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Home » राष्ट्र के विकास में बाधा है आधी आबादी के अधिकारों का हनन
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राष्ट्र के विकास में बाधा है आधी आबादी के अधिकारों का हनन

Pratibha SharmaBy Pratibha SharmaOctober 29, 2022No Comments7 Mins Read
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राष्ट्र के विकास में बाधा है आधी आबादी के अधिकारों का हनन
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मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्यूबर्टी की आयु 15 वर्ष बताई गई है। इसलिए नाबालिग लड़की का विवाह गैर-कानूनी नहीं है और ना ही यह बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 की धारा 12 के खिलाफ है। यह कहना है पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का।

जिस कानून का जिक्र हाईकोर्ट ने किया है, धारा 12 के अनुसार, बाल विवाह को 18 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही शून्य किया जा सकता है। इसमें बलपूर्वक, अपहरण, तस्करी, छल या जबरदस्ती विवाह करना शामिल है। जाति धर्म का इसमें उल्लेख नहीं है क्योंकि ‘कानून सबके लिए समान है’।

बहरहाल, कोर्ट का निर्णय सर्वमान्य है और उस पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सकता लेकिन, सोशल मीडिया पर महिला अधिकारों को लेकर बहस छिड़ गई है।

महिला अधिकार क्या है? ये कब से है.. इसका लंबा इतिहास रहा है।

सर्वप्रथम तो भारतीय संविधान में लैंगिक समानता सुनिश्चित की गई है। संविधान राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति देता है ताकि महिलाओं के प्रति सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अलाभ की स्थिति को कम किया जा सके। महिलाओं को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किए जाने (अनुच्छेद 15) और विधि के समक्ष समान संरक्षण (अनुच्छेद 14) का अधिकार संविधान से प्राप्त है।

कानूनी धाराओं की बात करें तो पॉक्सो की धारा 5(ढ़) किसी के द्वारा बच्चे पर प्रवेशन लैंगिक हमले को दंडित करता है। आईपीसी की धारा 375 के अनुसार, 18 वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ संभोग कानूनी रूप से दंडनीय अपराध है। वहीं, धारा 375 का ही एक अपवाद भी है, जिसमें पुरुषों को 15 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ वैवाहिक सम्बन्ध की अनुमति दी गई है।

यहाँ पर वर्ष 2017 में ‘इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला भी याद रखना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी, जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम है, के साथ यौन संबंध भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत बलात्कार के बराबर है।

एक तरफ कानून महिलाओं को सम्मान से जीने का अधिकार देता है और न्यायपालिका उनका संरक्षण करती है लेकिन, कई वर्षों से न्यायपालिका समाज के बुद्धिजीवियों को यह मौका दे रही है कि वे न सिर्फ ऐसे फैसलों पर सवाल खड़े कर रहे हैं बल्कि, कहीं ना कहीं इनको महिला विरोधी भी बता रहें हैं।

हाल ही में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक 4 वर्षीय बच्ची के रेप मामले में दोषी की सजा घटाते हुए कहा था कि रेप के बाद बच्ची को जिंदा छोड़ दिया, काफी ‘दयालु’ था। ये सुनने में कितना भी अजीब हो लेकिन, पहली बार संभवता नहीं है।

न्यायपालिका तो अभी तक मैरेटियल रेप पर एक राय भी नहीं बना पाई है कि ये सही है या गलत। जहाँ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का कहना है कि शादीशुदा महिला के साथ संबंध चाहे वो जोर जबरदस्ती बनाए जाए रेप नहीं कहे जा सकते। वहीं, सुप्रीम कोर्ट  के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड ने एक फैसले के तहत मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) में मैरेटियल रेप को भी शामिल किया था।

जनवरी, 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिया बयान तो याद ही होगा, जिसमें कहा गया था कि ‘स्किन टू स्किन’ के बिना नाबालिग को संवेदनशील स्थान पर छूना यौन शोषण नहीं है। वहीं, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने तो पीड़ितो को उसके यौन हमलावर को राखी बाँधने को ही बोल दिया था।

जब न्यायालयों से ऐसे आदेश सामने आते हैं कि यौन हमले के बाद महिला सो कैसे सकती है? ये भारतीय महिला की नैतिकता हो ही नहीं सकती, तो न्याय मिलन पर महिला वर्ग का संदेह करना जाहिर है।

देश की आधी आबादी के अधिकारों का संरक्षण होना चाहिए और सबके लिए समान होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। न्यायाधीशों से ऐसे फैसले विरोधाभास की स्थिति तो बनाते ही हैं साथ ही, एक वर्ग को मौका दे देते हैं महिला अधिकारों के हनन करने का, देश के कानूनों का मखौल बनाने का।

मोदी सरकार द्वारा विवाह की उम्र को 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष करने की मंजूरी दी गई। ये फैसला बाल विवाह को रोकने, महिला और बच्चे का स्वास्थ्य, संपूर्ण स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किया गया।

ये क्यों जरूरी है? महिला की शादी की उम्र से समाज क्यों प्रभावित होता है? सीधा सा जवाब है अगर देश की आधी आबादी को आप 15 वर्ष की आयु में ही मुख्यधारा से अलग कर देंगे तो क्या राष्ट्र प्रगति की राह पर उसी गति से आगे बढ़ पाएगा?

ये किसी एक समुदाय या धर्म की बात नहीं है। देश में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि लड़कियों की कम उम्र में शादी कर देनी चाहिए, इसके वो अलग-अलग कारण बताते हैं, लेकिन मिलते सभी एक जगह ही हैं- महिलाओं के दमन और अधिकारों को लेकर रूढ़िवादिता पर।

2021 में 1050 बाल विवाह रिपोर्ट किए गए यानी कि प्रतिदिन 3 से ज्यादा बाल विवाह हुए हैं। ये रिपोर्ट सिर्फ राजस्थान, मध्य प्रदेश या हिंदी बेल्ट के राज्यों की ओर इशारा नहीं करती हैं, इसमें तो स्टार्ट-अप हब कर्नाटक भी शामिल है। जहाँ राजस्थान में रिपोर्ट के अनुसार, 93 केस आए तो कर्नाटक में 894 मामले दर्ज हुए थे।

महिलाओं को बराबर अधिकार मिले इसके 5 आधार हो सकते हैं-  जच्चा-बच्चा का स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, वित्तीय सुरक्षा, शैक्षणिक एवं वित्तीय कार्यक्रमों से भविष्य की सुरक्षा और महिलाओं की सुरक्षा।

इन आधारों को जितना जल्दी प्राप्त कर लिया जाए अच्छा है लेकिन, अगर बाल विवाह का अस्तित्व रहा, किसी भी तरह से तो इन्हें प्राप्त करना जरा मुश्किल है। बात जब राष्ट्र निर्माण की हो तो आप आधी आबादी को कार्यबल से बाहर नहीं कर सकते।

राष्ट्र के विकास या संस्कृति की बात हो तो उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्यान के साथ महिलाओं की स्थिति का अध्ययन भी किया जाता है। राजनीति, बिजनेस, कला और खेल सहित महिलाएँ आज सेना का अभिन्न हिस्सा है। महात्मा गाँधी ने कहा था, “महिलाएँ पुरुषों से बेहतर सैनिक साबित हो सकती हैं, बस उन्हें मौका देने की जरूरत है।”

भारत को लेकर वर्ल्ड बैंक की राय सामने आई थी कि महिलाएँ अगर ज्यादा से ज्यादा कार्यबल का हिस्सा बने, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में बढ़ोत्तरी हो, तो विकास दर में अभूतपूर्व  वृद्धि हो सकती है।

2005 में कार्यबल और रोजगार की खोज में जुटी महिलाओं की भागीदारी 32% थी। वहीं, 2019 में ये घटकर 21% रह गई। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 5 वर्षों में 2 करोड़ महिलाएँ नौकरियों से अलग हुई है। ये मात्र आधी आबादी को घर तक सीमित करने की बात नहीं है ये देश के आधे कार्यबल को मुख्यधारा से अलग करने की बात है।

जब महिला अधिकारों की बात आती है या इनके संरक्षण के लिए योजनाएँ चलाई जाती हैं तो ये उनके व्यक्तिगत विकास के लिए भी जरूरी होती हैं, उनकी स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं। भले ही, महिलाओं के एक वर्ग को विश्वास दिला दिया गया हो कि सामाजिक बंधन और कथित ‘विकासवादी परम्पराएँ’ ही उनके जीवन को सफल बनाएँगी।

महिला अधिकारों को  किसी भी प्रकार से रोका जाना या इनका दमन करना व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय विकास का दमन है। देश के प्रधानमंत्री जब लाल किले की प्राचीर से महिलाओं का अनादर बंद करने की अपील करते हैं, तो उसमें उनकी (महिलाओं की) शिक्षा, सम्मान, समानता का अनादर शामिल नहीं होता क्या?

महात्मा गाँधी ने कहा था, “जहाँ तक स्त्रियों के अधिकारों का सवाल है, मैं कोई कोई समझौता नहीं कर सकता.. नारी को अबला कहना उसकी मानहानि है”।

एक तरफ जहाँ नारी को अबला कहना मानहानि बताया गया वहीं, क्या हम नारी को अबला बना नहीं रहे हैं? एक क्षण ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है।

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