समर्थक और कार्यकर्ता में अंतर होता है। सोशल मीडिया का मौजूदा दौर, इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए बढ़िया अवसर है। उदाहरण के तौर पर देखना है तो ये देखिये कि भारत के संविधान में इमरजेंसी के दौर में, विपक्ष को जेल में फेंककर, सीधे प्रस्तावना में बदलाव किये गए और “समाजवादी” तथा “पंथनिरपेक्ष” जैसे शब्द घुसा दिए गए। इस काल के बाद से राजनैतिक रूप से सभी “समाजवादी” ही हैं। भाजपा का पार्टी संविधान उसे समाजवादी कहता है, कांग्रेस का पार्टी संविधान भी उसे समाजवादी ही बताता है। आम आदमी पार्टी हो, राजद हो, सपा हो या मौजूदा छत्तीस अलग-अलग में से कोई एक कम्युनिस्ट पार्टी, सब के सब समाजवादी ही हैं। कोई देखे तो उसे न चाहते हुए भी अदम गोंडवी की कविता की पंक्तियाँ याद आ जाएँ –
“पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में”
इस चक्कर में समाजवाद का क्या हुआ? ये सोशल मीडिया पर जारी बहसें बता देती हैं। इस वर्ष मुलायम सिंह यादव को पद्म पुरस्कार दिए जाने की खबर आते ही इसकी चौतरफा निंदा शुरू हो गयी है। निंदा की वजह ये है कि मुलायम चुनावी सभाओं में कहा करते थे कि उन्होंने चौदह कारसेवकों को मरवाया और अवसर आता तो चार सौ को मरवा देते! निहत्थे राम जन्मभूमि आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलवाना जैसे कोई वीरता पुरस्कार के योग्य काम हो! उनके बाद भी उनकी “समाजवादी पार्टी” का रवैया श्री राम और उनसे जुड़े प्रतीकों के विषय में वैसा ही है। सपा के केशव प्रसाद मौर्या रामचरितमानस पर बयानबाजी कर चुके हैं और एक दूसरे छुटभैये नेता तो सीधे उसे प्रतिबंधित करने की मांग लिए बैठे हैं। इसके बाद अचानक राजनेताओं को समझ में तो आने लगा होगा कि समर्थक कुछ भी गलत कहने पर कार्यकर्ताओं की तरह चुप नहीं रहते। वो अपना विरोध दर्शा भी देते हैं। हाँ ये जरूर है कि राजनेता फ़िलहाल इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं।
ऐसा क्यों हुआ, इसके पीछे की वजह समझनी हो तो हमें थोड़ा पीछे, इतिहास में झांकना पड़ता है। अधिकांश समाजवादी लोहिया की कसमें खाते नजर आते हैं। अफसोस कि इन राजनेताओं ने स्वयं राममनोहर लोहिया का लिखा लेख “राम कृष्ण और शिव” पढ़ा ही नहीं! अगर उन्होंने लोहिया के आदर्श, उनके सिद्धांतों को बूटों तले रौंदने के बदले कहीं इस लेख को पढ़ा होता तो भारत को और भारत के जनमानस को समझने में उन्हें बड़ी सुविधा होती। इस लेख में राममनोहर लोहिया पुराने ग्रीक-रोमन देवी-देवताओं से राम, कृष्ण और शिव की तुलना करते हुए कहते हैं कि उन देवी-देवताओं को कुछ गिने-चुने पढ़े-लिखे लोग ही पहचान पाएंगे। इसकी तुलना में भारत में अशिक्षित लोग भी जानते हैं कि राम, कृष्ण और शिव कौन हैं। उनकी कुछ कथाओं से हर दूसरा व्यक्ति परिचित होता है। इतिहास में ये लोग थे या नहीं, इस बात से भारतीय समाज को कुछ लेना-देना ही नहीं। ये सामाजिक ताने-बाने में कुछ ऐसे घुले मिले हैं कि इनके बिना भारत में त्योहारों तक की कल्पना संभव नहीं।
अपने इस लेख में राममनोहर लोहिया कहते हैं कि किंवदंतियाँ किसी भी समाज की चाह, इच्छा और अकांक्षाओं का प्रतीक हैं। राम, कृष्ण और शिव भारत की उदासी और साथ-साथ रंगीन सपने भी हैं। साहित्य का दूसरा पक्ष देखें तो करीब-करीब इसी विषय पर आचार्य विद्यानिवास शुक्ल “मोरे राम का भीजे मुकुटवा” नामक एक लोकगीत की बात करते हैं। वो बताते हैं कि श्री राम का वनवास कोई बीती हुई कथा भर नहीं है। श्री राम का वन में होना किसी भी भारतीय पिता को उसी तरह दुखी करता है जैसे वो उसके स्वयं के बेटे के दूर जाने, कहीं वनों में होने की घटना हो! इसी बात को आगे बढ़ाते हुए लोहिया कहते हैं, “उनकी कहानियों में एकसूत्रता ढूंढना या उनके जीवन में अटूट नैतिकता का ताना-बाना बुनना या असंभव व गलत लगने वाली चीजें अलग करना उनके जीवन का सब कुछ नष्ट करने जैसा होगा”। कैसी विचित्र बात है कि लोहिया के ही समाजवादी आज “रामचरितमानस” को बदलने की वकालत करने निकले हैं!
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लोहिया पूर्णता की बात करते हैं। उनके राम की पूर्णता एक मर्यादित व्यक्तित्व में है। उनके कृष्ण की पूर्णता एक उन्मुक्त या सम्पूर्ण व्यक्तित्व में है। उनके शिव एक असीमित व्यक्तित्व वाले हैं, लेकिन वो भी पूर्ण हैं। वो आज के समाजवादियों से भिन्न हैं। वो रामचरितमानस में से कोई हिस्सा काट-छांट कर फेंकना नहीं चाहते। आज का तथाकथित समाजवादी एक दूसरे में घुलते मिलते अलग अलग व्यक्तित्वों को बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहा। उसे भारत की अनेकता में एकता वाले वक्तव्य से भी संभवतः समस्या ही होगी। लोहिया के मुताबिक मर्यादित व्यक्ति हमेशा नियमों के दायरे में रहता था। इस सम्बन्ध में उनका ध्यान तुरंत इस बात पर जाता है कि “राम ने अपनी दृष्टि केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थी। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है”। लोहिया स्वीकारते हैं कि राम के जीवन में ऐसी घटनाएँ हुई जिनसे उनके मर्यादित व्यक्तित्व पर प्रश्न भी उठे। नियम अविवेकपूर्ण था, सजा क्रूर थी और पूरी सीता निर्वासन की घटना कलंक थी, ये स्वीकारते हुए भी लोहिया कहते हैं उन्होंने नियमों का पालन किया। अपने लिए विकट परिस्थिति के उपस्थित होते ही श्री राम ने नियम नहीं बदले इसलिए वो पूर्ण मर्यादा पुरुष थे।
लोहिया के मुताबिक “अटकलबाजियों या क्या हुआ होता, इस सोच में समय नष्ट करना निरर्थक और नीरस है। राम ने क्या किया था या क्या कर सकते थे, यह एक मामूली अटकलबाजी है, इस बात की अपेक्षा कि उन्होंने नियम का यथावत पालन किया जो मर्यादित पुरुष की एक बड़ी निशानी है।” जब इस लेख में लोहिया के विचार देखते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि लोहिया के विचारों को आज का तथाकथित समाजवादी अपनी जिद में बूटों तले रौंदने पर आमादा है। जाहिर ही है कि स्वयं उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग जो सोचता-समझता है, ऐसी दुष्टता का विरोध करेगा। इस विरोध से तथाकथित समाजवादियों की चेतना जागेगी या राजनैतिक हितों के लिए वो एक समुदाय विशेष को तेल लगाते हुए समाजवादी से मसाजवादी बनकर समाप्त होंगे, ये तो समय ही बतायेगा।