफ चलते हैं। टीकाकरण के बारे में पूछा जाये तो क्या होगा? कोविड-19 से जुड़े टीकाकरण में भारतीय कार्यों की तारीफ करते समय क्या होगा? परंपरागत रूप से टीकाकरण की व्यवस्था भारतीय ही थी और अब जब हम स्वतंत्र हो गए हैं, तो फिर से व्यवस्थाएं मजबूत होने लगी हैं। करीब 1000-1200 वर्ष जब हम विदेशी आक्रमणों को झेलते रहे, उस दौर में ये व्यवस्था थोड़ी कमजोर रही। टीकाकरण का ये ऐतिहासिक परिपेक्ष्य हिन्दुत्ववादी को बताना चाहिए था और लेली (लेफ्ट-लिबरल) कहता कि आधुनिक व्यवस्थाओं से हमें फायदा हुआ। आज आपको दोनों ही आधुनिक व्यवस्था की प्रशंसा में बिछे जाते दिखेंगे। ऐसे में ये सवाल तो पूछना होगा कि अंग्रेजों ने भारतीय टीकाकरण की व्यवस्था को बंद करने के कानून लागू किये थे, ये बात हिन्दुत्वादी क्यों नहीं कहता?
रसायन की व्यवस्था पर बात करें तो फिर से यही होगा। एक जानी पहचानी सी किताब होती है “द अलकेमिस्ट” जिसका नाम आपने सुना होगा। एक फिल्म का डायलॉग “जब आप किसी चीज को पूरी शिद्दत से चाहते हैं, तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने में जुट जाती है”, इसी किताब से चुराया गया था। इन “अलकेमिस्ट” या फिर “कीमियागिरी” जैसे शब्दों को सुनने भर से ही दिमाग में किसी जादू-टोने का बोध उभर आता है। ऐसा लगने लगता है कि कोई ऐसा पत्थर बनाने में जुटा है, ऐसी विधि इजाद करने में लगा है, जिससे सबकुछ सोने-स्वर्ण में बदला जा सके। रसायन शास्त्र कहने पर वैसा बोध ही नहीं आता। हाँ इसके जरिये धातुकर्म इस स्तर पर अवश्य पहुँच जाता है जिससे हजारों वर्ष पहले बना एक लौह स्तम्भ जो आज भी इस्लामिक बर्बरता के प्रतीक कुतुबमीनार के बगल में लगा है, उसपर खुले वातावरण में भी जंग नहीं लगता! वेद सुन लेने पर कानों में पिघला सीसा डाल देने को अगर सच मानेंगे तो फिर तो ये भी बताना पड़ेगा कि सीसे को पिघलाने की तकनीक आई कहाँ से? ब्लास्ट फर्नेस जिसमें सीसा (लीड) पिघलाया जा सके, वो तो इंग्लैंड 1491 में पहुंचा था, उससे पहले होता ही नहीं था! ये पोंगापंथी ब्राह्मण जिन्होंने कोई अविष्कार किये ही नहीं, उन्होंने आखिर कान में डालने के लिए सीसा पिघलाया कैसे होगा, ये किसी को तो पूछना होगा।
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स्थापत्यकला की ओर जाते ही फिर से वही दशा होती है। मंदिर इतने ऊँचे, उस काल में कैसे बने होंगे, ये हिन्दुत्ववादी पूछते। सिर्फ मंदिर ही नहीं बनते थे, ये भी बताना पड़ता साथ में। यहाँ भी वामपंथियों के तर्कों और तथाकथित दक्षिणपंथियों की चुप्पी में कोई अंतर नहीं। कावेरी नदी पर बना कल्लनई बांध स्थापत्य कला का एक उदहारण हो सकता है। करीब 2,000 वर्ष पूर्व इस बांध को चोल सम्राट करिकालन ने बनवाया था। इतना पुराना यह बांध आज भी प्रयोग में है और विश्व के सबसे पुराने बांधों में से एक है। थंजावुर, तमिलनाडु में स्थित यह बांध आज पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र है। जैसे ही इसे सामने ले आया जाता है, पाठ्यक्रम में शमिल करके पढ़ा दिया जाता, वैसे ही भारत में सारा ज्ञान विदेशों से आया कहने वालों के मुंह पर ताला लग जाना स्वाभाविक है। जैसे ही कोई कहेगा कि भारत में कोई अविष्कार नहीं हुए, वैज्ञानिक शोध नहीं होते थे, वैसे ही कल्लनई बांध के बारे में जानने वाला कोई भी पूछ लेगा कि बिना गणित, अभियंत्रण, नदी के बहाव, जल की मात्रा, मौसम, क्षेत्र के भूगोल इत्यादि के बारे में शोध किये कोई बांध कैसे बना सकता है? अफ़सोस कि गंगाधर ही शक्तिमान था और जब वो शक्तिमान बना हुआ हिन्दुओं के इतिहास पर कीचड़ उछालता तो हिन्दुत्ववादी अपने पाठ्यक्रम में कल्लनई बांध को शामिल करने के बदले गंगाधर वाली चुप्पी साध लेता है।
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पाठ्यक्रमों में बदलाव की बात पर जैसे ही हल्ला-हंगामा शुरू हो तो सबसे पहले ये याद रखना चाहिए कि गंगाधर ही शक्तिमान है। किसी और की सुनने के बदले स्वयं शोध कीजिये और जो कुछ न हो पाए तो इंडियन नॉलेज सिस्टम या भारतीय ज्ञान परंपरा नाम से हाल ही में पाठ्यक्रमों में शामिल किये गए विषय की कुछ पुस्तकें उठा लीजिये। कम से कम दो विपरीत ध्रुवों पर बैठकर एक ही बात करते तथाकथितों से तो जान बच ही जाएगी!
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