जब 2014 में “मर्दानी” फिल्म आई, तो इसकी कोई विशेष चर्चा नहीं हो रही थी। नायिका प्रधान फिल्म थी। आइटम सोंग जैसे लटके-झटके जो फिल्म को विवादित बनाते वो भी नहीं थे, नायिका ने कोई ऐसा बयान नहीं दिया था कि कोई मजहबी नेता “सर तन जुदा” के नारे लगाता या फिर, जैसा “बॉम्बे” जैसी फिल्मों के मामले में हुआ था, वैसे सिनेमाहाल जलाने की बातें करता। इसके वाबजूद फिल्म ठीक-ठाक चली और आम आदमी का एक बड़ा वर्ग जानता है कि “मर्दानी” कोई फिल्म थी। ऐसा क्यों हुआ होगा? इसकी वजह थी फिल्म का विषय। इसकी कहानी एक पुलिस अधिकारी की थी जो एक लापता बच्ची को ढूँढने निकलती है और इसी क्रम में बच्चियों का अपहरण करके उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेल देने वाले गिरोह का पर्दाफाश कर डालती है। राजनैतिक रूप से बच्चे-बच्चियों का लापता हो जाना भले कोई बड़ा मुद्दा न हो, लेकिन आम आदमी को इस मुद्दे से फर्क पड़ता है।
अगर सोशल मीडिया पर ही देख लें तो आप पाएंगे कि लापता हुआ बच्चे-बच्चियों की तस्वीर जैसे ही कोई लगाता है, आम आदमी फ़ौरन उसे शेयर करके अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करता है। बच्चे या बच्ची की घरवापसी हो सके, इसमें अपनी ओर से योगदान देने में आम आदमी कोई कोताही करता नहीं दिखता। इसकी तुलना अगर सरकारी तंत्र से की जाए तो एक विचित्र सा विरोधाभास नजर आता है। सरकारी तंत्र लापता हुए बच्चों में से पचास प्रतिशत को भी नहीं ढूंढ पाता। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि बच्चे तो अट्ठारह वर्ष से कम आयु के होते हैं, मतदान कर नहीं सकते, इसलिए उनका लापता होना, कोई चुनावी मुद्दा नहीं बनता। इसे आंकड़ों से मिलाकर देखें तो हमारे सामने एक चौंका देने वाली, या कहिये कि भयावह तस्वीर आती है।
बीबीसी के आंकड़ों की मानें तो भारत में 2020 में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। बीबीसी के लिए रजनी वैद्यनाथन ने एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी जिसमें बताया गया था कि लापता हुए बच्चों में से अधिकांश गुलामी जैसे बाल श्रम और यौन शोषण का शिकार होते हैं। बाल श्रम और बच्चों से वेश्यावृत्ति करवाना काफी कमाई वाला धंधा है, इसलिए कई बड़े गिरोह इसमें शामिल होते हैं। ये सब पता होते हुए भी भारत में इसे बंद करवाने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति का घनघोर आभाव दिखता है। ऑस्कर और दूसरे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए जाने वाली फिल्म “स्लमडॉग मिलियनेयर” का गाना “जय हो” भले ही कई आयोजनों में बजता सुनाई दे, लेकिन बाल श्रम, वेश्यावृति, भीख मांगने और गुलामी करवाने वाले गिरोह में फंसे बच्चे की कहानी को लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।
बिहार के अख़बारों में 2012 में 40000 बच्चों के लापता होने की खबर आई थी। उस समय दिल्ली के भूतपूर्व पुलिस कमिश्नर रह चुके आमोद कंठ ने कहा था कि बिहार में मानव विकास के कोई सूचकांक नहीं हैं इसलिए बाल श्रम और दूसरे अपराधों के लिए बच्चों के इस्तेमाल पर कुछ ख़ास नहीं किया जा पा रहा। उस समय उन्होंने कहा था कि जुविनाइल जस्टिस एक्ट (जेजे एक्ट) सिर्फ 6 से 8 वर्ष तक के बच्चों की बात करता है, इसलिए समस्या को पूर्ण रूप से देखा जा रहा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। बच्चों के गायब होने के साथ ही जबरन विवाह करवाने, बच्चों को यौन श्रमिक बना डालने और मानव अंगों के अवैध कारोबार के जुड़े होने से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। ये एक बड़ी समस्या है, और एक समाज के तौर पर हम सभी ने इससे मुंह मोड़ रखा है।
अगर हम लोग इससे दस वर्ष आगे आ जाएँ तब क्या स्थिति है? बिहार पुलिस के 2022 में जारी आंकड़ों के मुताबिक (पिछले वर्ष) हर दिन 15 बच्चे लापता होते थे। इससे पीछे के तीन वर्षों में बिहार पुलिस और रेलवे पुलिस के पास 16,559 बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट आई थी। इनमें से सिर्फ 7,219 बच्चों का पुलिस पता लगा पायी जबकि करीब 55 प्रतिशत (9340 बच्चे) लापता ही थे। सिर्फ 2021 में जो 6395 बच्चों के लापता होने की शिकायत दर्ज हुई, उसमें से 2838 बच्चे बरामद किये जा सके, जबकि 3557 बच्चे लापता ही रहे। इससे पिछले वर्ष 2020 का आंकड़ा भी कुछ ऐसा ही है जब 2867 बच्चों के लापता होने की शिकायत आई। उसमें से 1193 बच्चे ही घर लौटे। अगर कोविड-19 का काल होने के कारण 2020 में लापता बच्चों की शिकायत कम आई होगी, ऐसा कुछ सोच रहे हैं तो एक नजर 2019 के आंकड़ों पर भी डाल लीजिये। वर्ष 2019 भी कोविड-19 का ही काल था और इस वर्ष 7297 बच्चों के लापता होने की शिकायत आई थी। दूसरे सभी वर्षों की ही तरह इस वर्ष भी 3188 बच्चे लौटे/लौटाए जा सके और 4109 बच्चों का कोई पता नहीं चला।
आंकड़ों को देखकर कहीं आपने ये समझ लिया है कि बच्चे सिर्फ बिहार से लापता हो रहे हैं तो ऐसा भी नहीं है। “क्राइम इन इंडिया 2017” की रिपोर्ट के मुताबिक 119003 बच्चे जो भारत में लापता हुए, उनमें से 16.5% (19771) बच्चे बंगाल के थे। यानि हर पांच-छः लापता बच्चों-बच्चियों में से एक बंगाल से है। साल दर साल जो ये बच्चे लापता हो रहे हैं, उनमें लड़कियों की गिनती को भी “राष्ट्रीय बालिका दिवस” पर एक बार देखा जाना चाहिए। बच्चों के प्रति हो रहे अपराधों को कम करने में इतना योगदान तो हम लोग कर ही सकते हैं!