आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू की जयंती है। 6 मई 1861 के दिन आगरा में जन्मे मोतीलाल नेहरू के भारत के स्वतंत्रता सेनानी थे, एक मशहूर वकील थे और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नज़दीकी थे। लेकिन आइये आपको वो चुनिंदा बातें बताते हैं जो शायद बहुत कम लोग ही जानते होंगे।
मोतीलाल नेहरू नहीं, मोतीलाल कौल
यह किस्सा शुरू होता है वर्ष 1710 से, कश्मीर के राज नारायण कौल ने कश्मीर के इतिहास पर एक किताब लिखी। किताब का नाम था ‘तारिख़ी कश्मीर’। किताब इतनी सफल हुई कि तत्कालीन मुग़ल शासक फर्रुखसियर भी इस किताब का प्रशसंक बन गया। फर्रुखसियर ने राज नारायण कौल को दिल्ली बुला दिया और दिल्ली में ही बस जाने की पेशकश कर दी।
बादशाह ने राजनारायण को चांदनी चौक में कुछ जागीर और एक हवेली दे दी।
इस हवेली के पास एक नहर बहती थी। इसकी वजह से वहाँ रहने वाले कश्मीरी लोग राज नारायण कौल एवं उनके परिवार को ‘कौल-नेहरू’ कहकर सम्बोधित करने लगे और यह सिलसिला चलता गया। हालाँकि ‘नहर’ से ‘नेहरू’ नाम जुड़ने के इस तथ्य को कुछ इतिहासकार नकारते भी हैं।
इन्हीं नारायण कौल के परपोते हुए लक्ष्मी नारायण कौल और लक्ष्मी नारायण के पोते थे मोतीलाल कौल।
इतिहासकार अशोक पांडेय मीडिया पोर्टल लल्लनटॉप के जरिये बताते हैं, “मोतीलाल ने अपने नाम से ‘कौल’ हटा दिया और वो बस ‘नेहरू’ सरनेम ही रखने लगे। उनके बेटे जवाहरलाल ने भी पिता की ही तरह अपने नाम में बस नेहरू ही लगाया। उसी दौर से यह परिवार नेहरू उपनाम से जाना जाने लगा”
मुग़ल और ईस्ट इंडिया के वफादार
कौल-नेहरू परिवार पहले मुग़ल शासकों के और फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी का करीबी माना गया। बीआर नंदा अपनी किताब ‘द नेहरू, मोतीलाल एंड जवाहरलाल’ (The Nehrus: Motilal and Jawaharlal) में बताते हैं कि जब मुग़लों का पतन हुआ तो इसका परिणाम नेहरू परिवार को मिली हुई जागीर पर भी दिखना शुरू हुआ। नेहरू परिवार को मिली हुई जागीर कम होती ही चली गयी। और फिर एक मौका ऐसा आया जब इस परिवार के पास सिर्फ जमींदारी जैसे अधिकार ही रह गए
हालाँकि ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन आया और उन्हें नज़दीकी होने का ईनाम मिलता रहा। कम्पनी ने मुग़ल दरबार में मोतीलाल नेहरू के दादा लक्ष्मी नारायण को अपना वकील नियुक्त कर दिया। इसके बाद से ही नेहरू परिवार की किस्मत चमक गयी थी।
दो बार किया बाल विवाह
मोतीलाल नेहरू ने दो बार विवाह किया था। पहले विवाह के समय वे नाबालिग थे और दूसरे विवाह की समय उनकी पत्नी स्वरुप की उम्र 14 वर्ष थी जब कि वे 25 वर्ष के थे। पंडित नेहरू स्वरूप के ही पुत्र थे।
बेटी के मुस्लिम प्रेमी का विरोध
शीला रेड्डी ने अपनी किताब ‘मिस्टर एंड मिसेज जिन्ना: द मैरिज दैट शुक इंडिया‘ में दावा किया है कि मोतीलाल नेहरू का धर्मनिरपेक्षता का पालन सिर्फ एक दिखावा था। किताब में उन्होंने बताया था कि कैसे मोतीलाल नेहरू अपनी बेटी का एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ प्रेम संबंध का विरोध करते थे।
शीला बताती हैं कि मोतीलाल नेहरू की बड़ी बेटी और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजया लक्ष्मी पंडित एक मुस्लिम पत्रकार सैयद हुसैन के साथ प्यार में पागल थीं लेकिन मोतीलाल नेहरू इस अफेयर को खत्म करना चाहते थे। हालाँकि इससे पहले ही दोनों ने “चुपके से शादी” कर ली थी।
मोतीलाल नेहरू की एकमात्र शिकायत यह थी कि हुसैन मुसलमान थे।आपको जानकार हैरानी होगी कि वे अपनी बेटी को इस संबंध तोड़ने हेतु राजी करने के लिए गांधी की मदद चाहते थे।
हालाँकि दोनों के बीच संबंध का पता चलने के कुछ दिनों बाद ही सय्यद इलाहाबाद से बाहर चले गए और कुछ हफ्तों के बाद उन्हें कॉन्ग्रेस के सदस्य के रूप में विदेश भेजा गया। जिसके बाद वे 1946 तक भारत कभी नहीं लौटे।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या नेहरू खानदान का हिंदू मुसलमान एकता का सिर्फ एक दिखावा था?
परिवारवाद के जनक: मोतीलाल नेहरू
वर्ष 1928 में कांग्रेस पार्टी में चर्चा थी कि पार्टी अध्यक्ष किसे बनाया जाए। कुछ सदस्य युवा नेताओं को आगे लाना चाहते थे वहीं कुछ सदस्य अनुभवी नेताओं के हाथ में बागडोर सौंपना चाहते थे।
इस बीच कांग्रेस में अच्छी पकड़ रखने वाले मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी को एक विशेष पत्र लिखा। मोतीलाल नेहरू लिखते हैं कि अब समय आ गया है कि पार्टी को जवाहर लाल जैसे युवा नेताओं को सौंप दिया जाना चाहिए।
लेकिन महात्मा गाँधी ने इस पर सहमति नहीं जताई और मोतीलाल नेहरू ने फिर से पत्र लिख कर कहा, “मुझे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में जवाहर ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प होंगे। हमारी पीढ़ी खत्म होती जा रही है। आजादी का यह संघर्ष आज नहीं तो कल जवाहर जैसे लोगों को ही जारी रखना होगा। इसलिए जितना जल्दी वे शुरुआत करें, उतना अच्छा होगा।”
इसके बाद जवाहर लाल नेहरू को अगले वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष बना दिया गया।
ऐसा नहीं है कि मोतीलाल नेहरू ने पुत्र मोह में सिर्फ एक ही बार सिफारिश की हो।
पुत्र को नाभा जेल से निकालने के लिए वायसराय से सिफारिश
वर्ष 1923 में जवाहर लाल नेहरू को नाभा जेल भेजा गया लेकिन वहां से वे मात्र 12 दिनों में ही छूट गए। इस सहज रिहाई के पीछे उनके पिता मोतीलाल नेहरू की ही भूमिका थी।
दरअसल, नाभा जेल से जवाहरलाल नेहरू को छुड़ाने के लिए चिंतित मोतीलाल नेहरू ने सभी प्रयास किये।पहले उनकी लोकेशन को पता किया गया कि उन्हें किस जेल में रखा गया है जिसके लिए उन्होंने पंजाब में कई अधिकारियों और सूत्रों की मदद ली। फिर जानकारी मिलने के बाद स्नान से लेकर कपड़े बदलने तक की व्यवस्था कर दी गई। मित्रों से फलों से लेकर अन्य खाद्य पदार्थ मँगवाने की अनुमति भी दे दी गई।
यहाँ तक कि जवाहर लाल नेहरू को छुड़ाने के लिए मोतीलाल ने वायसराय से भी संपर्क किया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इस किस्से का नाभा ‘प्रताड़ना’ के रूप में बताया है कि – साफ़ सफाई की व्यवस्था नहीं थी, छोटा कमरा था जिसमें चूहे भी थे और जमीन पर सोना पड़ता था। जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेज़ों को माफीनामा लिखा इसके बाद वे रिहा हुए थे।
आज जिस नेहरू-गांधी परिवार ने वीर सावरकर के बलिदान को भी ‘माफ़ीनामे’ के पत्र से तौलते हुए उसे नकारने के साथ-साथ हास्य का विषय भी बनाया है, वह नेहरू-गांधी परिवार और उसके समर्थक अपने इतिहास के पन्ने शायद ही पलटना चाहते हों। आज के संघर्ष में कई ऐसे पन्ने हैं जिन्हें आज भी इस एक परिवार के चश्मे और नज़रिए से ही हम सभी देखते या पढ़ते आ रहे हैं। अब आवश्यकता है कि इन पर बात की जाए ताकि आने वाला समय त्याग की कहानियों को उपहास में बदलने से पहले उसकी तुलना एक बार नेहरू-गांधी परिवार के इतिहास से भी कर सकें, जहां परिवारवाद, सत्ता का लोभ और अधूरे सच के सिवाय और कुछ नहीं मिलता।
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