मनुष्य को इस संसार में लाना तो कठिन हैं लेकिन उसे भला आदमी बनाना और भी कठिन है। ये पंक्तियाँ मैं आपको रूसी उपन्यासकार मैक्सिम गोर्की के उपन्यास माँ से सुना रहा हूँ। 14 मई को सभी लोगों ने मदर्स डे मनाया। जिसके पास जैसे शब्द थे उसने उस तरह से बताया कि ‘माँ’ कितना खूबसूरत शब्द है। उस से भी खूबसूरत होते हैं माँ के साथ के हमारे छोटे-बड़े अनुभव, उनका हर वक्त अपने बच्चे के लिये चिंतित होना, यहाँ तक ध्यान रखना कि उसे क्या ख़ाना और पहनना पसंद है।
भारत में जितने भी वेद-शास्त्र एवं साहित्य आदि लिखे गये या फिर यहाँ का जो इतिहास है, वहाँ आप हर जगह माँ की भूमिका देखते हैं- चाहे भीष्म पितामह की माँ गंगा हों, भरत की माँ शंकुन्तला हो, एक मां वीरांगना लक्ष्मीबाई थी, जिन्होंने दुधमुंहे बच्चे को पीठ में बांधकर अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, एक माँ पन्ना भी थी जिन्होंने अपनी मिट्टी के लिए अपने बच्चे का भी बलिदान स्वीकार किया, पन्ना के लिए उसकी मिट्टी यानी मेवाड़ ही उसकी माँ थी।
ये भारत की बात है, इसके अलावा एक प्रसिद्ध रूसी उपन्यास भी रहा है जिसे लिखा था मैक्सिम गोर्की ने, ये उपन्यास सोवियत के साहित्य का नींव का पत्थर कहा जाता है। वैसे तो वो एक कम्युनिस्ट साहित्यकार थे लेकिन फिर भी उनकी इस पुस्तक को पढ़ा जाना चाहिये। ओशो का भी कम्युनिस्टों के बारे में यही विचार था, कम्युनिस्ट उन्हें भी पसंद नहीं थे। गोर्की के इस उपन्यास का मुख्य पत्र पाविल वलासोव है, लेकिन पुस्तक के पन्नों में जाने पर पता चलता है कि मुख्य पात्र पाविल वलासोव की माँ है। केवल पाविल की ही नहीं, बल्कि सारे श्रमिकों के लिए वो माँ जैसा महत्व रखती हैं।
पूरी दुनिया में इस उपन्यास के 28 भाषाओं में 106 संस्करण छपे। लेकिन इस उपन्यास में रूसी क्रांति के साल 1902 से 1917 तक का ही कथात्मक विवरण मिलता है। मैं आपको ले कर चलता हूँ महाभारत के दौर में, और देखते हैं कि युधिष्ठिर और भीष्म पितामह के बीच क्या बातचीत हुई थी।
महाभारत, शांति पर्व से ये क़िस्सा है। युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से प्रश्न पूछा था कि पितामह! धर्म का रास्ता बहुत बड़ा है और उसकी अनेकों शाखाएँ हैं। इनमें से किस धर्म को आप सबसे प्रधान एवं विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोक में भी धर्म का फल पा सकूँगा।”
इसके जवाब में भीष्म ने कहा था:
“मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम
इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुते”
यानी मुझे तो माता-पिता और गुरुजनों की पूजा ही अधिक महत्व की वस्तु नज़र आती है। इस लोक में इस पुण्यकार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है । यानी माता, पिता गुरु, ईश्वर, यही हमारी संस्कृति की क्रोनोलॉजी या सीक्वेंस है। जब पश्चिमी देश इसे सिर्फ़ एक दिवस तक सीमित रखते हैं, आपने देखा भी होगा कि सोशल मीडिया पर RT और लाइक्स देखा रहा इंसान पड़ोस में बैठी अपनी माँ के लिए चाय बनाने तक को राज़ी नहीं होता। ये कल्चर अब रिल्स और इंस्टैग्राम जेनरेशन के ज़रिये यहाँ भी जगह बनाने लगा है।
हिंदुओं को क्यों नहीं चाहिए जन्नत?
जबकि प्राचीन भारतीय लोग सभ्यता की इस माता, पिता, गुरु, ईश्वर की क्रोनोलॉजी को अच्छी तरह समझते थे। आपकी माँ, परिवार, नैतिकता और सद्गुणों का प्रतिनिधित्व करती है, आपके जीवन (धर्म) में प्रमुख महत्व रखती है। आपके पिता, आपके कर्तव्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, आपके नैतिक दायित्वों के बाद वो दूसरे स्थान पर हैं। आपका शिक्षक, सत्य का प्रतिनिधित्व और उस सत्य को खोजने की खोज, उनका तीसरा स्थान है। ईश्वर और मोक्ष अंतिम हैं। यह आपको बताता है कि व्यर्थ की प्रार्थनाओं पर अपना जीवन बर्बाद न करें – एक अच्छा इंसान बनें, अपना कर्तव्य निभाएं और अपने सच्चे ‘स्व’ की खोज करें। अगर आप ऐसा करेंगे तो ईश्वर आपके साथ रहेंगे। अब देखते हैं कि अमेरिका का क्या सीन है।
अमेरिका में साल २०२२ का डेटा देखिए- 1.3 मिलियन से अधिक बुजुर्ग नर्सिंग होम में रहते हैं। जैसे जैसे वहाँ आबादी बढ़ रही है, वैसे वैसे अमेरिका में बुजुर्गों को ओल्ड ऐज होम में डालने का सिलसिला भी ज़ोर पकड़ रहा है। अमेरिका में 54.1 मिलियन से अधिक वयस्कों, जो 65 या उस से अधिक उम्र के हैं, उनमें से 1.3 मिलियन नर्सिंग होम में रहते हैं, यानी क़रीब 2.4% बुजुर्ग नर्सिंग होम में। इसके अलावा बाक़ी के 918,700 बुजुर्गों को उनके घरवाले किसी बाहरी फेसिलिटी में छोड़ आए हैं। वर्तमान में 65+ आयु वर्ग के 54.1 मिलियन अमेरिकी वयस्क हैं। 2060 तक यह संख्या बढ़कर 95 मिलियन होने की उम्मीद है।
यही कल्चर अब भारत में भी हावी हो रहा है। ओल्डऐज होम यहाँ बनाए जा रहे हैं। मेट्रो सिटी ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी अब लोग अपने माँ-बाप को अपने घर पर नहीं रखना चाहते। अगर पहाड़ों की बात करें तो उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में पहाड़ ही अब ओल्ड ऐज होम बन चुके हैं। क्यों? क्योंकि लोग अपने बुजुर्ग माँ-बाप को वहीं छोड़ कर अच्छी लाइफस्टाइल के लिए शहरों की ओर भाग चुके हैं। उन शहरों में जा कर वो लोग मदर्स डे पर निबंध लिख रहे होते हैं अपने सोशल मीडिया पर।
जबकि भारत का इतिहास श्रवण कुमार का रहा है, जो अपने अंधे माँ-बाप को कंधों पर तीर्थ करवाने निकलता है। हरिशंकर परसाई भी जब लिखते हैं कि दिवस सिर्फ़ कमजोर का होता है तब वो भी यही संदेश देना चाहते हैं कि माता-पिता-गुरु देवता की सभ्यता वाले भारत में माँ की भूमिका को आप सिर्फ़ एक दिन में नहीं
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