एक वामपंथी मीडिया हाउस ने ट्विटर पर ‘कथित’ इतिहासकार डीएन झा द्वारा ‘प्राचीन बौद्ध स्थलों का विनाश’ शीर्षक वाले एक पुराने लेख को साझा करते हुए लिखा, “हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा लगाई गई आग में नालंदा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था, फिर भी इसके विनाश का श्रेय मामलुक कमांडर बख्तियार खिलजी को दिया जाता है। हालांकि खिलजी ने पास के एक विहार को ध्वस्त किया था, लेकिन वो कभी नालंदा नहीं गया था।”
डीएन झा ने सबसे पहले 2006 में भारतीय इतिहास कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्राह्मण-बौद्ध संघर्ष की बात करते हुए नालंदा को हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा जलाए जाने की बात कही थी। इसके बाद अपने लेखों, भाषणों और किताबों में भी यही बात कहते रहे।
डीएन झा की इस हाइपोथिसिस का खंडन अरुण शौरी ने अपनी किताब “एमिनेंट हिस्टोरियंस : देयर टेक्नोलॉजी, देयर लाइन, देयर फ्रॉड्स” और इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख “नालंदा का इतिहास कैसे बनाया गया: एक मार्क्सवादी इतिहासकार की इसके ‘हिंदू कट्टरपंथियों’ द्वारा विनाश की कहानी के पीछे की कथा” में किया था।
डीएन झा ने ये दावे सुंपा-खान-पो-येसे-पाल जोर द्वारा लिखी किताब “पग सैम जॉन जांग” के आधार पर किए थे जो नालंदा के विनाश के लगभग 500 साल बाद 1704-88AD के बीच लिखी गई थी।
जबकि अरुण शौरी ने नालंदा के विनाश के बारे में समकालीन मौलाना मिन्हाज-उद-दीन की तबकात-ए-नासिरी को आधार बनाया, तबकात-ए-नासिरी में स्पष्टतः उल्लेख है कि नालंदा को बख्तियार खिलजी द्वारा जलाया और नष्ट किया गया था। इसमें उल्लेख है कि बख्तियार खिलजी 200 घोड़ों के घुड़सवार दल के साथ आया, नालंदा पर हमला किया और स्थानीय ब्राह्मणों (भिक्षुओं) के सिर मुंडवाकर उन्हें मार डाला।
इस समकालीन दस्तावेज में कहा गया है कि “जब यह जीत हुई, मुहम्मद-ए-बख्तियार लूट के बड़े माल के साथ लौटा, और सुल्तान कुतुब-उद-दीन एबक के दरबार में आया, जहाँ उसे बहुत सम्मान और गौरव प्राप्त हुआ … इतना कि दरबार के अन्य रईसों को उससे जलन होने लगी।” यह सब वर्ष 1197 ई. के आसपास हुआ।
इतनी स्पष्टता के बावजूद डीएन झा इस समकालीन दस्तावेज को पूरी तरह से अनदेखा करके इस विवरण को नालंदा का मानने से ही इंकार कर देते हैं। वे इस विवरण को बिना किसी प्राथमिक शोध का प्रमाण दिए ओदांतपुरी बिहार का बताते हैं, जिसे आज बिहार शरीफ कहा जाता है और जो नालंदा से मात्र 10 किमी की दूरी पर है। इस विवरण को ओदांतपुरी का कहकर डीएन झा अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हैं, जबकि ओदांतपुरी विहार का स्थान अब तक निर्णायक रूप से स्थापित ही नहीं किया जा सका है।
ओदांतपुरी और नालंदा की स्थिति
IISc बैंगलोर की प्रोफेसर एमबी रजनी और प्रोफेसर विराज कुमार द्वारा ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर रिमोट सेंसिंग, GIS और फोटोग्रामेट्री जैसी अत्याधुनिक तकनीकों के माध्यम से किए गए पुरातात्विक वैज्ञानिक शोध के अनुसार नालंदा से मात्र 1 किलोमीटर उत्तर और बिहारशरीफ से लगभग 10 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में नालंदा के द्वार पर ओदांतपुरी की सर्वोत्तम स्थिति अनुमानित होती है, क्योंकि बेगमपुर गाँव के नीचे 400 x 450 मीटर की विशाल संरचना की पहचान हुई है जो गोपाल के उत्तराधिकारी धर्मपाल द्वारा निर्मित विक्रमशिला और सोमपुर महाविहार के समान है। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार ओदांतपुरी महाविहार भी प्रथम पाल सम्राट गोपाल ने ही आठवीं शताब्दी में स्थापित किया था।
इसके अतिरिक्त फ्रेडरिक एम. आशेर की किताब व JNU के इतिहास प्रोफेसर बीरेन्द्र नाथ प्रसाद के शोध ग्रंथों से यह प्रमाणित होता है कि नालंदा का पतन अचानक नहीं हुआ था। नालंदा एक बहुत बड़ा बौद्ध विहार था, जहाँ हजारों छात्र पढ़ते थे। इसके संचालन के लिए निरंतर संसाधन और धन आवश्यक था, जिसके लिए इसे भूमि अनुदान मिला हुआ था।
यहाँ तक कि 1230-40 तक नालंदा के अस्तित्व के साक्ष्य मिलते हैं। तिब्बती तीर्थयात्री धर्मस्वामी जब 1234 में मगध की यात्रा पर आए थे तो नालंदा भी आए थे, उस समय भी राहुल श्रीभद्र जैसे कुछ पुराने भिक्षु यहाँ पढ़ा रहे थे। स्वयं धर्मस्वामी ने वर्णन किया है कि, कैसे नालंदा महाविहार पर सतत मुस्लिम तुर्क आक्रमण का खतरा बना हुआ था।
जिस समय धर्मस्वामी नालंदा में थे, उस समय नालंदा महाविहार के आचार्य को सूचना मिली कि नालंदा से लगभग 10 किलोमीटर दूर बिहार शरीफ के पास तुर्की सेना डेरा जमाए हुए है और वह नालंदा पर बहुत बड़ा आक्रमण करने वाली है। यह जानकर धर्मस्वामी अपने गुरु को अपनी पीठ पर लादकर सुरक्षित स्थान पर ले जाते हैं। इसलिए यह कहना कि नालंदा के पतन में मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण की कोई भूमिका नहीं थी, यह पूर्णतः अनैतिहासिक होगा।
इसके अतिरिक्त एक अन्य बौद्धभिक्षु ध्यानभद्र के अनुसार वे 1250 के लगभग नालंदा महाविहार में पढ़े थे, उसके बाद उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया, और बाद में कोरिया चले गए। कोरिया में उनका स्तूप बना है जिसपर अभिलेख भी उत्कीर्ण है। यानी, उनके समय तक भी नालंदा महाविहार किसी न किसी रूप में अस्तित्व में था। भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म पर प्रो. बीरेन्द्र नाथ प्रसाद ने महत्वपूर्ण पुरातात्विक शोधकार्य किया है। बौद्ध भिक्षु ध्यानभद्र से संबंधित उपर्युक्त अभिलेख का सम्पूर्ण विवरण Routledge, London and New York, 2021 से प्रकाशित प्रो. बीरेन्द्र नाथ प्रसाद के शोधग्रन्थ ‘Rethinking Bihar and Bengal – History, Culture and Religion‘ में दिया गया है।
धर्मस्वामी का समकालीन विवरण यह स्पष्ट कर देता है कि नालंदा महाविहार कैसे इस्लामिक आक्रमणों से जूझ रहा था, इसे नकारकर 500 साल बाद के एक तिब्बती दस्तावेज के आधार पर नालंदा के विध्वंस का दोष हिन्दुओं/ब्राह्मणों पर मढ़ना ऐतिहासिक रूप से पूर्णतः अनैतिक है।
डीएन झा का यह दावा उपर्युक्त कारणों से तो अनैतिहासिक है ही, पर इसके साथ साथ इसका एक और कारण है कि डीएन झा का बौद्ध धर्म के सामाजिक इतिहास पर प्राथमिक शोध का कोई रिकॉर्ड नहीं है। उनके सभी दावे मात्र द्वितीयक स्रोतों के खास रूप से चुने गए वक्तव्यों पर आधारित हैं।
नालंदा विध्वंस पर डीएन झा से पहले अन्य विद्वानों के कथन
आइए देखते हैं डीएन झा के दावों से पहले 19-20वीं सदी के अन्य प्रख्यात विद्वानों और इतिहासकारों ने क्या लिखा था। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस विषय पर इतिहासकार विंसेंट स्मिथ को उद्धृत किया, जिन्होंने स्वयं समकालीन दस्तावेजों को उद्धृत करते हुए स्पष्टतः बताया है कि कैसे बख्तियार खिलजी ने नालंदा को जलाकर नष्ट कर दिया था और कैसे उसने वहाँ के सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडवाकर उन्हें मार डाला था।
इसमें कहा गया है कि “मुंडित सिर वाले ब्राह्मणों, यानी बौद्ध भिक्षुओं का वध इतनी अच्छी तरह से किया गया था कि जब विजेता ने मठ के पुस्तकालयों में पुस्तकों को समझाने में सक्षम किसी व्यक्ति की तलाश की, तो एक भी जीवित व्यक्ति नहीं मिला, जो उन्हें पढ़ सके।” अब इसपर बाबासाहेब कहते हैं कि “कुल्हाड़ी मूल में ही लगी थी, क्योंकि बौद्ध पुरोहितों को मारकर इस्लाम ने बौद्ध धर्म को ही मार डाला। यह भारत में बुद्ध के धर्म के सामने सबसे बड़ी आपदा थी।”
विल डुरंट भी अपनी पुस्तक “आर ओरिएंटल हेरिटेज” में यही बात कहते हैं और ऑक्सफोर्ड की स्थापना और कैम्ब्रिज की स्थापना के बीच नालंदा के विध्वंस का उल्लेख करते हुए अमर्त्य सेन ने भी ऐसा ही कहा है।
अरुण शौरी नालंदा की महानता के बारे में लिखते हैं कि जब इत्सिंग विश्वविद्यालय में थे, उस समय वहाँ 3,700 भिक्षु थे। पूरे परिसर में लगभग 10,000 निवासी थे। विश्वविद्यालय की आवासीय संरचना उतनी ही शानदार और बृहद थी जितनी कि वहाँ की शिक्षा। जब खुदाई शुरू हुई, तो केवल मुख्य टीला ही लगभग 1,400 फीट गुणा 400 फीट का था। ह्वेनसांग ने नालंदा के कम से कम सात मठों और आठ हॉलों का वर्णन किया है। मठ कई मंजिलों के थे, और पुस्तकालय परिसर तीन इमारतों में फैला था, जिसमें से एक नौ मंजिला था।
अगर 5वीं शताब्दी में हमने ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित किया था तो आज हम शैक्षिक रूप से औसत दर्जे तक कैसे पहुँच गए? नालंदा में वेद, तर्कशास्त्र, दर्शन, कानून और व्याकरण व अन्य विषयों के साथ साथ महायान और हीनयान दर्शन पढ़ाया जाता था। नालंदा और फिर तक्षशिला का विध्वंस न केवल बौद्ध धर्म के लिए हानिकारक था, बल्कि इसने हमसे एक ऐसी शैक्षिक परंपरा भी छीन ली जो हमें आधुनिक शिक्षा के कहर से बचा सकती थी।
नालंदा से जुड़े कुछ ऐतिहासिक व्यक्तित्व:-
नागार्जुन ने बौद्ध दर्शन मध्यमक (“मध्यम मार्ग”) का प्रतिपादन किया।
सारिपुत्र बुद्ध के दो प्रमुख पुरुष शिष्यों में से प्रथम थे।
धर्मकीर्ति बौद्ध दर्शन की ज्ञानमीमांसा के प्रमुख विद्वान थे। वह बौद्ध परमाणुवाद के प्राथमिक सिद्धांतकारों में से एक थे।
धर्मपाल एक बौद्ध विद्वान और योगाचार परंपरा के शिक्षक थे।
बौद्ध यात्री जुआनजांग और यिजिंग जिनसे हमें नालंदा के बारे में अधिकांश ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त हुआ है।
इसके अतिरिक्त नालंदा से आर्यभट्ट, आर्यदेव, असंग, अतीश, बुद्धगुह्य, चन्द्रकीर्ति, ध्यानभद्र, कमलशील, मैत्रीपद, नागार्जुन, शान्तरक्षित, शांतिदेव, शीलभद्र, वज्रबोधि, और वसुबन्धु जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जुड़ाव का वर्णन प्राप्त होता है।
यह एक त्रासदी थी कि हमने नालंदा को खो दिया, लेकिन अगर हम हमारी सभ्यता के इतिहास की इस दुखद घटना के बारे में मार्क्सवादी इतिहासकारों को इस तरह झूठ बोलने देंगे तो यह और भी बड़ी त्रासदी होगी।
प्रस्तुत लेख की कुछ जानकारियाँ उज्ज्वल प्रताप के अंग्रेजी लेख से साभार ली गईं हैं।
तिब्बती स्रोत के आधार पर डीएन झा के दावे की वास्तविकता
डीएन झा ने नालंदा के बौद्ध विहारों के विनाश के बारे में लिखा है कि, “एक तिब्बती परंपरा में कहा गया है कि कलचूरी राजा कर्ण (11 वीं शताब्दी) ने मगध में कई बौद्ध मंदिरों और मठों को नष्ट किया था, और तिब्बती ग्रन्थ ‘पैग सैम जॉन जांग’ में कुछ ‘हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने का उल्लेख किया गया है।”
अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक में प्रतिष्ठित बौद्ध विद्वान गेशे दोरजी दमदुल द्वारा उस तिब्बती पुस्तक के उक्त अंश का अनुवाद उद्धृत किया है। अनुवाद में कहा गया है कि,
“नालंदा में राजा के एक मंत्री, काकुतसिता द्वारा एक मंदिर निर्माण के उत्सव के दौरान, कुछ शरारती नौसिखिए भिक्षुओं ने दो गैर-बौद्ध भिक्षुओं पर (बर्तन) धोने के पानी के छींटे डाले और दोनों को दरवाजे और दरवाजे की चौखट के बीच में दबा दिया। इससे क्रोधित होकर, एक (भिक्षु) जो उस दूसरे भिक्षु का सेवक था, जिसने सूर्य की सिद्धि प्राप्त करने के लिए 12 साल तक एक गहरे गड्ढे में बैठकर तपस्या की थी। सिद्धि प्राप्त करने के बाद, उसने अग्नि पूजा (हवन) की राख को 84 बौद्ध मंदिरों पर फेंक दिया। वे सब जल गए।
विशेष रूप से, शास्त्रों को आश्रय देने वाले नालंदा के तीन धर्मगंजों में भी आग लग गई, तब रत्नाधाती मंदिर की नौवीं मंजिल पर रखे गुह्यसमाज और प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों के ऊपर से पानी की धाराएं नीचे चलीं, जिससे कई शास्त्र बच गए…अपने आप हुए बलिदान के कारण उन दोनों भिक्षुओं की मौत हो गई।”
यह वह अविश्वसनीय कथा है जिसके आधार पर मार्क्सवादी इतिहासकार हिंदू धर्म को शर्मसार करने और नालंदा में हुई इस्लामिक बर्बरता को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। कोई भी स्वाभिमानी मार्क्सवादी अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सिद्धि प्राप्ति, राख से अग्निकांड, किताबों से पानी बहने, स्वतः आत्मदाह जैसे चमत्कारों पर कैसे भरोसा कर सकता है।
इस अनुवादित अंश को ध्यान से पढ़कर सोचें कि क्या ये हमारे प्रख्यात इतिहासकारों के ऐतिहासिक शोध का स्तर है जिसके आधार पर वे भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए इतने बड़े दावे कर चुके हैं।
द्वितीयक स्रोतों को भी तोड़ा मरोड़ा
अरुण शौरी आगे उल्लेख करते हैं कि डीएन झा समकालीन स्रोतों से तो बचते ही हैं, बल्कि उन्होंने प्राथमिक तिब्बती पाठ का हवाला भी नहीं दिया है। उन्होंने मार्क्सवादी परंपरा के अनुसार मूल पाठ का उल्लेख दूसरे समविचारी लेखक बी.एन.एस. यादव की पुस्तक “सोसाइटी एंड कल्चर इन नॉर्दर्न इंडिया इन द ट्वेल्थ सेंचुरी” का हवाला देकर किया है।
झा ने यादव की किताब को आधार बनाते हुए पहले भाग में लिखा था, “एक तिब्बती परंपरा में कहा गया है कि कलचूरी राजा कर्ण (11 वीं शताब्दी) ने मगध में कई बौद्ध मंदिरों और मठों को नष्ट किया था।” अब आइए देखें कि यादव ने क्या लिखा था। यादव लिखते हैं, “इसके अलावा, तिब्बती परंपरा हमें सूचित करती है कि कलचूरी कर्ण (11वीं शताब्दी) ने मगध में कई बौद्ध मंदिरों और मठों को नष्ट कर दिया”। लगभग शब्द दर शब्द समान, लेकिन, झा ने यादव की अगली पंक्ति को छोड़ दिया जिसमें लिखा है कि “यह कहना बहुत मुश्किल है कि यह विवरण कितना सही हो सकता है।” झा ने इसका जिक्र क्यों नहीं किया?
आगे झा दूसरी बार ऐसा करते हैं। झा के कथन का दूसरा भाग था, “तिब्बती ग्रन्थ ‘पैग सैम जॉन जांग’ में कुछ ‘हिंदू कट्टरपंथियों’ द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने का उल्लेख किया गया है।” इसपर यादव ने जो लिखा है उसे बहुत ध्यान से पढ़ें। वे लिखते हैं, “तिब्बती ग्रंथ पैग सैम जॉन जांग में कुछ हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने की एक संदिग्ध परंपरा है।” झा यादव को शब्द-दर-शब्द दोहराते हैं, लेकिन “संदिग्ध” शब्द हटा देते हैं।
झा ने “हिंदू कट्टरपंथियों” शब्द को कोटेशन मार्क्स में इसलिए लिखा ताकि जताया जा सके कि यह मूल लेखक द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द है, जबकि यह उनके मार्क्सवादी मित्र यादव की खोज है। तिब्बती ग्रंथ में केवल दो गैर-बौद्ध भिक्षुओं का जिक्र है, जिन्हें यादव ने पता नहीं कैसे न केवल हिंदू बल्कि हिंदू कट्टरपंथियों के रूप में पढ़ा और फिर झा ने यादव को उद्धृत कर दिया। क्या किसी अन्य व्यवसाय में होते हुए हम जनता के साथ इस स्तर की धोखाधड़ी और छल कर सकते हैं?
तो संक्षेप में झा ने समकालीन इतिहास को पूरी तरह से नजरअंदाज करके उस घटना के 500 साल बाद लिखे गए कई चमत्कारों वाले मूल तिब्बती स्रोत का प्राथमिक हवाला न देते हुए अपने मार्क्सवादी मित्र की चुनिन्दा बातें चुनकर उद्धृत कीं, जिन्हें खुद अपने दावे संदिग्ध लगते थे।
दावे का पुरातात्विक और सांस्कृतिक तौर पर मिथ्या होना
ब्राह्मण बौद्ध संघर्ष की बात करते हुए अर्वाचीन तिब्बती दस्तावेजों के आधार पर डीएन झा का कहना है कि नालंदा को ब्राह्मणों ने नष्ट किया, हालाँकि अब तक हुए पुरातात्विक उत्खननों और शोध के अनुसार इसका कोई आंतरिक साक्ष्य नहीं है।
नालंदा को जिन आसपास के गाँवों का अनुदान मिला था, उनके शोध में इतिहासकार व पुरातत्ववेत्ता प्रो. बीरेन्द्र नाथ प्रसाद ने पाया कि उन सभी गांवों में हिन्दू धर्म की प्रधानता थी, क्योंकि उन गाँवों से प्राप्त मुहरों पर वहाँ के प्रधान देवी देवताओं के चित्र उत्कीर्ण हैं, जिनमें से ज्यादातर मुद्राओं पर दुर्गा की प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसलिए यह कहना कि ब्राह्मण और बौद्धों में कट्टर शत्रुता थी और ब्राह्मणों ने नालंदा महाविहार में तोड़ फोड़कर आग लगा दिया, यह ऐतिहासिक रूप से टिकने लायक दावा नहीं है।
बहुधार्मिक रूप से संचालित था नालंदा
इस विषय पर ‘द पैम्फलेट’ के साथ हुई प्रो. बीरेन्द्र नाथ प्रसाद की बातचीत में उन्होंने बताया कि नालंदा महाविहार का हिन्दू धर्म और ब्राह्मणों से घनिष्ठ संबंध रहा है। यहाँ उत्खनन में प्राप्त कुछ मुहरों और पुरालेखीय प्रमाणों में उन राजाओं के नाम मिलते हैं जिन्होंने स्वयं को गर्व के साथ “वर्णव्यवस्था प्रवृत्त” कहा है।
यहाँ तक कि अनेक अभिलेखीय प्रमाण बताते हैं कि नालंदा महाविहार के मुख्य केन्द्र मंदिर साइट-3 से प्राप्त नालंदा के मुख्य संरक्षक देवता (Tutelary Deity) नागराज की प्रतिमा का अनुदान देने का सौभाग्य एक ब्राह्मण महायान उपासक को मिला था, जिन्होंने मुख्य संरक्षक देवता नागराज की स्थापना की थी।
यहाँ के आसपास के गाँवों से भी खुदाई में बौद्ध मूर्तियाँ, शैव मूर्तियाँ मुख्यतः उमामहेश्वर प्रतिमाएं प्राप्त हुईं हैं। प्रायः सभी विद्वानों का मानना है कि, भारत के बौद्ध संघ के शीर्ष बौद्धिक स्तर में अधिकांश ब्राह्मण बौद्ध भिक्षु थे। ‘Routledge, London and New York’ से 2021 में प्रकाशित प्रो. बीरेन्द्र नाथ प्रसाद द्वारा लिखित शोध ग्रंथ, ‘Archaeology of Religion in South Asia‘ और ‘रिसर्च इंडिया प्रेस, दिल्ली’ द्वारा 2022 में प्रकाशित व उनके द्वारा संपादित ‘Studies in the History and Culture of Ancient Indian Buddhism‘ में वर्णित प्राथमिक स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नालंदा महाविहार बहुधार्मिक रूप में कार्यरत था।
कुर्किहार से मिले पुरालेखीय साक्ष्य बताते हैं कि दक्षिण भारत के काँची से नरसिंह चतुर्वेदी नाम के ब्राह्मण आकर बौद्धभिक्षु बने और अपना नया नाम रखा। तो ये कहना कि ब्राह्मण हमेशा से बौद्ध धर्म के शत्रु थे, या उन्होंने नालंदा में ध्वंस कर दिया, यह दावा methodology की दृष्टि से भी टिकनेवाला नहीं है। ध्वंस के 500 साल बाद 17-18वीं सदी के एक तिब्बती दस्तावेज का उपयोग करके यह कहना कि नालंदा का ध्वंस कट्टरपंथी हिन्दुओं/ब्राह्मणों ने किया यह इतिहास अध्ययन की दृष्टि से उचित methodology नहीं है।
अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारत को लगातार आक्रमणकारियों से घिरी एक खाली भूमि के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने हमारे इतिहास के हिंदू काल पर कालिख पोत दी है और इस्लामिक काल पर जबरन सफेदी पोती है। उन्होंने हमारी प्राचीन संस्कृति को नीचा दिखाकर एक द्वेषपूर्वक विपरीत काम किया है: समावेशी धर्म, हमारे लोगों और भूमि की बहुलवादी आध्यात्मिक खोज को असहिष्णु, संकीर्ण सोच वाली, और रूढ़िवादी के रूप में पेश किया है; और बहिष्कारवादी, अधिनायकवादी, रहस्योद्घाटन वाले पंथ, और विचारधाराएं- इस्लाम, ईसाइयत, मार्क्सवाद-लेनिनवाद- सहिष्णुता, दया, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक बन गए हैं।”
वह आगे कहते हैं कि “उन्होंने हमारे लोगों के जीवन के सामान्य तत्वों के बारे में केंद्रीय तथ्यों को छिपाने का ध्यान रखा ताकि वे इन तथ्यों को भुला सकें कि वे इस्लामी शासकों और उलेमाओं के उन्हें मिटाने के हजारों वर्षों के कठिन प्रयासों के बावजूद बच गए हैं, मिशनरियों और ब्रिटिश शासकों के पिछले एक सौ पचास वर्षों के निरंतर प्रयासों के बावजूद बच गए हैं।”
सर रोजर स्क्रूटन ने कहा था, “संस्कृति हर उस चीज का अवशेष है जिसे लोगों ने संरक्षित करने के लिए सार्थक समझा, और यह ऐसी शिक्षा है जो हमें महत्वपूर्ण चीजों से फिर से जोड़ सकती है।”
दमनकारी धार्मिक और औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन होने के बावजूद हमारी सभ्यता एक हजार साल से ज्यादा समय तक जीवित रही क्योंकि हमारे लोगों ने इसे अगली पीढ़ी और फिर उसके अगली पीढ़ी तक पहुँचाने और संरक्षित करने लायक समझा। आज हमारे पास जो कुछ भी है वह अकल्पनीय परिस्थितियों में पूर्वजों के बलिदान के कारण है।
गुरु पद्मसंभव: जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना की
ज्यादातर ज्योतिर्लिंग मन्दिरों पर विदेशियों ने किए थे हमले
श्राद्ध : भारत तक नहीं सीमित, दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में अब भी मनाते हैं