‘बहुसंस्कृतिवाद’ अर्थात ‘मल्टीकल्चरलिस्म’ जिसने पिछले एक दशक में यूरोपीय देशों में खूब चर्चा बटोरीं हैं। कुछ विमर्श इसके पक्ष में देखे गए हैं और कुछ विपक्ष में। इसके साथ-साथ ही कुछ नफे-नुकसान भी हैं। वर्तमान में इसका संदर्भ यूरोप में लगातार हो रही हिंसक घटनाओं से है।
फीफा विश्वकप 2022 वैसे भी कम विवादों में नहीं रहा, लेकिन कुछेक घटनाएं ऐसी हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय देशों में देखा जा रहा है। विश्वकप के दौरान फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड्स आदि यूरोपीय देशों में कई हिंसक घटनाएं हुईं। ध्यान देने वाली बात है कि ये हिंसक घटनाएं मोरक्को के विश्वकप के सफर के सामानांतर चलती रहीं। यह पैटर्न हम भारतीयों के लिए कुछ नया नहीं है लेकिन यूरोप में अब यह मामले जगह बनाने लगे हैं।
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मोरक्को उत्तरी अफ्रीका का एक इस्लामी देश है जिसे जिब्राल्टर जलसंधि यूरोप से अलग करती है। मोरक्को इस विश्वकप के दौरान बेहतरीन खेल दिखते हुए बेल्जियम, स्पेन, पुर्तगाल, क्रोएशिया जैसे दिग्गज टीमों को हराकर सेमीफाइनल्स तक पहुँच गई थी। यह पहला अवसर था जब किसी भी अफ्रीकी देश ने सेमीफाइनल्स तक का सफर तय किया हो।
इन जीतों के साथ यूरोप में मोरक्को के समर्थक शरणार्थियों ने जबरदस्त उत्पात मचाया। सेमीफ़ाइनल में इन्हें फ्रांस के हाथों शिकस्त झेलनी पड़ी और जैसी आशंकाएं थीं फिर वैसा ही हुआ। बावजूद पेरिस पुलिस के हाई अलर्ट पर होने के हिंसक घटनाएं हुईं मोरोक्को के समर्थक और पुलिस के बीच झड़प हुई। फ्रांस की जीत का जश्न मनाते आम लोगों को भी पीटा गया।
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बहुसंस्कृतिवाद से जूझता यूरोप
यूरोप में दुनिया भर के लोग आकर बसे हैं और इनका पलायन यूरोप में मुख्य रूप से वर्क फ़ोर्स के तौर पर हुआ था। इन्होंने अपनी मेहनत और काबिलियत के बल पर इन देशों के नियम और कानूनों का पालन करते हुए इनके विकास में अहम योगदान दिया है। स्वाभिक है कि वे अपने साथ अपने संस्कृति को भी लेकर आए हैं। लेकिन कभी भी इनके द्वारा सांस्कृतिक-सभ्यतागत तौर पर अन्य लोगों पर हावी होने का प्रयास नहीं किया गया। यही कारण है कि यूरोपीय समाज भी विविधतापूर्ण हुए हैं जो बहुसंस्कृतिवाद का सकारात्मक पहलु है।
परंपरागत तौर पर ओटोमन साम्राज्य को छोड़ यूरोप के भीतरी भागों में कभी भी बहुसंस्कृतिवाद का प्रभाव नहीं रहा। गौरतलब है कि बात धार्मिक संस्कृतिवाद की हो रही है। यूरोपीय टकराव का कारण साम्राज्यवाद जरूर रहा है परन्तु ‘एक धर्म-एक ईश्वर’ ने सांस्कृतिक टकराव को पनपने नहीं दिया। कालांतर में धीरे-धीरे बालकन्स देशों में इसका प्रसार होता गया। बोस्निआ और हर्ज़ेगोविना जैसे देशों में धार्मिक संस्कृतिवाद के टकराव भी देखे जाने लगे।
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इन सबसे अलग हाल के अफ्रीकी एवं मध्य और पश्चिमी एशियाई देशों में ऊपजे शरणार्थी संकट के बाद कहा जाता है कि यूरोपीय देशों ने मानवीय आधार पर ओपन डोर पॉलिसी अपनाई। हालाँकि एक पक्ष यह भी है कि पिछले कुछ दशकों में यूरोप में जनसंख्या वृद्धि लगातार गिरती जा रही थी और सामाजिक-पारिवारिक तौर पर भी लोग ज्यादा संतानों को लेकर सकारात्मक नहीं देखे जाते।
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि कई यूरोपीय देशों में ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले दम्पतियों को पुरस्कृत भी किया जाता है। सरकारें उन्हें प्रोत्साहित करती हैं लेकिन पिछले सौ-दो सौ सालों में ‘पाश्चात्यकरण’ (वेस्टर्नाइज़ेशन-एक विचार के रूप में) ने जीवन-शैली में बहुत बदलाव कर दिया है।
ऐसे में इस शरणार्थी संकट को इन यूरोपीय सरकारों ने एक अवसर की तरह देखा। अपेक्षा थी कि वैध तरीक़े से प्रवासी बने हुए भारतीय, जापानी, चीनी जैसे अन्य देशों से पलायन हुए लोगों की भांति इन देशों से आए शरणार्थी भी आर्थिक विकास में सहयोगी होंगे। इसी ध्येय के साथ लाखों-करोड़ों शरणार्थियों को आने दिया गया जिससे यूरोप में जनसंख्या वृद्धि तो हुई लेकिन कई प्रकार के संकट भी पैदा हो गए।
कायदे से इनके नियमित डॉक्यूमेंटेशन के बाद इन्हें स्किल्ड लेबर फ़ोर्स में कन्वर्ट करना था लेकिन इससे पहले कि इन्हें प्रशिक्षित किया जाए, ये कट्टरपंथी मुस्लिमों के हाथों लग गए। अब परेशानी यह है कि जिसे ‘एसेट’ समझकर घर में लाया गया था, वह अब ‘लाइबिलिटी’ बन बैठे हैं।
सरकारों द्वारा इन्हें कथित ‘मानवीय आधार’ पर मूल-भूत सुविधाएं तो दी जा रहीं हैं लेकिन इन शरणार्थियों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझीं। जिन यूरोपीय देशों के शहरों को उनके विश्वस्तरीय सुविधाओं और खूबसूरती के लिए जाना जाता था आज वह भी झोंपड़ियों और फुटपाथ पर पड़े लोगों से भरे पड़े हैं। गन्दगी और कूड़े के ढेर पड़े देखे जा सकते हैं। (उम्मीद है हॉलीवुड के निर्माता-निर्देशकों को स्लम-डॉग मिलेनियर जैसे फिल्मों के लिए अब भारत आने की जहमत न उठानी पड़े।)
साथ ही इस्लामी कट्टरवाद के बढ़ते प्रभाव ने जनता और सरकारों की नींदें उदा दी हैं। शरिया और इस्लामी कायदे-कानूनों की माँगें अब पूरे यूरोप से उठने लगी हैं। सड़कों, सार्वजनिक स्थानों को घेरकर नमाज़ें होने लगीं, सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में मस्जिदें बन गईं। सिविल डिसऑर्डर और क्राइम ग्राफ आसमान छू रहे हैं। लूट, हत्या, बलात्कार (सामूहिक भी), पत्थरबाज़ी, आगजनी अब सामान्य घटनाएं हो गईं हैं।
लव जिहाद और ग्रूमिंग गैंग का कांसेप्ट ही ग्लोबल हो गया है। जेल और क़ैदख़ाने कम पड़ गए हैं। गाज़ा-फिलिस्तीन, कश्मीर से लेकर दुनिया में कहीं भी इस्लामी और गैर-इस्लामी मतभेद और टकराव हों, इनका सीधा-सीधा असर अब यूरोपीय देशो में भी देखने को मिलने लगा है।
हज़ारों की संख्या में सड़कों पर निकल कर हिंसक विरोध होने लगे हैं। हालाँकि, जब टकराव दो इस्लामी देशों/गुटों के बीच ही हो तब इनकी धार्मिक और मानवीय उन्माद नहीं उमड़ती। सार्वजनिक सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया जाने लगा है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो जिन्होनें भारत और इज़रायल जैसे देशों में धार्मिक संस्कृतिवाद के टकरावों को मानवाधिकारों के नाम पर उछालकर छवि ख़राब करने की कोशिश करते आए हैं, आज नियति ने उन्हें स्वयं ही उसी परिस्थिति में ला कर पटक दिया है।
भारत के सन्दर्भ में रोहिंग्या संकट को देखा जा सकता है। हालाँकि भारत की इन यूरोपीय देशों जैसी न कोई मजबूरी थी न ही कोई उम्मीद तो कहा जा सकता है कि रोहिंग्याओं को मानवीय आधार पर ही शरण दी गई थी। जैसे भारत में रोहिंग्याओं को ‘इंस्टूमेंट्स ऑफ़ डेमोग्राफिक चेंज’ जैसे प्रयोग में लाया जा रहा है ठीक वैसे ही यूरोप में प्रयास हो रहे हैं। लेकिन इन यूरोपीय देशों ने रोहिंग्या मुद्दे पर भारत पर कई बार दबाव भी बनाया है।
शरणार्थी संकट के कारण ही तो यूनाइटेड किंगडम ने ब्रेग्ज़िट के लिए वोट किया (थोड़ी देर से ही सही लेकिन शायद ब्रिटिशर्स को समझ आ गया होगा कि आर्थिक-राजनितिक संकट से जूझना वर्तमान में अन्य यूरोपीय देशो में उपजे संकट से कहीं ज्यादा फायदेमंद है) इन घटनाओं के बाद कुछेक देशों ने इस्लामिक कट्टरवाद पर लगाम लगाने के प्रयास किये गए हैं। लेकिन अब हरेक प्रयास को ‘इस्लामॉफ़ोबिक’ बता दिया जाता है।
एक बात तो स्पष्ट तौर पर माननी होगी कि कट्टर इस्लामवादियों ने ‘आर्ट ऑफ़ डिसीट’ और ‘आर्ट ऑफ़ विक्टिमहुड’ में मास्टरी कर ली है। साथ ही साथ, एक बहुत बड़ा और असरदार मेकेनिज़्म है इनकी दुनियाभर में, जो इन बातों को लेकर हाय-तौबा मचाता है।
अब देखने वाली बात किस हद तक ये देश अपने हितों को ताक पर रखकर मल्टीकल्चरलिज़्म के विषपान करते रहेंगे? कब तक अपने कोज़ी लाइफ-स्टाइल के आदि लोग इन असहज परिस्थितियों में धैर्य बनाए रख सकते हैं? कब तक स्टैण्डर्ड ऑफ़ लाइफ, हैप्पीनेस इंडेक्स, क्राइम इंडेक्स, हंगर इंडेक्स, रिलीजियस फ्रीडम इंडेक्स आदि जैसे ग्लोबल इंडिसेज़ में उच्च रैंकिंग के भरोसे दुनिया को छलते रहेंगे?
वैसे एक प्रश्न यह भी है कि क्या इन ‘इंडेक्सेज’ में शरणार्थी के आने के बाद उपजे संकट के आंकड़ों को शामिल किया जाता है? और यदि किया जाता है तो रैंकिंग में इतने उलटफेर कैसे देखे जाते हैं?