राहुल गाँधी की संसद सदस्यता रद्द हो चुकी है। यह देशभर में चर्चा का विषय तो बन ही चुका है क्योंकि कांग्रेस ने एक विशुद्ध न्यायिक फैसले को राजनैतिक मुद्दा बना दिया है। शोर में तर्क के लिए जगह नहीं बचती। ऐसे में इस तरह के प्रश्न का कोई मतलब नहीं कि सजा न्यायालय से हुई, परिणामस्वरूप सदस्यता गई तो मुद्दा राजनीतिक कैसे बन गया?
यह इसलिए हुआ क्योंकि इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए खासी मेहनत की गयी। सड़कें जाम की जा रही हैं, विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं, सब कुछ खोने के लिए की गई तैयारी का दावा किया जा रहा है।
जहाँ राहुल गाँधी पर इस कार्रवाई को लेकर चर्चा नहीं है वहां हलचल पैदा करने के लिए बैठकें की जा रही हैं। समर्थकों को दिल्ली कूच करने के लिये उकसाया जा रहा है। कांग्रेस कार्यालयों में वर्ष 2014 के बाद ऐसी चहल पहल पहली बार देखी जा रही है। मानो इसी घड़ी का इन्तज़ार वर्षों से किया जा रहा था।
लेकिन न राहुल गाँधी पहले सांसद हैं जिनकी सदस्यता रद्द हुई हो और न पहले कांग्रेसी नेता भी, जिन पर प्रशासनिक कार्रवाई हुई हो। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस पार्टी द्वारा ऐसी प्रतिक्रिया तब क्यों नहीं देखी जाती जब ऐसी ही कार्रवाई कांग्रेस के अन्य नेताओं पर होती है?
हम कुछ वर्ष पीछे चलते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीवी नरसिम्हा राव को गिरफ्तार किया गया था। उन पर रिश्वत संबधी आरोप थे। सजा हुई और उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। यह ऐतिहासिक इसलिए भी था क्योंकि ये कार्रवाई देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री पर की जा रही थी। लेकिन तब न तो कांग्रेस पार्टी ने कोई स्टैंड लिया और न ऐसा विरोध देखा गया।
सिर्फ इसलिए कि वो गाँधी परिवार से संबध नहीं रखते थे? या मामला भ्रष्टाचार संबंधी था इसलिए? अगर समर्थन सिर्फ इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि मामला भ्रष्टाचार का था तो फिर नेशनल हेराल्ड केस क्या है?
जिसमें सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी दोनों बेल पर हैं। यह मामला भी वित्तीय भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ था। इस मामले में तो गाँधी परिवार को मात्र पूछताछ के लिए बुलाने से ही दिल्ली की सड़कें जाम कर दी गयी थी। तो फिर नरसिम्हा राव जैसे बड़े कद के नेता के लिए चुप्पी क्यों? ऐसा भेदभाव सिर्फ नरसिम्हा राव के मामले में नहीं है।
क्या न्याय का आधार बन रहा है सोशल मीडिया एजेंडा?
पी चिदंबरम को भी सीबीआई ने गिरफ्तार किया था। 106 दिन तिहाड़ होकर आये थे। लेकिन तब न लोकतंत्र खत्म हुआ और ना कोई भारत की आवाज दबाने वाली बात सामने आई। चिदंबरम तो गांधी परिवार के बिल्कुल ख़ास थे। भ्रष्टाचार या घोटाले भी उन्होंने इस परिवार की अनुमति के बाद ही किये होंगे? तो फिर उनके लिए क्यों राहुल या प्रियंका आगे नहीं आ पाए?
कारण यह है कि गाँधी परिवार का होने और गाँधी परिवार का ख़ास होने में बहुत बड़ा अंतर है। चिदंबरम गांधी परिवार के ख़ास भले हों लेकिन तथ्य यह है कि वे गाँधी परिवार के नहीं हैं। अभी भी आप राहुल गांधी के समर्थन मे परिवार विशेष के बयान देखेंगे तो वे बयान भी सिर्फ “हमारा परिवार, हमारा खून, हमारा बलिदान” आदि आदि तक ही सीमित नजर आएंगे, इसमें कहीं भी परिवार से बाहर के लोगों का जिक्र नहीं है ।
चाहे कर्णाटक कांग्रेस के अध्यक्ष डीके शिवकुमार हों या नवजोत सिंह सिद्धू, इन सभी मामलों में कांग्रेस की यही कार्यप्रणाली जारी रही। प्रश्न एक ही है और यही कि कांग्रेस पार्टी का शोर भी गाँधी परिवार तक ही क्यों सीमित है?
कांग्रेस पार्टी द्वारा ऐसी प्रतिक्रिया तब क्यों नहीं देखी जाती जब ऐसी ही कार्रवाई कांग्रेस के अन्य नेताओं पर होती है
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