डॉ. जयप्रकाश सिंह, अपनी कृति ‘नारदीय संचार नीति’ में न तो पश्चिम द्वारा सामने रखे गए मापदंडों के विरुद्ध भारतीय संचार परिदृश्य का आकलन करने की कोशिश करते हैं और न ही उनसे वैधता हासिल करने का प्रयास करते हैं। यह पुस्तक संचार के विषयों, वैश्वीकरण से उत्पन्न चुनौतियों, संचार के माध्यमों पर विकसित प्रौद्योगिकियों के प्रभाव, विमर्श, युद्ध, मीडिया के मौजूदा ढांचे के भीतर ‘सच्चाई’ का स्थान और महर्षि नारद के अद्वितीय संचार कौशल को जटिल रूप से प्रस्तुत करती है। एक अत्यंत नवीन विषय और कुशल अभिव्यक्ति के साथ-साथ, यह पुस्तक मीडिया और संचार के जटिल क्षेत्र का एक मार्मिक अन्वेषण प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक संचार के भारतीय मूल्यों पर प्रकाश डालती है, जो फेक न्यूज, डीप फेक, ट्रोल के युग में और अधिक प्रासंगिक हो जाती है और खासतौर पर तब जब विश्व में संचार प्रक्रिया के तकनीकी पहलुओं पर अधिक जोर दिया जा रहा है।
पुस्तक, ‘शील ही संदेश है’, विषय पर जोर देती है। अधिकांश सभ्यताओं में ‘सत्य’ और ‘शक्ति’ की अवधारणाओं के बीच अस्पष्टता है। यह अस्पष्टता संघर्ष को जन्म देती है। हालाँकि भारतीय सभ्यता में सत्य के मूल्य को सर्वोच्च दर्जा दिया गया है। संस्कृत श्लोक ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्’, जिसका अर्थ है, ‘जो ‘सत्य’ के प्रति प्रतिबद्ध हैं और अपने विवेक के प्रति निष्ठा रखते हैं, वे आसानी से सफलता प्राप्त करते हैं’, यह स्पष्ट रूप से एक मूल्य के रूप में सत्य को दी गई प्रधानता को दर्शाता है। लेखक ने सत्यनारायण कथा के माध्यम से अपनी बात को सटीक ढंग से प्रमाणित किया है, जहाँ ‘सत्य’ की तुलना ‘नारायण’ से की गई है। देवर्षि नारद सत्यनारायण कथा के माध्यम से मूल्य के रूप में सत्य की सर्वोच्चता स्थापित करते हैं। देवर्षि नारद अपने संचार के दौरान अपने द्वारा दी गई जानकारी की वास्तविकता के प्रति व्यापक जागरूकता रखते हैं और साथ ही दूसरों को भी सत्य की अवधारणा के प्रति जागरूक करते हैं। डॉ. जय प्रकाश अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि यदि मीडिया ‘सत्य’ को ‘नारायण’ मान लेता है तो वह ‘विश्वसनीयता के संकट’ से प्रभावी ढंग से निपट सकता है, जिसका वह वर्तमान में 21वीं सदी में सामना कर रहा है।
पुस्तक देवर्षि नारद से संबंधित अनेक संवादों, कथानकों, आख्यानों, मान्यताओं और परंपराओं का विश्लेषण करती है; जिनसे यह अभिव्यक्त होता है कि वह विश्व के कल्याण के लिए सकारात्मक ऊर्जा और संदेश का संचार करते हैं और साथ ही जनता की सामूहिक चेतना को प्रेरित और संवेदनशील बनाते हैं। देवर्षि नारद द्वारा विभिन्न स्थितियों में अपना संदेश संप्रेषित करने के लिए अपनाई जाने वाली विधियों में विशिष्टता के साथ-साथ भिन्नता भी है। ‘नारदीय संचार नीति’ ऐतिहासिक कालक्रम का अन्वेषण नहीं है, अपितु संचार के परिप्रेक्ष्य में देवर्षि नारद के संवादों, कहानियों, आख्यानों की चर्चा की गई है, जिसमें भारतीय मूल्यों और समकालीन समय में उनकी बढ़ती प्रासंगिकता पर विशेष जोर दिया गया है।
भारतीय परंपरा में संवाद और उपदेश का सदैव महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यम-नचिकेता, यागवल्क्य-गार्गी, श्री कृष्ण-अर्जुन के संवाद जिनमें प्रमुख हैं। लेखक ने देवर्षि नारद के संवादों का बहुत ही अच्छे ढंग से वर्णन किया है; पुस्तक में उल्लिखित उनके प्रमुख संवाद श्रीकृष्ण, महर्षि गालव, युद्धिष्ठिर, असितदेवल और सृंजय के साथ उनके संवाद हैं। देवर्षि नारद का प्रह्लाद को उपदेश, साम्ब को सूर्यनारायण की पूजा करने की सलाह और शुकदेव को उनका उपदेश भी पुस्तक में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। डॉ. सिंह उन उपाख्यानों का भी उल्लेख करते हैं जहां देवर्षि नारद ने उनके उद्भव में एक प्रेरक शक्ति, एक उत्प्रेरक के रूप में काम किया है।
नारदीय संचार नीति एक व्यापक और विविधतापूर्ण विषय है। हालाँकि, लेखक ने इसे समेकित करने का ठोस प्रयास किया है, फिर भी अध्यायों को अच्छी तरह से तैयार किया जा सकता था। इससे अवधारणा में अधिक स्पष्टता आ जाती और नए पाठकों के लिए इसे समझना आसान हो जाता।
ऐसा कहा जाता है कि, ‘सरलता जटिल प्रभाव डालती है।’ यह नारद की अभिव्यक्ति की कला के साथ-साथ ‘नारदीय संचार नीति’ में डॉ. जय प्रकाश सिंह की अभिव्यक्ति की शैली के लिए भी सच है। यह पुस्तक संचार के सैद्धांतिक पक्ष के साथ उसके व्यावहारिक भाग पर भी ध्यान केंद्रित करती है। यह इसकी प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है। पुस्तक पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ती है।
यह पुस्तक समीक्षा आदित्य अवस्थी ने लिखी है। आदित्य हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केंद्र में शोद्यार्थी हैं।