बहुसंस्कृति, बहुभाषी एवं बहुजातीय समीकरण लिए हुए देश में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता होती है जिसका सभी वर्ग अनुसरण कर सकें। स्वतंत्रता के पश्चात से 75 वर्षों में देश को कई करिश्माई नेतृत्वकर्ताओं का साथ प्राप्त हुआ है जिन्होंने अपने-अपने अनुसार देश के विकास में योगदान दिया। इनमें से कुछ राजनीतिज्ञ रहे तो कुछ अपने लिए स्टेट्समैन की छवि बनाने में कामयाब रहे हैं। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हीं में से एक है। आज देश का बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग एवं विपक्ष प्रधानमंत्री और उनकी कार्यशैली का आलोचक है पर वह उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। किसी को उनमें तानाशाह दिखाई देता है तो कोई उन्हें नव भारत का निर्माणकर्ता बता रहा है। उनके विरोधी उनसे सहमत नहीं होते पर विरोध के लिए उनके पास कोई तर्क भी नहीं है।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव अब नजदीक हैं और राजनीतिक दलों की तमाम समस्याओं के बीच सबसे बड़ा प्रश्न है नरेंद्र मोदी का विकल्प। हाल ही में भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री ने अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोंधित किया। उनका भाषण पार्टी के लिए न सिर्फ भविष्य की नींव रख रहा था बल्कि अपने आख्यान के जरिए उन्होंने एक स्टे्टसमैन की तरह देश की स्थिति पर नजर डाली। उन्होंने बादशाही मानसिकता की बात की, बजंरगबली से प्रेरणा की बात की और योजनाओं का रिपोर्ट कार्ड भी दिया।
प्रधानमंत्री मोदी ने जो कहा उसकी व्याख्या से अनिवार्य यह समझना है कि आखिर उनकी कार्यशैली और निर्णयों को स्टेसट्मैन की उपाधि क्यों दी जा रही है। वैसे तो बीते 9 वर्षों में मोदी सरकार ने अनेक संस्थागत एवं योजनागत सुधार किए हैं पर यह निर्णय सुशासन का रास्ता सुदृढ़ करते हैं। पर उनको स्टेट्समैन बनाने वाले वे निर्णय हैं और विजन है जिसके जरिए प्रधानमंत्री मोदी ने देश के नवनिर्माण का खाका बनाया है। अपने आख्यान में उन्होंने बादशाही मानसिकता का जिक्र किया था। इससे पूर्व वे पंच प्रण के जरिए गुलामी की मानसिकता त्यागने का अपील कर चुके हैं।
यह क्यों आवश्यक है? औपनिवेशिक मानसिकता से वि-औपनिविशिकरण से आप क्या समझते हैं? यह किस तरह काम करता है इसकी व्याख्या बहुत समय से की नहीं गई थी क्योंकि यूरोप के औपनिविशिक देशों में उनकी मूल संस्कृति का सर्वमूल नाश हो चुका था इसलिए वे अपनी विरासत के पास लौट ही नहीं पाएं। हालाँकि एशिया में यह मामला अलग रहा। यहाँ की मूल संस्कृति संघर्ष करके पनपती रही पर उपनिवेशिक देश द्वारा उनकी मूल संस्कृति, राजनीति, आर्थिक क्षेत्र पर गहरी चोट की गई। इसका परिणाम स्वतंत्रता के बाद देखने को मिला जहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता तो हाथ में आ गई पर औपनिविशिक संस्कृति के साथ।
शासन पद्धति का विऔपनिवेशीकरण और मोदी सरकार
वि-औपनिविशिकरण की बात करने वाले नरेंद्र मोदी शायद सबसे पहले राजनीतिज्ञ रहे। इसका बहुत छोटा सा उदाहरण है गणतंत्र देश के बाद होने वाली ‘बीटिंग द रिट्रीट’ सेरेमोनी का जिसमें आश्चर्यजनक रूप से देश की आजादी के 7 दशकों तक ‘एबाइड विद मी (Abide With Me)’ बजाया जाता रहा। देश की आजादी के सम्मान में देश के गौरव और स्वतंत्रता सेनानियों को याद करने के स्थान पर ब्रिटिश गीत को जगह देना गुलामी की मानसिकता का प्रदर्शन है। पीएम नरेंद्र मोदी ने इस प्रथा को समाप्त कर ‘मेरे वतन के लोगों’ की धुन का स्वागत किया।
जिस बादशाही मानसिकता का जिक्र प्रधानमंत्री ने अपने आख्यान में किया वह भी औपनिविशिक बेड़ियों का परिणाम है जिसमें पाश्चात्य संस्कृति ने अपनी नस्लीय भेदभाव एवं श्रेष्ठता की भावना को देश के अभिजात्य वर्ग को समर्पित किया ताकि उपनिवेशन की प्रक्रिया आसान बन सके। इसी मानसिकता में बदलाव के लिए प्रधानमंत्री का आह्वान न सिर्फ अपरिहार्य था बल्कि उनकी नेतृत्व क्षमता का परिचायक भी था। पीएम मोदी का कहना है कि; हमें दूसरों की तरह दिखना आवश्यक नहीं है। हम दृढ़ता के साथ अपने मूल अस्तित्व के साथ खड़े रह सकते हैं।
बादशाही मानसिकता एवं वि-औपनिविशिकरण के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद का बीड़ा उठाया गया। औपिनिविशिकता से मुक्ति के साथ संबंधित देश में राजनीतिक बदलाव तो लाया जाता है पर सांस्कृतिक बदलाव के प्रति किसी का ध्यान नहीं जाता है।
नई शिक्षा नीति, काशी विश्वनाश कॉरिडोर, महाकाल कॉरिडोर, चारधाम का विकास कार्य, मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा देना, विरासत का स्वदेशी नामकरण आदि ऐसे कदमों में शामिल रहे जो भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थानवाद का प्रतीक बन रहे हैं। स्वतंत्रता कभी भी आशिंक नहीं हो सकती। वो पूर्ण होती है और सभी बंधनों से मुक्त होती है। विडंबना यह है कि भारतीय संस्कृति ने औपनिवेशिक बेड़ियों को इतने लंबे समय तक झेला है।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद विपक्षी धड़े ने उनकी हिन्दुत्ववादी नीतियों और धार्मिक तुष्टिकरण के जो आरोप लगाए थे, उनका जवाब प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विकासगत नीतियों से दिया। वे ऐसे नेता बनकर उभरे जिन्होंने वर्षों से चली आ रही दलगत राजनीति की दिशा बदलकर विकासवादी राजनीति की ओर मोड़ दी। शायद यही कारण है कि कभी राजनीतिक विरोधी रहे विपक्षी नेता भी उनके राजनैतिक आचरण का सम्मान करते हैं। सबका साथ-सबका विकास की तर्ज पर हर वर्ग के लिए बनाई गई मोदी सरकार की योजनाएं समाज के पिछड़े और अल्पसंख्यक तबके को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रही है कि वोट बैंक की नीति ने ही आज तक उनका विकास अवरुद्ध किया हुआ था।
भारतीय जनता पार्टीः क्या विचारधारा में आया बदलाव?
देश ही नहीं, दुनिया में भी प्रधानमंत्री मोदी लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं तो अपनी औपनिविशिकता से मुक्त नीतियों के कारण। वैश्विक परिस्थितियों में लंबे समय तक पश्चिमी देशों का प्रभाव उनकी उपनिवेशक श्रेष्ठता के बोध के कारण था। आज देश की नई विदेश नीति विश्व में चर्चा का विषय बनी है तो पश्चिमी एनटाइटलमेंट को दरकिनार कर स्वयं की संप्रभुता के परिचय के कारण। वैश्विक नेताओं में प्रधानमंत्री का नाम आज किसी तीसरी दुनिया के देश के नेता के रूप में नहीं बल्कि ग्लोबल लीडर के रूप में लिया जाता है। भारत की मुखर विदेश नीति ने यह दर्शा दिया है कि आपदा या युद्ध की परिस्थितियों में भारत वैश्विक नेतृत्वकर्ता की भूमिका वहन करने के योग्य है।
नरेंद्र मोदी आज राजनीतिज्ञ से अधिक स्टे्टमैन की छवि बनाने में कामयाब रहे हैं तो उसका एक कारण उनकी जमीनी राजनीति भी है। भारत को सर्वप्रथम रखने का उनका विजन और उनके निर्णयों ने यह साबित किया है कि वे देश के प्रधानसेवक हैं। चायवाले और भाजपा के कार्यकर्ता से लेकर प्रधानमंत्री की उनकी यात्रा को देखकर जनमानस को यह विश्वास हो जाता है कि वे उनमें से ही एक हैं। देश के प्रधानमंत्री होने के बाद भी उनकी नेतृत्व क्षमता ने इस पद की गरिमा को तो बढ़ा दिया है पर सेंस ऑफ एनटाइटलमेंट को समाप्त कर दिया है। अपनी जमीनी पहुँच और दूरदर्शी निर्णयों ने उनको देश के स्टै्टसमैन के रूप में स्थापित किया है।